नीतीश कुमार 10.0: बिहार की सत्ता, स्थिरता और सियासी बेचैनी का सबसे निर्णायक अध्याय

अगर नीतीश इस बार बिहार को एक नए युग में प्रवेश करा पाए, तो इतिहास उन्हें सिर्फ “दस बार के मुख्यमंत्री” के रूप में नहीं, बल्कि “बिहार के पुनर्निर्माण के शिल्पकार” के रूप में याद करेगा। अंजलि भाटिया की एक रिपोर्ट

पटना की हवा में उस दिन एक अजीब-सी खामोशी थी। 20 नवंबर 2025, सुबह का गांधी मैदान, जहाँ इतिहास हर कुछ वर्षों में अपना चेहरा बदलने आता है। पर इस बार नज़ारा अलग था। मंच पर खड़े नीतीश कुमार ने जब दसवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, तो उसे महज़ एक लोकतांत्रिक रस्म कहना सच से भागना होता। यह दृश्य उस राजनीतिक यात्रा का चरम था, जिसे बिहार ने दो दशकों तक महसूस किया है।कभी उम्मीदों के साथ, कभी संदेहों के साथ, और अक्सर बेचैनी की एक परत के साथ।

नीतीश कुमार के चेहरे पर एक शांत दृढ़ता थी, वही पुरानी शैली—कम बोला, गहरे देखा, और अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता का ऐसा प्रदर्शन किया जिसे विरोधी भी स्वीकार करने को मजबूर हैं। लेकिन भीड़ के नारों और मंच की चकाचौंध में एक बात सबसे ज़ोर से गूँज रही थी: बिहार अब एक ऐसे मोड़ पर है जहाँ एक और शपथ से ज़्यादा मायने रखता है कि यह कार्यकाल किस दिशा को ले जाएगा। क्या यह बिहार के आधुनिकीकरण की शुरुआत होगा, या लंबे शासन की अनिवार्य थकान का अंतिम अध्याय?

इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ सत्ता के गलियारों में नहीं, बल्कि गाँवों की धूल में, कस्बों की बेचैनी में, युवाओं की उम्मीदों में, और राजनीतिक समीकरणों की अनकही दरारों में छिपा है।

एक आदमी, दो दशक, और बिहार की राजनीतिक आत्मा

2005 के बिहार को याद कीजिए—वह राज्य अपराध की गिरफ्त में था, प्रशासनिक संरचना न के बराबर, और विकास एक दूर का सपना। एक ऐसे समय में नीतीश कुमार उभरे जब जनता ने लालू राज की थकान और अव्यवस्था से निकलने की ख्वाहिश रखी। वह सुरक्षा और शासन के वादे के साथ आए, और शुरुआती वर्षों में ऐसा माहौल बनाया कि लोग पहली बार कहने लगे बिहार बदल रहा है।

पर राजनीति कभी एक रेखीय कहानी नहीं देती। बदलाव के बीच गठबंधन का उतार-चढ़ाव, भाजपा से अलगाव, फिर महागठबंधन, फिर वापसी, फिर टूटन—इन सबने नीतीश की छवि को दो तौर पर गढ़ा। एक ओर वे स्थिरता का चेहरा बने, दूसरी ओर वे अपने “यू-टर्न” के लिए भी कुख्यात हुए। उनके आलोचक उन्हें “पलटी कुमार” कहते रहे, और समर्थक उन्हें “बिहार का आधुनिक शिल्पकार”। सच इन दोनों के बीच कहीं फँसा रहा—इस राज्य की उम्मीदों की तरह।

लेकिन चाहे पलटवार हों या वापसी, चाहे गठबंधन हो या अलगाव एक बात कभी नहीं बदली: बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार का केंद्रीय स्थान। 20 वर्षों में उन्होंने वह नैरेटिव बनाया, जिसमें उनसे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, पर उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

