नारी संघर्ष की दास्तान है, दुनिया की तहरीक

यहां तो जब किसी जन्म की सूचना आती है तो पहली चीज़ जो सभी जानना चाहते हैं वह यह है कि यह लड़की है या लड़का। इसमें तों कोई अपवाद ही नहीं है कि किस लिंग मे हम जन्मे हैं – उसके अनुसार ही हमारी शरीर संरचना होती है- जो ताजिन्दगी साथ होती है। हालांकि हमारे लिंग को यानी – लड़का है या लड़की को इतना प्रचारित कर दिया जाता है साथ ही उस पर तरह तरह की बंदिशें लगा दी जाती है। क्या प्रकृति पुरूष और स्त्री बतौर अलग-अलग जैविक भूमिकाएं तय करती है, क्या यह लिंग आधारित प्रणाली बनाती है जिसे खास तौर पर मानव खासतौर पर तंग नज़रिए वाले समाजों और देशों मसलन हमारे अपना लेता है। दो अलग-अलग लिंग बना कर क्या प्रकृति दो समान लोगों को एक पूर्णता नहीं देती जिससे पूरे चक्र में जीवन बने?

लैगिंक भेदभाव और रूढि़वादी नज़रिया महिलाओं के लिए पूरी दुनिया में कमोबेश है। पश्चिम के बेहद विकसित देशों में भी भारत की तुलना में खासा लैंगिक भेदभाव है। महिलाओं की खराब स्थिति से खासी सामाजिक समस्या है। हमारे देश में कई तरह की असमानताएं हैं, खासतौर पर जाति, धर्म, और सामाजिक आर्थिक क्षेत्र में। हमारे देश में कमोबेश आधी जनसंख्या महिलाओं की है। एक महिला होना यानी पुरूषों की तुलना में नीचा होना। बच्चों के मामले में भी यदि बच्ची लड़की है तो उसे बच्चों की तुलना में बढ़ावा नहीं मिलता।

अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने 1990 में ‘न्यूयार्क रिव्यू ऑफ बुक्सÓ में एक लेख देश की ‘गायब होती महिलाओं पर लिखा था। इसमें बताया गया है कि किस तरह एक करोड़ महिलाएं देश की जनसंख्या से कम हो जाती है वह भी भ्रूण हत्याओं से। इसके अलावा लड़कियों और महिलाओं के स्वास्थ्य में लापरवाही बरतने और पोषक तत्व न मिलने से होते हैं। उन्होंने लिखा कि यूरोप और उत्तरी अमेरिका में पुरूषों की तुलना में महिलाएं जहां 1.05 या 1.06 हैं वहीं दक्षिण एशिया (भारत समेत) में पश्चिम एशिया और चीन में यह घटकर 0.94 रह गया है। वर्ल्ड हेल्प आर्गेनाइजेशन के अनुसार हर लड़की की तुलना में जैविक तौर पर प्राकृतिक लिंग अनुपात 1.05 लड़कों की है। यह बताता है कि विकसित पश्चिमी देशों और रूढि़वादी एशिया में लड़कियों की स्थिति कैसी है।

जनसंख्या के अनुसार 2011 में भारत में जनसंख्या का अनुपात महिलाओं का प्रति एक हज़ार पुरूषों पर 940 स्त्रियों का था। यह पहले की तुलना में कुछ बेहतर है क्योंकि 2001 में हुए सर्वे में प्रति 1000 पुरूषों पर 933 स्त्रियां थी।

