उत्तराखंड को अलग राज्य बने 12 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन अब तक वहां स्थायी राजधानी के लिए किसी एक जगह का नाम तय नहीं हो सका है. विधानसभा, सचिवालय समेत तमाम विभाग देहरादून के काम चलाऊ भवनों में निपटाए जा रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस सरकार ने एक बार फिर ‘गैरसैंण का जिन्न’ बोतल से बाहर निकाल दिया है. राज्य कैबिनेट ने फैसला लिया है कि अब देहरादून के अलावा गैरसैंण में भी राज्य की विधानसभा बनेगी.
उत्तराखंड बनने से पहले ही स्थानीय जनमानस ने भावनात्मक रूप से गैरसैंण और उसकी 50 किमी परिधि के क्षेत्र को प्रस्तावित राज्य की राजधानी मान लिया था. पृथक राज्य आंदोलन के दौर में गैरसैंण दस साल तक आंदोलन की धुरी बना रहा. भौगोलिक आधार पर भी वह उत्तराखंड के केंद्र में है. अलग राज्य बनने के बाद भी गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए कई आंदोलन हुए. बाबा मोहन उत्तराखंडी ने इसी मांग के साथ 9 अगस्त, 2004 को बारहवीं बार भूख हड़ताल करते हुए प्राण त्याग दिए, लेकिन गैरसैंण के प्रति सरकारों की असंवेदनशीलता बनी रही. अब मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में विधानसभा भवन निर्माण और उसके एक सत्र को चलाने के कैबिनेट के निर्णय को ऐतिहासिक पहल बताते हुए इसे सकारात्मक कदम करार दिया है. इससे लोगों की उम्मीदें एक बार फिर परवान चढ़ी हैं. लेकिन कैबिनेट के निर्णय के बाद के घटनाक्रमों पर नजर डालें तो कोई खास उम्मीद बंधती नजर नहीं आती.
दरअसल उस दिन मंत्री प्रीतम सिंह चौहान को छोड़कर राज्य के सभी मंत्री और बड़े अधिकारी हैलिकॉप्टर से गैरसैंण पहुंचे और उसी दिन कुछ घंटों की बैठक की रस्म अदायगी के बाद वापस देहरादून के लिए उड़ गए. यह एक किस्सा भविष्य की तस्वीर दिखाने के लिए काफी है. उत्तराखंड क्रांति दल नेता काशी सिंह ऐरी कहते हैं, ‘गैरसैंण में विधानसभा भवन बनाने का निर्णय वास्तव में अच्छी पहल है, लेकिन यदि मंत्री और अधिकारी सड़क मार्ग से आते तो पहाड़ की परेशानियों को नजदीक से देखते.’ नीतियां बनाने वाले मंत्रियों और अधिकारियों के लिए यह जानना भी जरूरी था कि पहाड़ी क्षेत्रों में लोग खेती से दूर क्यों भाग रहे हैं. उन्हें खेती करने में किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, वे पलायन क्यों कर रहे हैं और क्यों सरकारी स्कूलों में हर साल बच्चे कम हो रहे हैं. मंत्री मौके पर जाकर ही उन कारणों की तलाश कर सकते थे कि राज्य के बजट का सबसे बड़ा हिस्सा पाने वाले सरकारी स्कूलों में बच्चे पढ़ने क्यों नहीं जाते हैं और मोटा वेतन पाने वाले अध्यापक गांवों के स्कूलों में टिकने के लिए क्यों तैयार नहीं हैं. नजदीक जाकर ही नीति-निर्धारकों को पता चल सकता था कि अच्छा कमाने वाला पहाड़ का हर परिवार अपने पुश्तैनी गांवों को छोड़ कर अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार नजदीकी कस्बों से लेकर देहरादून, कोटद्वार, हल्द्वानी और अन्य महानगरों की ओर क्यों भाग रहा है.