अब दसवें कार्यकाल की शुरुआत उस यात्रा के बाद हो रही है जिसमें स्थिरता और बेचैनी दोनों की छाप है।

2025 का जनादेश: जनता ने उम्मीद दी, और बदले में हिसाब माँगा

2025 के चुनाव परिणाम केवल एक राजनीतिक जीत नहीं थे, बल्कि जनमत का बड़ा विस्फोट थे। जेडीयू और भाजपा—दोनों ने बिहार के इतिहास में शायद ही कभी देखी गई सफलता हासिल की। जेडीयू को 101 में से 89 सीटें, और भाजपा को 85 सीटें। यह सिर्फ एक गठबंधन की जीत नहीं थी, बल्कि जनता की वह पुकार थी जो कह रही थी: अब आधे-अधूरे बदलाव से संतुष्टि नहीं।

इतने बड़े जनादेश के साथ, उम्मीदों की छाया भी उतनी ही गहरी होती है। यह चुनाव बताता है कि जनता बदलाव चाहती है, लेकिन प्रयोग नहीं। अनुभव चाहती है, लेकिन गतिशीलता भी। वे थक चुके हैं उस बिहार से जो हमेशा पलायन, गरीबी, कृषि संकट और बेरोजगारी की कहानियों के लिए जाना जाता है। वे उस बिहार को देखना चाहते हैं जो उद्यम, उच्च शिक्षा, आधुनिक ढाँचे और उभरते उद्योगों के लिए जाना जाए।

नीतीश कुमार जानते हैं कि 2025 का चुनाव उनसे पुरानी उपलब्धियों की पुनरावृत्ति नहीं चाहता—यह उनसे कुछ नया चाहता है। बहुत नया।

गांठों वाला गठबंधन: जहाँ सहयोग है, पर ख़ामोशी में प्रतिस्पर्धा भी

एक तरफ ऐसा लगता है कि नीतीश और भाजपा के बीच इस बार सबकुछ सहज है। भाजपा ने दो उपमुख्यमंत्री देकर शक्ति-संतुलन का सम्मान दिखाया है। मंच पर मुस्कानें भी थीं, शपथ के दौरान सौहार्द भी। लेकिन बिहार की राजनीति में सतह हमेशा कुछ और कहती है, और गहराई कुछ और।

भाजपा का जनाधार तेजी से बढ़ रहा है। शहरी वर्ग, युवा मतदाता, और व्यापारी तबका भाजपा के साथ मजबूती से खड़ा हो रहा है। यह वह इलाका है जहाँ जेडीयू की पकड़ पहले की तुलना में ढीली पड़ती जा रही है। नीतीश जानते हैं कि भाजपा का उभार सहयोग भी है और चुनौती भी। अभी गठबंधन है, पर गठबंधन भविष्य का आश्वासन कभी नहीं होता।

और दूसरी तरफ जेडीयू के भीतर नेतृत्व का संकट गहरा है। कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नहीं। नीतीश के बाद पार्टी का क्या होगा? यह सवाल पार्टी की दीवारों से निकलकर अब जनता की चर्चा में भी पहुँच चुका है। यह अनिश्चितता मुख्यमंत्री आवास के भीतर बैठी एक छाया की तरह है—दिखती नहीं, पर हमेशा मौजूद रहती है।

नीतीश कुमार 10.0 की वास्तविक परीक्षा सत्ता चलाने से ज़्यादा, सत्ता बचाए रखने की नहीं बल्कि सत्ता को अर्थपूर्ण बनाने की है — क्योंकि अब गठबंधन में शक्ति ही नहीं, प्रतिस्पर्धा भी छिपी है।

वादों का पहाड़, हकीकत की दरारें और उम्मीदों की आग

नीतीश कुमार ने इस बार वह वादा किया है जो बिहार के राजनीतिक इतिहास में सबसे बड़ा चुनावी वायदा माना जा रहा है—एक करोड़ नौकरियाँ। यह केवल चुनावी नारा नहीं, बल्कि वह सपना है जिससे बिहार का हर युवा रोज़ दो-चार होता है।