नवीनतम इकॉनॉमिक सर्वे रिपोर्ट जनवरी 2012 में बताया गया है कि भारतीय मां-बाप में पुरूष बच्चे की प्रबल आकांक्षा होती है। इसलिए वे जब तक पुरूष बच्चा हासिल न हो प्रयास जारी रखते हैं। सर्वे रिपोर्ट के अनुसार भारत में फिलहाल दो करोड़ दस लाख लड़कियां ऐसी हैं जो ‘अनचाहीÓ हैं। ये 0.25 की उम्र के बीच की हैं। ऐसे परिवार जहां पुरूष बच्चे का जन्म हो गया वहां बच्चों का जन्म फिर रूक जाता है। इससे लगता है कि मां-बाप इस तरह निरोधक कानून खुद पर अमल करते हैं। अपने विविधता पूर्ण देश में हम बहुधा अलग-अलग सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि के परिवारों में तीन या ज़्यादा बच्चे देखते हैं। आमतौर पर जब पहले ही दो या तीन बच्चियां हो जाती हैं तो हम पाते हैं कि सबसे छोटी संतान यदि पुरूष बच्चा हुई तो और बच्चे नहीं होते। दूसरी ओर यह भी देखा गया है कि कुछ परिवार ऐसे भी हैं जहां एक या दो बच्चे हैं और दोनों पुरूष बच्चे हैं तो परिवार में बच्चों की संख्या इसलिए डर से नहीं बढ़ाई जाती जिससे तीसरा बच्चा बेटी न हो। नतीजा साफ दिखता है कि अनचाही बच्चियों की कोई उचित देख-रेख नहीं होती। वे अस्वस्थ रहती हैं और उन्हें हमेशा उनके मां-बाप यही बताते-सिखाते रहते हैं कि कैसे उन्हें अपने बच्चे संभालने हैं। जब अनचाही बच्चियां बड़े परिवारों में पलती-बढ़ती हैं तो उनके मां-बाप उन पर खर्च भी काफी कम कर देते हैं। वे ज़्यादा चिंता पुरूष बच्चों की करते हैं। उन्हें पोषक तत्वों को ज़्यादा दिया जाता है बनिस्बत लड़कियां के । उनकी सेहत का भी अच्छा ध्यान दिया जाता है।

भारत में महिलाओं की देखरेख की जिम्मेदारी परिवारों के पुरूषों पर ही होती है । वे पिता,भाई, पति और बच्चे भी हो सकते हैं। भले ही हम खुद के आधुनिक होने का दावा करें। पर जीवन के अहम फैसले प्राय: लड़कियों के परिवार ही लड़कियों के लिए लेते हैं। इसकी कतई चिंता नहीं की जाती कि लड़की या पत्नी खुद क्या चाहती है। मामला चाहे शिक्षा, व्यावसायिक पसंद या फिर विवाह का हो, विभिन्न संस्कृतियों वाले परिवारों में भी समाज की ओर से लगाई गई पाबंदियों को ही माना जाता हे। खासतौर पर महिलाओं की योग्यता और आज़ादी पर। जबकि पुरूषों के बारे में फैसला लेते हुए परिवार इस बात पर ध्यान देते हैं कि पुरूष बच्चे की क्या मांगे हैं और क्या इच्छाएं हैं। परंपरा से चला आ रहा है कि परिवार में पिता का फैसला ही आखिरी फैसला होता है, मां का नहीं।

दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा है कि महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भता कितनी है। इंडिया डेवलमेंट रिपोर्ट जिसे वर्ल्ड बैंक ने 2017 में जारी किया उसके अनुसार हमारे देश में काम करने वाली स्त्रियों की तादाद बहुत ही कम है। हम 131 देशों में 120 वें स्थान पर है। पांरपरिक तौर पर महिलाओं के लिए घर का कामकाज करना और बच्चों को संभालना ही काम रहा है। ज़्यादातर महिलाएं बाहर काम करने में इसलिए रूचि नहीं लेती कि यह तो पुरूषों का कार्य है कि वह घर के बाहर जाए और कमा कर लाए। यहां तक कि नौकरी की पात्रता रखने वाली महिलाएं भी विवाह के बाद नौकरियां छोड़ देती हैं और मातृत्व पर ही ध्यान देती हैं।

