बदलाव प्रकृति का नियम है, ऐसा हमने कई बार पढ़ा है। जब पढ़ा है तो ठीक ही होगा। जो हमने पढ़ा वह उन्होंने भी पढ़ा होगा। शायद यही सोच कर वे लग गए नाम बदलने। गांव,शहर, मुहल्ला, सड़क, गलियां सभी के नाम बदलने का काम चला। शुक्र है हमारा तुम्हारा नाम नहीं बदला। नहीं तो हमारी बिरादरी का नाम भी शेर, चीता या हाथी हो सकता था। पर हमारा नाम बदलना वोट तो नहीं खींच सकता, इसलिए हम बच गए। इस पंक्ति को कि बदलाव प्रकृति का नियम है आम लोगों ने भी पढ़ लिया और जिन्होंने नाम बदले, उन्होंने उन्ही को बदल दिया। है न ज़्यादती, नाम बदलने के पीछे तो एक भावना थी। देश भक्ति और देश प्रेम था, पर उन्हें बदलने के पीछे क्या है? बस इतना कि उन्होंने बेरोजग़ारी को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने किसानों की आत्महत्याएं रोकने की कोशिश नहीं की या फिर मंहगाई इतनी बढ़ा दी कि आम आदमी का जीना दूभर हो गया। बस इतनी सी बात के लिए ‘उन्हें’ बदल दिया। अब 10-15 साल के छोटे से समय में वे बेचारे और क्या करते, इतना बड़ा देश है और इतने बड़े-बड़े प्रदेश हैं, उनमें हर गली-कूचे के नामों को जानना फिर उनके लिए नए नाम खोजना कोई आसान काम तो है नहीं। फिर नए नाम भी वे चाहिए जो हमारी पौराणिक कथाओं, ग्रंथों या उपनिषदों में हों। अब इस काम में इतना समय लग गया। भूखमरी, बेरोजग़ारी, शिक्षा और स्वास्थ्य पर सोचने का समय ही नहीं मिला। वैसे ये सब कोई प्राथमिकता थोड़ी है। भूखमरी पर तो दुष्यंत कुमार ने बहुत पहले ही कह दिया था-
”भूख है तो सब्र कर रोटी नही ंतो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दा’’
पर लोग नहीं समझे। अरे भाई भुखमरी पर दुष्यंत से लेकर आज तलक बहस ही तो हो रही है। यह क्या कम है। कुछ तो सब्र करो यार, इंतज़ार करो दिल्ली में ज़रूर कुछ होगा। बाकी बात रही स्वास्थ्य की और शिक्षा की, इसके लिए पांच तारा अस्पताल खोल दिए गए हैं। उनमें सारी सुविधा है। इन लोगों ने तो सत्ता संभालते ही कह दिया था-भाई सुविधा चाहिए तो पैसे दो, मुफ्त में कुछ नहीं मिलेगा। शिक्षा को कितनी अहमियत दी जाती है इसकी मिसाल तो यह है कि शिक्षा की दुकानें खोल दी गई हैं, पैसे दो डिग्री लो। डोनेशन दो दाखिला लो। शिक्षा की डिग्री ली या मंडी से आलू-प्याज बराबर ही है। कोई परेशानी नहीं बस पैसा होना चाहिए। स्कूलों में पढ़ाने वाले भी ऐसे-ऐसे भर्ती कर दिए गए हैं, जिन्हें यह नहीं मालूम कि पढ़ाई क्या चीज़ है। पर उनके लिए यह कोई गंभीर विषय नहीं हंै। ऐसे-ऐसे लोग शिक्षा संस्थान खोल कर बैठे हैं जो शायद कभी खुद भी स्कूल नहीं गए। वैसे भगवान की कृपा से अपने देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालय दुनियां के पहले 100-200 विश्वविद्यालयों में आते ही नहीं, पर गलती से अगर दो-चार आ भी जाएं तो उनसे सहन नहीं होता। आखिर सहन क्यों हो? इनकी देश भक्ति जागती है और उन विश्वविद्यालयों के माहौल को बिगाडऩे में जुट जाते हंै। लेकिन कुछ कलम घसीट इन पर नुकता चीनी करते हैं। जो ये कतई सहन नहीं करते। करना भी नहीं चाहिए। विरोध क्यों हो? इनके लोकतंत्र में विरोध का मतलब ही देशद्रोह है। ऐसे विद्रोहियों को पहले प्यार से ‘धमका कर’ समझाया जाता है यदि नहीं माने तो मार दो गोली। बस इतना ही तो करना हैं। ये बुद्धिजीवी क्यों रहें। हर आदमी जो अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करे उसकी ज़रूरत क्या है। ये ऐसा देश हित में करते हैं।
पर जनता इनकी भावनाओं को नहीं समझती और इन्हें बदल देती है। जनता में सब्र नहीं। इन्होंने कितनी बार कहा था कि अच्छे दिन आने वाले हैं पर बदल दिया। मेरे होठों पर न जाने क्यों बरबस ही फैज़ अहमद फैज़़ साहिब की ये पक्तियां आ गई-
”…वह वक्त करीब आ पहुंचा है
जब तख्त गिराएं जाएंगे,
जब ताज उछाले जाएंगे’’।