पर नौकरी सिर्फ घोषणाओं से नहीं आती। इसके लिए उद्योग चाहिए, स्किल चाहिए, इंफ्रास्ट्रक्चर चाहिए, और सबसे ज़रूरी चाहिए एक ऐसा राजनीतिक माहौल जो निवेशकों को भरोसा दे सके। बिहार अभी भी उन चुनौतियों से भरा है जो उद्योगपतियों को डराती हैं—जमीन अधिग्रहण की मुश्किलें, धीमी प्रशासनिक प्रक्रियाएँ, क़ानून-व्यवस्था पर lingering सवाल, और skilled manpower की भारी कमी।

इसलिए नीतीश का यह वादा महज़ विकास का एजेंडा नहीं है, बल्कि राजनीतिक साहस का भी इम्तिहान है।

दूसरा बड़ा वादा—हर जिले में मेगा स्किल सेंटर।

यह विचार काग़ज़ पर शानदार है, लेकिन अगर यह केंद्र सिर्फ सरकारी फाइलों के शो-पीस बनकर रह गए, तो जनता की नाराज़गी पहले से कहीं अधिक तेज़ होगी। क्योंकि इस बार युवा इंतज़ार नहीं करना चाहते। वे पलायन की थकान से बाहर आना चाहते हैं। वे ट्रेन के रिज़र्वेशन पर लिखे “बिहार – दिल्ली स्पेशल” को रोजगार की मजबूरी का प्रमाण नहीं बनाना चाहते।

महिला उद्यमिता का वादा भी एक मजबूत सोच है। पर सवाल वही—क्या ये योजनाएँ ज़मीन पर उतरीं भी? या यह सब एक ऐसी किताब के पन्ने ही रह गए जिसका पाठ कोई नहीं पढ़ता?

बिहार की जटिल सच्चाइयाँ: जमीन, समाज और व्यवस्था का असली संघर्ष

अगर इन वादों को पूरा करना है तो नीतीश को उन संरचनात्मक समस्याओं से भिड़ना होगा जो पिछले 50 वर्षों से बिहार की रीढ़ में फँसी हुई हैं। यह सिर्फ सरकारी योजनाओं की बात नहीं, बल्कि उस सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता की है जो बिहार को उसके पूरे सामर्थ्य तक पहुँचने से रोकती रही है।

रोजगार की समस्या केवल उद्योग की कमी नहीं, बल्कि कौशल और अवसरों का असंतुलन भी है। युवा पढ़ते हैं, पर पढ़ाई का बाजार नहीं है। वे सपने देखते हैं, पर उन सपनों के लिए जमीन कहीं और मिलती है—दिल्ली, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र। बिहार वर्षों से अपने युवाओं को जन्म देता है, पर उन्हें अपने भीतर रोक नहीं पाता।

कृषि पर अत्यधिक निर्भरता राज्य की दूसरी सबसे बड़ी कमजोरी है। खेती आज भी खतरों से भरी है—सिंचाई की कमी, मौसम की मार, बाजार तक पहुँच का संघर्ष और जमीन का बिखराव। किसान मेहनत करते हैं, पर आर्थिक लाभ का अनुपात शर्मनाक है।

शिक्षा में सुधार हुए हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन स्कूलों के बाद की कहानी—कॉलेज, विश्वविद्यालय, शोध संस्थान—बुरी तरह कमजोर हैं। जहाँ युवा higher education के लिए बाहर जाते हों, वहाँ रोजगार का पारिस्थितिकी तंत्र मजबूत होना मुश्किल है।

स्वास्थ्य तंत्र की कहानी भी दो टुकड़ों में बटी है। बड़े अस्पताल खड़े हुए हैं, मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ी है, पर ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों का सच अब भी भयावह है। डॉक्टर नहीं, दवाएँ नहीं, और प्रशासन अपनी पुरानी lethargy के साथ।

