निर्भया बलात्कार मामले के चारों दोषियों को अंतत: फाँसी के फंदे पर झूलना पड़ा। कहा जा रहा है कि फैसला आने में सात साल लग गये। यह कहते हुए हमें यह भी कहना होगा कि अगर हैदराबाद में पशु चिकित्सक महिला की 28 नवंबर, 2019 को सामूहिक बलात्कार के बाद ज़िन्दा जला देने की वारदात को अंज़ाम देने वाले दोषियों को पुलिस द्वारा एन्काउंटर में मार गिराने की घटना के बाद इस फैसले में तेज़ी आयी। अन्यथा हो सकता है कि फैसले में और देर हो जाती। हैदराबाद की वारदात भी निर्भयाकांड जितनी ही, बल्कि उससे भी अधिक क्रूर और भयावह थी, जिसने एक बार फिर से पूरे देश में उबाल ला दिया था। तब बार-बार यह कहा जाने लगा कि अगर निर्भया के दोषियों को फाँसी मिल गयी होती, तो हो सकता है कि हैदराबाद की इस पशु चिकित्सक महिला के साथ वहशी यह दङ्क्षरदगी न करते।
तभी यह बात भी सामने आयी कि निर्भया के दोषियों की दया याचिका दिल्ली सरकार की फाइलों में पड़ी है। यह बात अपने आप में हास्यास्पद थी, क्योंकि दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल महिलाओं के प्रति हिंसा के मामलों में इंसाफ के लिए अपनी सक्रियता के लिए काफी लोकप्रिय रही हैं। जो भी हो, हैदराबाद मामले से हुए हंगामे के बाद साल भर से अटकी हुई अर्जी आगे बढ़ी और अंतत: सात साल और तीन महीने के बाद निर्भया के दोषियों को फाँसी लगी और निर्भया की माँ आशा देवी ने कहा कि निर्भया को न्याय मिला, देश की सारी निर्भयाओं को न्याय मिला।’ निश्चय ही निर्भया के आरोपियों को फाँसी से उन सभी महिलाओं में एक उम्मीद जगी होगी, जो उससे भी कई साल पहले से इंसाफ का इंतज़ार कर रही हैं और पूरी तरह उम्मीद खो बैठी हैं। निर्भया के साथ 16 दिसंबर, 2012 की रात को दक्षिण दिल्ली में सात लोगों ने एक बस में सामूहिक बलात्कार के साथ-साथ बर्बरता की थी। वह अपने एक मित्र के साथ फिल्म देखकर रात को ब्लूलाइन बस (उन दिनों चलने वाली प्राइवेट बस) में वापस आ रही थीं। मित्र ने बचाने की काफी कोशिश की, पर उन्होंने उसे भी जमकर पीटा। फिर दोनों को बस में से फेंककर बस दौड़ा ले गये। मित्र ने ही 100 नम्बर पर फोन कर पुलिस को बुलाया। छ: आरोपियों में से एक रामसिंह ने कुछ महीने बाद ही जेल में आत्महत्या कर ली। एक नाबालिग साबित हुआ। उसे कोर्ट ने सुधार के लिए भेज दिया और कहा जाता है कि एक गैर-सरकारी संगठन की निगरानी में वह दक्षिण भारत में किसी जगह काम कर रहा है। बाकी चार दोषियों- विनय शर्मा, अक्षय ठाकुर, पवन गुप्ता तथा मुकेश सिंह को 20 मार्च की सुबह 5:30 बजे तिहाड़ जेल में फाँसी दे दी गयी।
इस फैसले को हमेशा इसलिए याद किया जाएगा, क्योंकि बलात्कार के मामले में तिहाड़ जेल में पहली बार एक साथ चार दोषियों को फाँसी लगायी गयी है। इसलिए भी कि चारों को एक साथ फाँसी लगने की व्यवस्था का सहारा ले दोषियों का वकील फाँसी को तय समय से दो घंटे पहले तक रुकवाने में लगा रहा। इससे पहले दो महीने तक फाँसी टलवाने में वह कामयाब रहा। इससे कानून व्यवस्था की खामियाँ खुलकर सामने आयीं। एक नहीं, कई बार लगा जैसे कानून पीडि़त के साथ न होकर अपराधियों के साथ है।
आज लोग भूल चुके होंगे शायद और उन्हें याद दिलाना ठीक ही होगा कि जिस तरह 2012 के दिसंबर की सर्दी में दिल्ली में इंडियागेट पर युवाओं ने दिन-रात निर्भया के पक्ष में अहिंसक आन्दोलन किया और उस समय की मनमोहन सरकार ने उन पर डण्डे चलवाये, राहुल गाँधी व सोनिया गाँधी में से कोई भी उनके बीच नहीं गया; उससे लोगों का भरोसा सरकार व कांग्रेस नेतृत्व में कम हुआ और 2014 के चुनाव में महिला सुरक्षा एक मुख्य चुनावी मुद्दा न होते हुए भी अंडरकरंट मतदान के समय वह जनता के दिमाग में रहा। कह सकते हैं कि कांग्रेस की हार में निर्भया कांड की भी कहीं एक अप्रत्यक्ष भूमिका रही। वैसे ही जैसे कि केजरीवाल की आप पार्टी की जीत में।
