स़फाई का काम पूँजीपतियों के हाथ में जाने से बढ़ी समस्या
सरकार सरकारी कर्मचारियों पर लापरवाही के आरोपों और कम बजट में अधिक व बेहतर सेवाएँ प्रदान करने के लिए हर सेक्टर में निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। लेकिन निजीकरण के तहत जो भी काम हो रहा है, वह भी सरकारी व्यवस्था की तरह, बल्कि कई क्षेत्रों में उससे भी कई गुना लचर व अव्यस्थित साबित हो रहा है। ऐसे में लोगों को उन्हीं हालात का सामना करना पड़ रहा है, जो हालात सरकारी व्यवस्था के तहत पेश आते रहे हैं।
ऐसे ही कार्यों में स़फाई भी शामिल है। स्वस्थ रहने के लिए नियमित स़फाई अत्यधिक ज़रूरी है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि देश इन दिनों कई महामारियों और बीमारियों से जूझ रहा है। बीमारियों में जितनी ज़रूरत इलाज की होती है, उतनी ही ज़रूरत साफ़-स़फाई की भी होती है, जिसमें स़फाईकर्मियों की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन देश भर में स़फाई व्यवस्था लचर होने से लोगों को तो अनेक दिक़्क़तों का सामना करना पड़ ही रहा है, नित नयी बीमारियाँ भी बढ़ रही हैं।
मौज़ूद स़फाई अव्यवस्था और शहरों में दिन-दिन बढ़ती गन्दगी के कई कारण हैं। लेकिन सबसे बड़ी दिक़्क़्त देश में स़फाईकर्मियों की कमी है। ‘तहलका’ ने इस बारे में दिल्ली समेत कई राज्यों में इसे लेकर पड़ताल की, जिसमें मुख्य वजह यह सामने आयी कि सरकारी स़फाईकर्मचारियों की नियुक्तियाँ न होने के कारण स़फाई के काम से जुड़े लोगों को मजबूरन ठेकेदारी या निजी संस्थाओं के तहत काम करना पड़ता है, जहाँ उन्हें पर्याप्त वेतन भी नहीं मिलता। दिल्ली में ठेकेदारी के तहत काम करने वाले कई स़फाईकर्मियों ने बताया कि उनको जो वेतन बताया जाता है, उसमें से भी 30 फ़ीसदी काटकर ठेकेदार उन्हें देता है। उनकी मजबूरी यह है कि अगर वे विरोध करें, तो उन्हें काम से निकाल दिया जाता है। इसके अलावा जो सरकारी स़फाईकर्मी हैं, वे भी कई बार अफ़सरों से साँठगाँठ करके कम पैसे पर स़फाईकर्मी रखकर उनसे काम करा लेते हैं। इतना ही नहीं, दिल्ली में नगर निगम से लेकर नई दिल्ली नगर पालिका में जितने स़फाईकर्मियों की आवश्यकता है, उतने स़फाईकर्मी कभी होते ही नहीं हैं। ऐसे में बेहतर स़फाई व्यवस्था की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
एक स़फाई कर्मचारी उदय का कहना है कि दिल्ली में अक्सर स़फाई व्यवस्था चौपट रहने की वजह सियासत भी है। दिल्ली नगर निगम से लेकर केंद्र सरकार के अस्पताल, दिल्ली सरकार के स्कूल, अस्पताल और सडक़ों की साफ़-स़फाई का अधिक-से-अधिक काम ठेकेदारों के हाथ में है। ऐसे में ठेकेदार कम-से-कम लोगों से, कम-से-कम पैसे में अधिक-से-अधिक काम कराने के चक्कर में पड़े रहते हैं और स़फाई की ओर ध्यान तक नहीं देते हैं। इसकी वजह यह है कि इस महत्त्वपूर्ण काम में ठेकेदारों, आला अफ़सरों से लेकर सत्ता में बैठे कुछ लोग तक जमकर मलाई काट रहे हैं। यह एक तरह से बजट से कम में काम कराने से लेकर स़फाईकर्मियों का हिस्सा खाने तक का खेल है। हर कोई शिकायत करने से डरता है; क्योंकि उसे काम से हटाना इन लोगों के बाएँ हाथ का काम है। दिक़्क़्त यह है कि इस महत्त्वपूर्ण काम की ठीक से जाँच नहीं होती और अगर कभी कोई जाँच हो भी जाए, तो या तो उसे वहीं दबा दिया जाता है या फिर किसी भ्रष्टाचार को लेकर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती है।