और इन सबके ऊपर वह अदृश्य दीवार—भ्रष्टाचार। जब किसी योजना के बजट का हिस्सा पहली ही परत में गायब हो जाए, तो विकास की गति वैसे ही धीमी पड़ जाती है जैसे खराब इंजन वाली ट्रेन चढ़ाई पर। योजनाएँ बनती हैं, घोषणाएँ होती हैं, पर जमीन तक पहुँचने तक वे अक्सर अपनी आधी जान खो चुकी होती हैं।

इस पूरे ढांचे को सुधारना ही नीतीश 10.0 का असली युद्ध है।

नीतीश कुमार के सामने सबसे कठिन सवाल: क्या वे इतिहास गढ़ेंगे या इतिहास बनकर रह जाएँगे?

इस कार्यकाल को केवल राजनीतिक घटना कहना उसके महत्व को हल्का करना होगा। यह वह पल है जब बिहार का भविष्य और नीतीश की विरासत दोनों दाँव पर हैं। यह कार्यकाल सिर्फ अगले पाँच सालों की सरकार नहीं, बल्कि अगले 25 सालों के बिहार की दिशा तय करने वाला दौर है।

क्योंकि आज बिहार जिस चौराहे पर खड़ा है, वहाँ से रास्ते दो ही हैं—

पहला रास्ता एक ऐसे बिहार की ओर जाता है जहाँ उद्योग आते हैं, आईटी पार्क बनते हैं, उच्च शिक्षा संस्थान उभरते हैं, नौकरियाँ पैदा होती हैं, पलायन रुकता है, और राज्य देश के विकास की धारा में तेज़ तरक्की करता है।

दूसरा रास्ता उस दोहराव की ओर ले जाता है जहाँ वादे बड़े हों, घोषणाएँ चमकदार हों, पर धरातल वही पुराना हो। जहाँ जनता की उम्मीदें हर चुनाव में बनें और टूटें। जहाँ बिहार एक संभावना हो, पर उपलब्धि न बन पाए।

नीतीश कुमार शायद यह बात किसी और से ज्यादा समझते हैं कि उनकी यात्रा का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण अध्याय शुरू हो चुका है। अब वे सिर्फ एक मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि एक संभावित विरासत के वाहक हैं। और इतिहास इस बात से नहीं बनता कि आप कितनी बार सत्ता में लौटे—बल्कि इससे बनता है कि आपने सत्ता में रहते हुए क्या बदल दिया।

समापन: बिहार का भाग्य और नीतीश की विरासत — दोनों यहीं से लिखा जाएगा

शपथ के बाद गांधी मैदान धीरे-धीरे खाली होने लगा। मंच के पीछे नेताओं की भीड़ घटी, और पटना की हवा में राजनीतिक शोर की जगह फिर से वही रोज़मर्रा की हलचल लौट आई। पर उस दिन जो हुआ, वह सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं था—वह एक बड़ा सवाल था, जिसे नीतीश कुमार, उनकी सरकार, उनका गठबंधन, और पूरा बिहार आने वाले वर्षों में जवाब देगा।

अगर नीतीश इस बार बिहार को एक नए युग में प्रवेश करा पाए, तो इतिहास उन्हें सिर्फ “दस बार के मुख्यमंत्री” के रूप में नहीं, बल्कि “बिहार के पुनर्निर्माण के शिल्पकार” के रूप में याद करेगा। और अगर वे असफल हुए—तो यह वह अध्याय होगा जिसे बिहार अपनी सबसे बड़ी खोई हुई संभावना के रूप में दर्ज करेगा। समय की घड़ी अब चल चुकी है। विरासत का दरवाज़ा खुल चुका है। अब देखना है।नीतीश कुमार उसमें प्रवेश करते हैं, या उसके सामने खड़े रह जाते हैं।