घरेलू कामकाज और बच्चों की देखरेख भी महिलाओं का ही जिम्मेदारी समझी जाती हे। पति और पिता शायद ही महिलाओं के इन कामों में हाथ बंटाते हैं भले ही कम वेतन मिले। वे भी आखिरकार किसी तरह परिवार और काम की जगह के समय में तालमेल बिठाती हैं। इसमें काफी परिश्रम, ऊर्जा और थकावट होती है। यह भी एक तथ्य है कि ज़्यादातर महिलाएं जो कमा कर लाती हैं वह अपने पति के हाथों में या परिवार को सौंप देती हैं। जो मिलकर तमाम वित्तीय फैसले भी लेते हैं। यानी देश में ज़्यादातर कामकाजी महिलाएं भी पुरूषों पर ही आश्रित हैं। भले ही वे कमा कर ला रही है। यह एक तरह से महिला को दास बनाए रखने सा ही है।

21वीं सदी में भी लड़कियां और महिलाओं का पहनावा उनके परिवार ही तय करते हैं। कम उम्र से ही लड़कियों को वैसे कपड़े पहनने से रोका जाता है जिन पर समाज को आपत्ति हो। न मानने पर लड़कियां – महिलाओं पर असंवेदनशीलता के साथ अत्याचार भी किए जाते हैं। हमेशा इस बात पर बहस होती है कि पहनावे के चलते ही महिलाओं, लड़कियों के साथ यौन हिंसा हुई। महिलाएं जो कपड़े चुनती हैं उन पर हमेशा बहस होती है। इसके पीछे यही परंपरावादी सोच है कि महिलाओं को पुरूषों की ही सुननी चाहिए क्योंकि वे पुरूषों की मौन भावनाओं को जगाती है।

ज़्यादातर महिलाओं को हमारे देश में विभिन्न परिवारों और समुदायों में बच्चे पैदा करने में नियंत्रण रखने की आज़ादी नहीं है। पूरी दुनिया में खासतौर पर हमारे देश और पितृसत्ता समाज वाले समुदायों में लगभग यह माना जाता है कि औरतें बच्चे पैदा करने की मशीन हैं। उन्हें परिवार में पुरूष उत्तराधिकारी पैदा करना चाहिए। ऐसी महिलाएं और लड़कियां गिनती की होंगी जो अविवाहित रहें या विवाहित हों। ऐसे जोड़े भी कम ही हैं जो बच्चा न पैदा करने का फैसला लेते हों। कई बेहद शिक्षित परिवारों में भी उत्तराधिकारी की मांग को लेकर कलह होती रहती है। खासतौर पर ऐसी महिलाओं के साथ यह आम होता है जहां लड़कियों का जल्दी विवाह नहीं होता और परिवार शादीशुदा महिलाओं पर बच्चे के लिए दबाव परिवार बनाते हैं जिससे समाज में उनकी किरकिरी न हो।

आज ज़रूरत है कि कि काफी कम उम्र से ही हम छोटे पुरूष बच्चों और लड़कियों को उनकी पसंद के साथ बढऩे दें। उनमें कोई भेदभाव न किया जाए। इससे लैंगिक भेदभाव और खुद के महत्वपूर्ण मानने का दिमागी फितूर भी कम होगा। पीढिय़ों से चली आ रही रूढि़वादिता पर भी सवाल उठाए जाने चाहिए। और उनका विरोध करना चाहिए। तभी लड़कियों और महिलाओं के प्रति सोच बदलेगी। पुरूष भी खुद को बदलेंगे। लड़कियों को इच्छा से अपनी पसंद े का अधिकार देना चाहिए। उन्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि दूसरे क्या कहेंगे। दहेज देने के लिए पैसा बचाने की जगह उसका उपयोग बच्चियों की पढ़ाई -लिखाई , खानपान, कपड़ों और उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने में शिक्षा देने में खर्च करना चाहिए। यह बड़ी चुनौती है कि पारंपरिक नज़रिए को छोड़ कर प्रगतिशील तरीके से सोचना और करना। परिवारों में पुरूष बच्चों के प्रति आग्रह भी खत्म होना चाहिए।