आज के आधुनिक युग में जब स़फाई की कई बेहतरीन मशीने आ चुकी हैं, बावजूद इसके देश की राजधानी दिल्ली तक में सीवर और गटर की स़फाई के लिए स़फाई कर्मचारियों को उनमें उतारा जाता है। इस काम से हर साल कई स़फाईकर्मियों की दम घुटने से मौत तक होती है। लेकिन इसके बावजूद सरकारें, निगम व स़फाई के काम से जुड़े अन्य संस्थान इस ओर ध्यान नहीं देते। पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली सरकार ने गटर साफ़ करने वाली कुछ मशीने मँगायी थीं; लेकिन वो ज़रूरत के हिसाब से अभी अपर्याप्त हैं। दिल्ली नगर निगम के पास भी मशीनें हैं। लेकिन अगर वह और आधुनिक तथा अधिक मशीनें ख़रीदे, तो साधनों गटर की स़फाई स़फाईकर्मियों को उनमें घुसकर न करनी पड़े और किसी भी स़फाईकर्मी की स़फाई के दौरान दम घुटने से मौत न हो। दु:खद यह है कि किसी स़फाईकर्मी की गटर स़फाई के दौरान मौत होती है, तो उस पर जमकर सियासत होती है, जिसके चलते कई बार तो मृतक के परिजनों को उचित न्याय और मुआवज़ा नहीं मिल पाता। अगर स़फाईकर्मी ठेकेदार के अंतर्गत काम करने वाला हो, तब तो और भी नहीं।
दूसरा, सेवा के दौरान मृत्यु होने पर दिल्ली सरकार अपने कर्मचारियों को एक करोड़ का मुआवज़ा देती है। लेकिन दिल्ली नगर निगम में भाजपा का शासन है, जिसके चलते अगर दिल्ली नगर निगम के किसी कर्मचारी की सेवा के दौरान मृत्यु होती है, तो उसके परिजनों को दिल्ली सरकार की तरफ़ से यह मुआवज़ा मिल नहीं पाता और निगम में इतना मुआवज़ा मिलता नहीं। इसके अलावा दिल्ली में अधिकतर अस्पतालों में स़फाई का काम निजी कम्पनियों को दिया गया है। ऐसे में वही समस्या- कम वेतन वाले, कम कर्मचारियों के सिर पर पूरी व्यवस्था होती है, जिससे किसी भी अस्पताल से पूरी तरह गन्दगी साफ़ नहीं हो पाती। सरकारें ख़ुद स़फाई पर ज़ोर देती हैं और इसके लिए विज्ञापन भी करती हैं कि स़फाई व्यवस्था ठीक होने से बीमारियों को क़ाबू किया जा सकता है। कोरोना, डेंगू और मलेरिया सहित मौसमी बीमारियों के प्रकोप से बचने के लिए सारे टंटे आजमाये जाते हैं। लेकिन स़फाई में कोताही बरती जाती है; जिस पर सरकारों को ध्यान देना चाहिए। क्योंकि दिल्ली वैसे भी कई सत्ताओं के बीच लगातार होती सियासत के बीच पिसती है। इन सत्ताओं में केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार, नगर निगम, नई दिल्ली नगर पालिका, डीडीए, उप राज्यपाल आदि हैं।
