राजनैतिक दल और लोग लोकतंत्र में अपनी-अपनी सेनाएं क्यों बनाते है? पिछले कुछ सालों में दक्षिणपंथी राजनैतिक दलों ने अपनी-अपनी सेनाएं खड़ी करनी शुरू कर दी हैं और उनसे इस पर सवाल करने की हिम्मत किसी में नहीं है। जब पुलिस और अर्धसैनिक बल मौजूद हैं तो ‘निजी सेना’ क्यों?
‘निजी सेनाÓ रखने की इज़ाज़त कौन देता है? उन पर आने वाले खर्च कौन वहन करता है? उन पर नियंत्रण किसका होता है? उन्हें दुश्मन पर निशाना साधने के लिए कौन प्रशिक्षण देता है? इनमें कौन लोग लिए जाते हैं और क्यों? राजनीतिक माफिया और इनमें क्या अंतर है? क्या ये सेनाएं उसी माफिया का हिस्सा हैं जिसने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान मेें उत्पात मचा रखा है? क्या अल्पसंख्यक समुदायों के पलायन के लिए ये जिम्मेवार नहीं हैं?
फिरौती, अपहरण और दंगों के मामलों में इन सेनाओं की भूमिका की जांच होनी चाहिए। पर यह सवाल कौन उठाएगा जब कि ये सारे काम सत्ताधारी दल के संरक्षण में होते हैं।
कुछ दिन पहले जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने चुनाव क्षेत्र गोरखपुर का भ्रमण कर रहे थे तो मैंने यह जानने की कोशिश की कि उनकी ‘निजी सेनाÓ हिंदू युवा वाहिनी (एचवाईवी) की इसमें क्या भूमिका है? मुझे बताया गया कि पूरा इलाका ही उस सेना के घेरे में है। इससे स्थानीय लोगों में भारी भय का वातावरण बन गया। वे लोग इस सेना के हर हुक्म और निर्देश को मानने पर बाध्य हैं।
यह कहने कि ज़रूरत नहीं कि इसका सबसे ज्य़ादा प्रभाव इलाके के दलितों, ईसाईयों और मुसलमानों पर हुआ। यह कहना बचपना होगा कि उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक हिंदुत्व के एजेंडे के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। उन्होंने ने बताया कि अल्पसंख्यकों ने चुप रह कर अपने खिलाफ बोले जा रहे नारों को सहने में ही बेहतरी समझी है। कई लोगों ने कासगंज के दंगों और उनमें हिंदू ब्रिगेड की भूमिका को भी याद किया। बहुत बड़ी गिनती में उत्तरप्रदेश के मुसलमानों ने खुद को दूसरी या तीसरी श्रेणी का नागरिक मान लिया है। इस पृष्ठभूमि में राजनीतिक टिक्काकारों की यह टिप्पणी हास्यस्पद लगती है कि आदित्यनाथ के शासन में मुस्लिम ठीक हैं कहीं कोई विद्रोह की आवाज़ तक नहीं उठ रही। क्या अभागे और असहाय नागरिकों के पास कोई विकल्प है? अगर वे योगी और उनके आदमियों को दबाने की कोशिश करते हैं तो क्या उनके बीवी बच्चों को गोलियों से नहीं भून दिया जाएगा? ‘निजी सेनाÓ की दहशत इतनी है कि कोई भी सूर्यास्त के बाद घर के बाहर निकलने का साहस नहीं करता। उत्तरप्रदेश में लगातार मुठभेड़ें चल रही है। मार्च 2017 से जनवरी 2018 के बीच 1,142 मुठभेड़ें हुई और 38 कथित अपराधी मारे गए। यहां जो प्रश्न पूछा जा रहा है कि इनमें से कितनी मुठभेड़ें व्यक्तिगत और राजनैतिक विरोध के कारण अपना हिसाब चुकता करने के लिए कराई गई थी?
ऐसे बहुत से मामले सामने आ रहे हैं जिनमें ‘निजी सेनाÓ ने उन लोगों पर हमले किए जो सरकार की आलोचना कर रहे थे या केवल किसी विषय पर प्रश्न उठा रहे थे। इनको पुलिस का भी डर नहीं। वे लोग पुलिस की मौजूदगी में भी आम लोगों पर हमला बोल देते हैं। वैसे भी माफिया गिरोहों को हमला करने के लिए केवल एक इशारा चाहिए।
जिस तरह से ये ‘सेनाएंÓ या ‘वाहिनियांÓ देश के विभिन्न हिस्सों में फैल रही हैं वह बहुत ही खतरनाक है। हम इस बात की अनदेखी कैसे कर सकते हैं कि इन सेनाओं को हमले और मुकाबले का पूरा प्रशिक्षण दिया जाता है जिसके बाद ये अपने ही देश के लोगों पर हमले करते हैं। यहां तक कि जब2016 में समाचारपत्रों में खबरें और चित्र छपे कि किस तरह से नोयडा, वाराणसी और अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं तब भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। इनमें भी जिन पुतलों को ‘दुश्मनÓ दिखा कर उन पर हमले करवाए जा रहे थे उन पुतलों के सिरों पर भी मुस्लिम टोपियां थीं।
यह सब कोई एक रात में नहीं हुआ। यह बिना रु कावट खुले आम चलता जा रहा है। मैं हैरान हूं कि जब राजनैतिक माफिया हमारे सामने लोकतांत्रिक मूल्यों को तहस-नहस कर रहा है तो भी हम डरे-सहमे खामोश क्यों बैठे हैं? हम अपनी निगाहें दूसरी ओर क्यों घुमा देते हैं?
जानेमाने लेखक खुशवंत सिंह की मृत्यु से कुछ हफ्ते पहले जब मैं उनसे मिली थी तो मैंने पूछा था आपको जीवन से कोई शिकायत या कोई पछतावा है क्या? उन्होंने कहा, ‘मैं समझता हूं कि मुझे इन संघियों के खिलाफ ज्य़ादा आक्रामक होना चाहिए था क्योंकि ये देश का सत्यानाश कर देंगे। मैं शुरू से इनका विरोधी रहा हूं पर मुझे इन्हें अपनी लेखनी में ज्य़ादा नंगा करना चाहिए था। खुशवंत सिंह दक्षिणपंथियों की ‘निजी सेनाओंÓ के भी खिलाफ थे। उन्होंने कहा था, ‘मुझे इस बात का भारी दुख है कि सांप्रदायिक दलों ने अपनी ‘निजी सेनाएंÓ बना ली हैं। कोई सरकार जो राजनैतिक दलों की’निजी सेनाओंÓ को छूट देती है वह देश को फासीवादी की ओर ले जाती है। यहां फासीवाद आ गया है।