जमीन या कहें कि सड़क के रास्ते गैरसैंण जाया जाए तो नीतियों और उनके क्रियान्वयन की असफलताओं की कई कहानियां बिखरी पड़ी मिलती हैं. वहीं सफलता की मिसालें भी दिख जाती हैं जिन्हें राज्य में दोहराया जा सकता है. लेकिन रास्ते हवाई हों तो ऐसा कैसे होगा? ‘तहलका’ ने दोनों तरह के उदाहरणों को नजदीक से देखा.
सरकार 2014 के लोकसभा चुनावों में पहाड़ी जनता को रिझाना चाहती है. लेकिन जानकार मानते हैं कि अगर जनता की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुईं तो गैरसैंण का यह दांव उल्टा भी पड़ सकता है.
गैरसैंण जाते हुए कर्णप्रयाग से लगभग 18 किमी दूर चांदपुर गढ़ी के पास मुंह अंधेरे लगभग 500 बकरियों और भेड़ों का झुंड हमारी गाड़ी को रुकने पर मजबूर कर देता है. ये पालसी हैं. पालसी यानी भेड़-बकरियां पालने वाले. सर्दियां शुरू होते ही वे अपने पशुओं के साथ पहाड़ों से उतरकर राज्य के कम ऊंचाई वाले भाबर-तराई के जंगलों की तरफ कूच करते हैं. गाड़ी से उतरने पर हमें लखपत सिंह मिलते हैं. उनके झुंड में करीब 100 भेड़-बकरियां हैं. चमोली में विकासनगर (घाट) के निवासी 35 वर्षीय सिंह से हमें जानकारी मिलती है कि वे ऊन और बकरियां बेच कर सालाना दो लाख रुपये तक कमा लेते हैं. इससे उनके परिवार की गाड़ी ठीक-ठाक तरीके से चल जाती है. अन्य पेशों की तुलना में भेड़पालन से जुड़ी कठिनाइयों के बारे में पूछने पर बताते हैं, ‘सर्दी, गर्मी हो या बरसात, बकरियों और भेड़ों के साथ बाहर तो निकलना ही पड़ता है, परंतु यह काम बड़े शहरों की छोटी नौकरी जैसा बुरा नहीं है.’
सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य में लगभग 16 लाख भेड़-बकरियां हैं. इस हिसाब से यह कम से कम 16 हजार परिवारों को स्व-रोजगार देने वाला व्यवसाय है. ‘तहलका’ ने भेड़पालन के क्षेत्र में सरकार के काम की गहराई से तहकीकात की. पता चला कि 60 से लेकर 80 के दशक के बीच अलग-अलग सरकारों द्वारा भेड़ों की नस्ल सुधारने के लिए पहाड़ी जिलों में 13 केंद्र खोले गए थे. इनमें से अकेले चमोली में चार हैं. अधिकारी इन फार्मों से लखपत सिंह जैसे कई भेड़-पालकों को परंपरागत भेड़ों की नस्ल सुधारने के लिए विदेशी मेढ़ों को देने का दावा करते हैं. लेकिन राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में एक भी नया भेड़-केंद्र नहीं खुला. उल्टा पुराने केंद्रों की हालत खस्ता हो गई. गैरसैंण में विधानसभा भवन की घोषणा के दिन चार में से तीन फार्मों में ही प्रभारी पशु-चिकित्सक तैनात थे. गडगू के भेड़ पालक श्रीधर राणा कहते हैं, ‘विदेशी मेढ़ों से पैदा हुए भेड़ों के बच्चे कुछ ही महीनों में मर जाते हैं. इस समस्या का हल अभी तक पशु चिकित्सक नहीं खोज पाए हैं. वंश वृद्धि के लिए दिए जा रहे इन नाजुक विदेशी मेढ़ों को ही बचाना बहुत मुश्किल का काम है इसलिए लोग देसी मेढ़ों का ही प्रयोग कर रहे हंै.
यानी राज्य बनने से पहले से चल रही नस्ल सुधारने की इस सरकारी योजना का व्यावहारिक लाभ भेड़-पालक नहीं ले पा रहे थे और राज्य बनने के बाद भी इसमें कोई सुधार नहीं हुआ.