 

खराब लड़की

– जो साड़ी भी नहीं पहन पाती।

– जो सिगरेट पीना बुरा नहीं मानती। खुद भी पीती है।

– बियर भी पीती है।

– कमर दिखाऊ कपड़े पहनती है।

– बड़े-बूढ़ों का लिहाज नहीं करती।

– ज़ोर-ज़ोर से बोलती हैं

– खूब ठठा कर हंसती है।

– कोई फरमाइश जो नापसंद है उसे साहसपूर्वक इंकार करती है।

– लड़की खुद को नियमित व्यायाम, पैदल चल कर और दौड़ते हुए चुस्त रखती है।

 

‘लव जेहादÓ से नहीं

लड़ सकते धर्मांध

यदि मुस्लिम लड़कियों को अपनी पसंद के गैर मुस्लिम लड़के से शादी नहीं करने दी जाती तो यह समुदाय नैतिक तौर पर आरएसएस की ओर से ‘लव जेहादÓ के नाम पर पाखंड के खिलाफ नहीं लड़ सकता।

यह कहना है शेहला राशिद का । हम किसी भी तरह की धर्मांधता और ईशनिदां के खिलाफ मज़बूती से शेहला के साथ हैं। हमारी कामना है कि शेहला इस जोखिम भरे रास्ते पर संघर्ष करें और अपने राजनीतिक मकसदों पर डटी रहें।

हम छात्र हैं जेएनयू के

 

दक्षिण-पूर्व एशिया की यात्रा पर चार महिला मोटर साइकिल सवार

हैदराबाद देश के महत्वपूर्ण शहरों में एक है। साथ ही यहां की बहुल आबादी में संकीर्णता का ज़्यादा फैलाव नहीं है। शिक्षा, व्यापार और विज्ञान में इस शहर के निवासियों ने अपना नाम रोशन किया है। अब यहां की चार लड़कियों ने ‘रोटू मेकांगÓ कार्यक्रम के तहत 16,992 किलोमीटर की दूरी मोटर साइकिलों पर तय करने का मिशन शुरु किया है। ये मोटर साइकिल सवार भारत,म्यांमार, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया, वियतनाम और बांग्लादेश की यात्राएं करते हुए अपना मिशन पूरा करेंगी। इनकी यह यात्रा अभी-अभी तैयार भारत-म्यांमार-थाईलैंड के ‘ट्राइलेटरल हाईवेÓ से दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की होगी।

इन महिलाओं में इन की प्रमुख जय भारती, शिल्पा बालकृष्णन, एएसडी शांति और पिया बहादुर है। ‘ रोड टू मेकांगÓ अभियान की शुरूआत इन्होंने 11 फरवरी की दोपहर से शहर की बाहरी इलाके गोलापुडी से की। राज्य व केंद्र के पर्यटन विभाग के अधिकारियों ने वन टाइम क्षेत्र के कालेश्वर राव मार्केट, पंजा सेंटर, चिट्टी नगर, और प्रकाशन बैरेज पर इन्हें शुभकामनाओं के साथ विदा किया।

अपने इस मिशन के जरिए ये महिलाएं ‘अमूल्य भारतÓ की संस्कृतियों और परंपराओं का भी परिचय देंगी और भारतीय उप महाद्वीव के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत की जानकारी का आदान-प्रदान करेंगी। ये पांच देशों में यूनेस्को की विरासत के 19 स्थलों का भ्रमण भी करेंगी। इनकी इस यात्रा से भारत और एशिया पूर्व एशिया के देशों की महिलाओं में सड़क मार्ग से यात्रा करने में दिलचस्पी बढ़ेगी।