फिल्म एजेंट विनोद
निर्देशक श्रीराम राघवन
कलाकार सैफ अली खान, करीना कपूर, आदिल हुसैन, जाकिर हुसैन, प्रेम चोपड़ा
एजेंट विनोद कई जगह शिखर पर पहुंचती है. तब, जब एक होटल में चल रही गोलियों के साथ देर तक प्यारा मीठा गाना ‘राब्ता’ चलता है. तब, जब फिल्म आपको बिना बताए, बिना पूछे एक ही सीन में मोरक्को में भी रहती है और श्रीलंका में भी जाती है और आपको बेवकूफ समझने वाली हमारी आम फिल्मों की तरह कोई स्पष्टीकरण नहीं देती. तब, जब विनोद अपने बचपन की उस मसूरी ट्रिप को याद करता है जिसमें वह आठ मिनट तक जिन्दगी और मौत के बीच झूलता रहा था और वे आठ मिनट ऐसे थे कि वह बार-बार जिन्दगी और मौत के बीच की उस जगह लौटना चाहता है. यही उसके पूरे किरदार की परिभाषा है. आपने उसकी ओर बन्दूक तान रखी होगी, तब भी वह आपसे सवाल पूछने की जुर्रत करता है. आप उसे हरा भले ही दें लेकिन डरा नहीं सकते. वह ईमानदार है लेकिन ईमानदारी का ढोल नहीं पीटता. वह सुपरहीरो नहीं है और यहीं वह बहुत सारे महानायकों से अलग है कि वह दुनिया बचाने के किसी मिशन के लिए अपनी जान जोखिम में नहीं डालता. उसे ऊंची इमारतों से कभी फूलों पर और कभी चट्टानों पर कूदना है और मौत की संभावनाओं से कुछ मिनट पहले बीयर पीनी है, मजाक करना है और इन सबसे अगर दुनिया भी बचती है तो और अच्छा है.
यह श्रीराम राघवन की शैली की ही फिल्म है और डायलॉग इसकी जान हैं. सब कुछ मालूम होने के हताश समय में वे एक निडर नायक में भरोसा पैदा कर सकते हैं, यह बहुत बड़ी बात है. यूं तो यह देश और दुनिया को बचाने की परंपरागत फिल्म है, जिसमें जासूसी कम है और एक्शन ज्यादा, लेकिन फिर भी यह कुछ इक्का दुक्का जगहों को छोड़कर राष्ट्रवादी होने से बचती है और मानवता का रक्षक होने का भ्रम रचने से भी. यह करीना कपूर के साथ दो-चार मिनट के लिए उस तरह से भावुक होती है, जैसे राजश्री की या करन जौहर की फिल्में हुआ करती हैं और यहीं फिसलती भी है. लेकिन एजेंट विनोद उसे गिरने से बचा लेते हैं. सैफ का अतीत चाहे जैसा भी रहा हो (और कुछ लोग उनकी ‘आशिक आवारा’ आदि फिल्मों की बात कर उन पर आज भी हंसना चाहते हैं) लेकिन उन्होंने बहुत खूब एक्टिंग की है.
आप एजेंट विनोद की कहानी को तर्क और दुनियादारी की कसौटी पर कसेंगे तो ढेरों गलतियां निकल आ सकती हैं लेकिन यह उस रोमांच की फिल्म है – किसी खतरनाक झूले के रोमांच की – जिसमें आप बहुत अच्छे से जानते हैं कि आप सकुशल उतर जाएंगे. हालांकि फिर भी फिल्म और रोचक, और मनोरंजक, और रहस्यमयी हो सकती थी. स्टाइल में यह अव्वल है लेकिन इसके पीछे.मजबूत कहानी होती तो आप ज्यादा दूर तक इसके साथ रहते. यह आपके सोचने और अनुमान लगाने के लिए कुछ नहीं रखती. लेकिन जब दिल्ली की सड़कों पर और हवा में एजेंट विनोद हम सबको बचाने के लिए अपनी जान को किसी मैले कपड़े की तरह उतारने पर आमादा होता है तो उस पर गर्व होता है. वैसा ही गर्व, जैसा अब सिर्फ कहानियों में ही बचा है या क्रिकेट मैचों में.
– गौरव सोलंकी