अगर हम अस्पतालों की बात करें, तो वहाँ ठीक से स़फाई न होने का कारण इन सत्ताओं के तंत्रों और व्यवस्थाओं में फैली गन्दगी है। निजी संस्थाएँ और ठेकेदारी प्रथा इसमें परेशानी का एक और कारण है। अस्पतालों में काम करने वाले कुछ स़फाई कर्मचारियों ने बताया कि उन्हें 8 घंटे के काम के लिए नियुक्त किया गया था। लेकिन ठेकेदार उनसे 12 घंटे काम करवाते हैं। वह भी कम वेतन पर, ऐसे में कम लोग अधिक काम लगातार 12 घंटे करें, तो कैसे करें? एक स़फाईकर्मी ने बताया कि दो कर्मचारियों से कम-से-कम तीन कर्मचारियों का काम करवाया जा रहा है।
यही हाल अन्य संस्थानों का है। स़फाई कर्मचारी यूनियन के नेता रघुवीर सोढ़ा का कहना है कि स़फाई को लेकर जो सियासी माहौल चल रहा है, उसमें व्यवस्था की बात करनी ही बेमानी है। जब व्यवस्था ही लचर है, तो स़फाई व्यवस्था तो लचर होगी ही। इसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। ठेकेदार, संस्थाएँ कब कर्मचारियों को निकाल दें; वेतन दें, न दें; कोई गांरटी नहीं है। आये दिन ठेकेदार कर्मचारियों को निकाल रहे हैं। वेतन भी काटकर दे रहे हैं। किसी कर्मचारी की कहीं सुनवाई भी नहीं हो रही। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अब सुरक्षा से लेकर स़फाई तक का काम बड़े-बड़े पूँजीपतियों के हाथों में है। ये पूँजीपति परदे के पीछे बड़े खेल कर रहे हैं। क्योंकि मौज़ूद दौर में सुरक्षा और स़फाई अरबों-ख़रबों के कारोबार का क्षेत्र बन गये हैं। भले ही सुरक्षा और स़फाई का काम किसी साधारण से व्यक्ति नाम क्यों न हो। लेकिन असली संचालक पूँजीपतियों, सियासतदानों के हाथ में है, जिसे आला अफ़सरों के द्वारा कराया जा रहा है। इन लोगों का मक़सद पैसा कमाना है, न कि व्यवस्था को ठीक करना है।
तभी तो कहते हैं- ‘जिसका काम उसी साजे, और करे, तो डंडा बाजे।’ स़फाई के काम में भी ऐसा ही रहा है। स़फाई के काम में जो पूँजीपति शामिल हैं, वे अपनी कोठियों, बंगलों, गाडिय़ों, कपड़ों की स़फाई पर ध्यान देते हैं। वहाँ उन्हें सब कुछ बेहतरीन चाहिए। लेकिन गलियों, सडक़ों, सीवरों, रास्तों, पार्कों की स़फाई के बारे में न तो जानते हैं और न जानना चाहते हैं। उन्हें पैसा कमाने से मतलब है। इसी वजह से ठेकेदार मौज़ करते हैं। और जब कोई अधिकारी या मंत्री मुआयना करने जाता है, तो वहाँ थोड़ी स़फाई करवाकर चूना बिखरवा दिया जाता है। सरकारें, तंत्र और अफ़सर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए इन पूँजीपतियों के साथ हैं ही।
पूर्व श्रम अधिकारी घनश्याम का कहना है कि एक दशक पहले स़फाई के काम को हल्का काम माना जाता था। ठेकेदारी का जब चलन आया, तब भी स़फाई का काम स़फाई कर्मचारियों को मिलता था। लेकिन जैसे-जैसे पैसों वालों की इस काम पर नज़र पड़ी और उन्होंने इससे पैसा कमाने का मन बनाया, तबसे धीरे-धीरे इस पर क़ब्ज़ा कर लिया और ठेकेदारों के ज़रिये काम करवाना शुरू कर दिया। स़फाईकर्मियों का कुछ काम आधुनिक और इलेक्ट्रॉनिक मशीनों ने छीन लिया। इससे ग़रीब स़फाईकर्मचारियों के सामने कई समस्याएँ खड़ी हो गयी हैं। अगर देश में स़फाई व्यवस्था को ठीक करना है, तो इसे कार्पोरेट के हाथों से वापस लेकर सीधे स़फाईकर्मियों की भर्ती करके ईमानदार अफ़सरों के हाथ में इसकी बाग़डोर देनी होगी।