गैरसैंण के रास्ते पर ही दोनों ओर और पास के कई गांवों में चाय के बगान हैं. इस क्षेत्र में 1994 से शुरू हुई चाय परियोजना के लिए कई गांवों के किसानों ने अपनी खेती दी. उस समय प्रचार हुआ कि चाय बगान पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने का महत्वपूर्ण आधार बनेंगे. करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद इस क्षेत्र की 145 हेक्टेयर भूमि पर चाय के बगान भी विकसित हो गए. इसके लिए पास के ही गांव भटोली में चाय फैक्टरी लगाई गई थी जहां बनी चाय स्वाद और खुशबू में दार्जिलिंग की ग्रीनटी को टक्कर दे रही थी. अब एक साल से यह फैक्टरी बंद पड़ी है. नतीजा बगानों की पत्तियों को तोड़ कर वहीं फेंका जा रहा है. साल भर में इस फैक्टरी में बनने वाली 30 हजार किलोग्राम चाय बाजार तक नहीं पहुंची. लाखों का नुकसान तो हुआ ही इस पेशे से जुड़े लोगों में भी निराशा फैली. छोटे-से कारणों से बंद इस फैक्टरी को फिर शुरू करने का तरीका खोजने की फुर्सत यहां के विधायक, विभागीय मंत्री और काबिल नौकरशाहों को नहीं है. यही हाल चमोली के मंडल में खुले जड़ी-बूटी शोध संस्थान का है. राज्य बनने से पहले योजनाकार जड़ी-बूटी को भी राज्य की आर्थिकी के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्र मानते हुए बड़े-बड़े आंकड़े पेश करते थे. ब्लाक प्रमुख भगत सिंह बिष्ट कहते हैं, ‘करोड़ों खर्च हो चुके हैं, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं दिखता.’
कैबिनेट बैठक के दिन शांत गैरसैंण क्षेत्र पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था. मंत्रियों से मिलना तो दूर बैरियरों के कारण लोगों की आवाजाही भी बंद हो गई
थोड़ा और आगे जाने पर दिवाली खाल से गैरसैंण दिखता है. सालों पहले यहीं पास के भलारीसैंण में गौ-वंश सुधार फार्म खोला गया था. राज्य बनने के बाद यहां सुधार होना तो दूर पशुओं की संख्या और कम हो गई है. जिस उद्देश्य से यह केंद्र खोला गया था उसे पूरा करना तो दूर, इस केंद्र को अब विभाग बोझ समझता है. इसी तरह पशुओं के वीर्य को संरक्षित रखने के लिए डेनमार्क की मदद से श्रीनगर में बनी जलीय नाइट्रोजन इकाई सालों से बंद पड़ी है. किसी मंत्री या राजनेता ने आजतक इसकी कोई सुध नहीं ली. लेकिन राज्य के पशुपालन विभाग में ही सफलता की अनूठी मिसाल भी है. ‘उत्तराखंड लाइव स्टाक डेवलपमेंट बोर्ड’ ने राज्य में कई प्रेरणादायक सफल कार्य शुरू किए हैं. बोर्ड के डॉक्टरों ने देश में पहली बार पशुओं में भ्रूण प्रत्यारोपण की तकनीक विकसित की है. विदेशों से सांड मंगाना अत्यधिक महंगा पड़ता है. इसलिए विदेशों से पशुओं के भ्रूण मंगा कर उन्हें स्थानीय पशुओं में प्रत्यारोपित करके अच्छी नस्ल के पशु तैयार किए जाते हैं और फिर बोर्ड उनके वीर्य को देश भर में बेचता है. बोर्ड हर साल दुधारू पशुओं के 20 लाख डोज वीर्य तैयार कर रहा है. बोर्ड केरल, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित देश के दर्जन भर राज्यों को प्रशिक्षण दे चुका है और आधा दर्जन अन्य राज्य कतार में हैं. इस क्षेत्र में राज्य की विशेषज्ञता को देख कर नेशनल डेरी प्रोजेक्ट में राज्य को विशेष जिम्मेदारी दी जा रही है. देहरादून में कालसी स्थित बोर्ड का फार्म भ्रूण प्रत्यारोपण विधि के जरिए देश में लाल सिंधी गायों की नस्ल को संरक्षित करने और बढ़ाने का एकमात्र केंद्र है.
