राजधानी भोपाल के सीहोर रोड पर बन रही एक गगनचुंबी इमारत के नीचे कुछ मजदूर परिवारों ने ईंटों की अस्थायी चारदीवारी बना ली है. इन्हें अंदाजा है कि वे कुछ महीनों तक यहीं रहेंगे. ठीक से हिंदी न बोल पाने वाले ये सभी लोग धार जिले की डही जनपद पंचायत के भिलाला आदिवासी हैं और अपने घर में भूखों मरने से बचने के लिए 500 किलोमीटर का सफर तय करके यहां तक पहुंचे हैं.
मार्च के बाद प्रदेश में खेतीबाड़ी के काम बंद हो जाते हैं. इसके बाद मजदूरों को काम की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है. कुछ सालों पहले तक इन दिनों में निमाड़, मालवा सहित बाकी आदिवासी अंचल के लाखों लोग पड़ोसी राज्य गुजरात और महाराष्ट्र के बड़े शहरों की ओर कूच कर जाते थे. किंतु महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गांरटी योजना आने के बाद उनका हर साल का यह क्रम टूट गया. उन्हें गांव में ही काम मिलने लगा. इसीलिए पिछले छह साल में प्रदेश से अप्रैल, मई और जून के महीनों में होने वाला पलायन रुक-सा गया था. धार जिले के डही पंचायत के ही सुगरलाल बताते हैं कि उनके लिए यह योजना मुसीबत के दिनों में घर चलाने का अच्छा जरिया बन गई थी. मगर इस साल एक अप्रैल के बाद से उनकी पंचायत में किसी को एक दिन का भी काम नसीब नहीं हुआ. इसलिए एक बार फिर आस-पास के गांव के गांव खाली हो गए हैं.
दरअसल मध्य प्रदेश में सतपुड़ा और विंध्याचल की पहाड़ियों के बीच बसे लाखों लोगों के लिए काम की उम्मीद जगाने वाली मनरेगा इस वित्तीय वर्ष में अकाल मौत के मुंह में चली गई है. हालत यह है कि जिन महीनों में कई सौ करोड़ रुपये खर्च होने चाहिए थे, उनमें यह आंकड़ा अभी तक पचास करोड़ रुपये तक भी नहीं पहुंचा. नतीजा यह कि मनरेगा से बेदखल लोग जिंदा रहने के लिए सालों पुरानी परंपरा यानी पलायन पर लौट आए हैं. आधे दशक के बाद प्रदेश के लाखों मजदूर काम की तलाश में अब फिर से इधर-उधर भटक रहे हैं.
मध्य प्रदेश पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग के आंकड़े अभी सार्वजनिक नहीं हुए हैं. लेकिन तहलका के पास मौजूद विभाग की ताजा रिपोर्ट के आंकड़े काफी चौंकाने वाले हैं. बीते साल अप्रैल से जून तक मनरेगा में 12 सौ करोड़ रुपये खर्च हुए थे. इस साल सरकार ने इस अवधि के लिए अनुमानित राशि 16 सौ करोड़ रुपये रखी थी. पर हैरानी की बात है कि इस साल अप्रैल से अब तक मप्र के सभी 50 जिलों में 25 करोड़ रुपये भी खर्च नहीं हुए. दूसरे शब्दों में मनरेगा के तहत हर साल इन तीन महीनों में खर्च की जाने वाली राशि का यह दो प्रतिशत पैसा भी नहीं है. ऐसा तब है जब बीते साल धार और बालाघाट जैसे एक-एक आदिवासी जिले में सौ-सौ करोड़ रुपये का काम हुआ था. यही वजह है कि इस बार मनरेगा का पैसा गांवों तक नहीं पहुंचने से जहां गांवों में विकास का काम ठप पड़ा है वहीं जिस संख्या में ग्रामीण गांवों से पलायन कर रहे हैं उसे भांपते हुए विभाग के होश उड़ गए हैं. लिहाजा बीती 27 मई को विभाग आयुक्त ने सभी कलेक्टरों को यह फरमान भेजा है कि वे कैसे भी राज्य के 20 लाख मजदूरों को पलायन से रोकें.