फाँसी के पक्ष में सबसे अहम तर्क यह दिया जाता है कि इससे अपराधियों में कानून के प्रति डर पैदा होता है। यह तो अब पता चलेगा कि हर तीन मिनट पर भारत में होने वाली बलात्कारों की वारदात में कितनी कमी आती है। पर मेरा सवाल है कि क्या इस फाँसी से उस किशोरी की दहशत खत्म हो गयी, जो 30 नवंबर की सर्द सुबह संसद मार्ग पर जाकर देश के हुक्मरानों से जानने के लिए बैठ गयी कि अपने ही देश में मैं सुरक्षित क्यों नहीं रह सकती?’ उसके चेहरे पर खौफ था और हाथ में तख्ती। नितांत अकेली वह अपने खौफ के साथ वहाँ शान्त बैठी थी और आने-जाने वाले लोग उसके हाथ में थमी तख्ती पर लिखे सवाल को पढ़कर आगे बढ़ जाते थे। अंतत: पुलिस वहाँ आयी और उसे अपनी गाड़ी में डालकर ले गयी। उसके वहाँ से हटते ही संसद मार्ग साफ हो गया। कुछ गज़ की दूरी पर बैठे हुक्मरानों ने चैन की साँस ली; क्योंकि जवाब देने के लिए अब वहाँ कोई सवाल नहीं दिख रहा था। निर्भया के दोषियों को फाँसी से उस बच्ची को अपने सवाल का जवाब मिला या नहीं, यह तो मैं नहीं जानती; पर जिस तरह से दोषियों में से एक ने अपनी जान न बचती देख एक दिन पहले जेल में अपने परिवार से मुलाकात के दौरान कहा- ‘हमें फाँसी लगा देने से क्या बलात्कार रुक जाएँगे, नहीं रुकेंगे!’ तो हताशा में ही सही, उसने सच ही कहा। ऐसे में निर्भया के माता-पिता अगर कहते हैं कि ‘निर्भया को तो न्याय मिल गया, अब वे देशभर की निर्भयाओं को न्याय दिलाने के लिए काम करेंगे; तो वे समझ लें कि उनका काम पहले से भी कहीं ज़्यादा कठिन है।
कठिन इसलिए, क्योंकि भले ही हमारे कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद कहते रहें कि अब बलात्कार के मामालों में नयाय व्यवस्था को दुरुस्त किया जाएगा। हम चाहते हैं कि ऐसा ही हो। पर अगर गौर करें, तो पाएँगे कि देश के लोग रोज़ हो रहे बलात्कारों की घटनाओं के प्रति एकजुट होकर गुस्से का इज़हार नहीं करते। तो क्या इसके लिए देश को अभी एक-दो और निर्भया व महिला पशु चिकित्सक जैसी देश में उबाल पैदा करने वाली वारदातों का इंतज़ार करना होगा? ऐसा इसलिए कि निर्भया वारदात के बाद वर्मा आयोग, जिसकी माँग महिला संगठन लम्बे समय से कर रहे थे; बैठा और उसने बहुत तेज़ी से काम करते हुए यौन हिंसा के खिलाफ अपनी सिफारिशें दे दीं। फास्ट ट्रैक कोर्ट और निर्भया फंड उनमें दो ऐसी महत्त्वपूर्ण सिफारिशें थीं, जिन्हें लागू तो किया गया, पर उनका हश्र हम सबके सामने है। सात साल के बाद फैसले में तेज़ी लाने के लिए सरकारों व अदालतों ने कई और वारदात का इंतज़ार किया। अब कोई दूसरा ए.पी. सिंह वकील लचर कानून व्यवस्था का सहारा लेकर दोषियों की फाँसी को आिखरी क्षण तक टलवाने की कोशिश न कर सके इसके लिए कोरोना व मंदी में फँसती अर्थ-व्यवस्था से जूझती सरकार के लिए कानूनों में संशोधन करना कितना अहम होगा? अभी यह कहना कठिन है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चारों दोषियों को फाँसी लगने के बाद कहा- ‘निर्भया को न्याय मिला। महिलाओं की सुरक्षा व सम्मान को सुनिश्चित करना बेहद महत्त्वपूर्ण है।’ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था-‘आज का दिन प्रतिज्ञा लेने का है कि हम ऐसे मामले दोबारा नहीं होने देंगे। पुलिस, अदालत, राज्य व केंद्र सरकारों को ही यह प्रतिज्ञा लेनी होगी। कानूनी खामियों को दूर करने के लिए मिलकर काम करना होगा।’ ये दोनों बयान कितने रस्मी हैं, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि सात साल में निर्भया को कम से कम न्याय मिल तो गया। निर्भया कांड के बाद महिलाओं के लिए लगातार और अधिक असंरक्षित होती चली गयी दिल्ली में इन सात साल में भी अपराधी के डीएनए टेस्ट के लिए एक फौरेंसिक लैब तक नहीं लग पायी। रिहेब्लिटेशन सेंटर तो और भी दूर की बात है।
(लेेखिका वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)