योजनाकारों की कोशिश है कि देश की अर्थव्यवस्था को गांवों की तरफ मोड़ा जाए. लेकिन उत्तराखंड में गांवों से संबंधित विभागों उद्यान, कृषि, पशुपालन और मत्स्य पालन विभाग का बजट और विभागों की तुलना में गौण है. इन्हीं विभागों से जुड़े काम पहाड़ों में रोजगार के सबसे बड़े साधन थे. राज्य सरकार के ही एक सचिव बताते हैं, ‘केंद्रीय योजना आयोग की बैठक में नीति-निर्माता इस पहाड़ी राज्य में बुनियादी क्षेत्रों की लिए योजना के लिए धन देने के लिए आतुर दिखते हैं, लेकिन नौकरशाह सड़क और सिंचाई जैसी दुधारू योजनाओं को ही अपनी प्राथमिकताओं में रखते हैं. हर नयी सरकार के बनते समय मंत्री भी इन्हीं दो विभागों को पाने के लिए लड़ते हैं.’
उत्तराखंड राज्य निर्माण के समय पर्यटन को यहां की आर्थिकी के लिए सबसे संभावित संबल माना गया था. राज्य बनने के बाद देहरादून से लेकर बद्रीनाथ तक सरकारों ने एक भी नयी पर्यटक इकाई नहीं बनाई. लेकिन लोग अपने प्रयासों से बहुत कुछ कर रहे हैं. गैरसैंण से वापसी में गौचर और रुद्रप्रयाग के बीच शिवनंदी में अलकनंदा नदी के पास एक छोटा रिजार्ट दिखता है. इसे पहाड़ी घरों का एक समूह कहें तो बेहतर होगा. दिल्ली में नांगलोई गांव के निवासी शलभ गहलौत और उनकी इजरायली पत्नी एलिसा मिलर इसे चलाती हैं. इन भवनों में अच्छे टॉयलेट के अलावा सब कुछ पुराना और परंपरागत है. शलभ बताते हैं कि परंपरागत भवन शैली में और स्थानीय सामग्री से बने घर सस्ते और परिस्थितियों के अनुकूल हैं. वे स्थानीय बच्चों को मुफ्त कयाकिंग भी सिखाते हैं. इन बच्चों के बीच उन्हें भविष्य के ओलंपिक पदक विजेता की तलाश है. उन्होंने पानी और कूड़े के निस्तारण के लिए सस्ती और स्थानीय विधियां विकसित की हैं ताकि कचरा पास ही बहती अलकनंदा नदी में न मिले. पर्यटन, खेल, ग्राम्य विकास और जैविक कूड़े के निस्तारण का यह अनूठा मॉडल स्थानीय युवकों को पहाड़ में रहकर ही अच्छा रोजगार पैदा करने की प्रेरणा दे सकता है. शलभ की तरह कई युवा अपने दम पर सफलता की कहानियां दोहरा रहे हैं. लेकिन नेताओं के पास इन्हें देखने का वक्त नहीं है.
कैबिनेट बैठक के दिन शांत गैरसैंण क्षेत्र पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था. मंत्रियों से मिलना तो दूर बैरियरों के कारण लोगों की आवाजाही भी बंद हो गई. हवाई मार्ग से आए मंत्रियों और नौकरशाहों के पास अपने विभाग की समस्याओं को सुनने और समझने के लिए समय नहीं था. कैबिनेट बैठक के समय जनता को उलझाए रखने के लिए पास में लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों का कार्यक्रम रखा गया था.
आम जनता गैरसैंण में विधानसभा बनाए जाने के फैसले को मुख्यमंत्री की ही तरह सकारात्मक पहल के रूप में ले रही है. हालांकि इस निर्णय के पीछे राजनीतिक कारण भी हैं. सूत्र बताते हैं कि इसके पीछे क्षेत्रीय सांसद सतपाल महाराज की जिद थी. विधायकों की संख्या के लिहाज से राज्य में उनका गुट फिलहाल सबसे प्रभावशाली है.