सवाल उठता है कि बीते सालों तक जो योजना ठीक-ठाक चल रही थी वह यह साल शुरू होने से पहले ही ठप क्यों हो गई. दरअसल ऐसा हुआ राजधानी भोपाल में बैठे चंद अदूरदर्शी नौकरशाहों के चलते. इन्होंने मनरेगा को हाईटेक बनाने के लिए इस साल जनवरी में बिना तैयारी के सभी जिलों में ई-वित्तीय प्रबंधन लागू कर दिया. इसके लिए उन्हें लाखों मजदूरों के खातों को न केवल राष्ट्रीयकृत बैंक से जुड़वाना था बल्कि उन खातों को ‘नरेगा सॉफ्ट’ नामक सॉफ्टवेयर में डलवाते हुए सभी का ई-मस्टर (कम्प्यूटर पर मजदूर की मजदूरी का ब्योरा) बनवाना था. प्रदेश में मनरेगा के 50 लाख से ज्यादा मजदूर हैं, इस लिहाज से एक जिले के एक लाख मजदूरों के खाते बैंकों में खुलवाना इतना बड़ा काम था जिसे कुछ दिनों में कर पाना संभव नहीं था. यह सारा काम मार्च तक हो जाना था, लेकिन नहीं हुआ. इस तरह योजना का सारा काम रुक गया और इसका खामियाजा बेकसूर मजदूरों को भुगतना पड़ा.
प्रदेश में इसके पहले 13वें वित्त आयोग और राज्य वित्त आयोग की राशि ग्राम पंचायतों को सौंपी जाती थी और पंचायतें ग्रामसभा के जरिए निर्माण कार्य कराती थीं. मगर अब जबकि मनरेगा सहित सभी कामों के वित्तीय अधिकार से सरपंचों को बेदखल किया जा चुका है तो उनमें असंतोष है और इसलिए उन्होंने मार्च के बाद से मनरेगा से खुद को अलग कर लिया है.
इसके पहले मनरेगा के मामले में मध्य प्रदेश अव्वल राज्यों में गिना जाता था. बालाघाट, बैतूल और अनूपपुर जैसे जिलों को प्रधानमंत्री ने उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए अवॉर्ड भी दिया था. आज इन्हीं जिलों के लाचार मजदूर अधिकारियों से काम की गुहार लगा रहे हैं. इस मुद्दे पर कोई भी आला अधिकारी आधिकारिक जवाब नहीं देना चाहता. पंचायत और ग्रामीण मंत्री गोपाल भार्गव इस बारे में विभाग की अतिरिक्त प्रमुख सचिव अरुणा शर्मा से संपर्क साधने को कहते हैं. शर्मा मानती हैं कि मनरेगा के मामले में प्रदेश पिछड़ गया है. वे कहती हैं, ‘आने वाले दिनों में इसकी भरपाई कर ली जाएगी.’ सवाल है कि भरपाई होगी कैसे. आने वाले तीन महीने बारिश में निकल जाएंगे और उसके बाद का समय चुनावी सरगर्मियों में जाएगा.
वहीं एक वर्ग की सोच है कि मनरेगा में मनमानी, कामचोरी और अनियमितताओं के चलते भी राज्य में यह योजना बैठ गई. दिल्ली में बहस चल रही है कि मनरेगा के चलते किसानों को खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते. जबकि राज्य में मनरेगा इतना फटेहाल है कि मजदूर मनरेगा में काम करने के बजाय शहर जाना चाहता है. बड़वानी में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी कृष्णास्वामी बताती हैं कि मनरेगा में मजदूरों को एक तो आधा-अधूरा पैसा बांटा जाता है और उस पर भी यह उन तक छह महीने के बाद तक पहुंचता है. वे कहती हैं, ‘बीते कुछ सालों में ही मनरेगा में मजदूर आदिवासियों की तेजी से घटती संख्या उनका मोहभंग दिखाती है.’
मनरेगा के चलते बीते सालों तक मप्र के 52 हजार गांवों में सालाना साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये आते थे. इसलिए यह योजना ग्रामीण अर्थव्यवस्था की अहम धुरी बन गई थी. भले ही यह पैसा मजदूरों के खातों से निकलकर छोटे-छोटे दुकानदारों तक पहुंचता था, लेकिन धनराशि का यह चक्र करीब दो करोड़ आबादी के बीच चलता था. इन दिनों यदि यह पैसा दिल्ली से प्रदेश के गांवों तक पहुंचता तो न केवल मजदूर परिवारों को काम मिलता बल्कि उनके खर्च की क्षमता भी बढ़ती. और इसका असर तीज-त्योहार और हाट बाजारों पर पड़े बिना नहीं रहता. लेकिन ऐसा नहीं होने से ग्रामीण इलाके के हाट बाजारों में जहां पिछले साल के मुकाबले लाखों रुपये की कम खरीदी हुई है वहीं इन बाजारों की रौनक भी उड़ी हुई है.