दुनिया भर में सदियों से अनेक संतों ने इस बात की पुष्टि की है कि ईश्वर एक है। बड़े-बड़े विद्वानों ने भी इस बात को माना है कि ईश्वर एक ही है, भले ही उसके नाम असंख्यों क्यों न हों। दरअसल जिस अलौकिक शक्ति, जिस परम् सत्ता की इंसान ने सदियों से खोज की है और जो खोज आज तक पूरी नहीं हो सकी है; वह यह है कि आिखर इतनी बड़ी सृष्टि और पूरे ब्रह्माण्ड को कौन चला रहा है? और इसी प्रश्न के उत्तर के लिए इंसान को धर्म-ग्रन्थों यानी मज़हबी किताबों की ओर झाँकने की आवश्यकता पड़ती रही है, जिनमें एक स्वर में कहा गया है कि ईश्वर एक है।
अमूमन लोग भी यह बात मानते हैं कि ईश्वर एक ही है। बावजूद इसके आपस में मज़हब के नाम पर और उस एक ईश्वर के अनेक नामों के चक्कर में पडक़र आपस में ही मरने-मारने पर आमादा रहते हैं; वह भी चन्द सियासतदानों और चन्द मज़हब के ठेकेदारों के बहकावे में आकर। सबका अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग वाला हिसाब है; पर सच को मानते हुए भी उसे स्वीकार करने वाले लोग न के बराबर ही हैं। यही वजह है कि हर समय कहीं-न-कहीं मज़हब के नाम पर, ईश्वर के नाम पर लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं। आजकल के सोशल मीडिया पर तो यह मुद्दा और भी गरमाया रहता है। लोग न तो एक-दूसरे के मज़हब को बुरा-भला कहने में संकोच करते हैं और न ही एक-दूसरे से गाली-गलौज करने में उन्हें कोई शर्म महसूस होती है। तथाकथित धर्माचार्य भी इसमें हस्तक्षेप नहीं करते। उन्हें अपने ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी से ही लगाव है। दिखावे की सन्तई, अपने-अपने मज़हब के हिसाब से पूजा-पाठ / इबादत उनके जीवन को अपने-अपने गढ़ों में सम्मान और ऐश-ओ-इशरत की ज़िन्दगी दिलाने के लिए पर्याप्त हैं। वे जान-बूझकर लोगों को आडम्बर के इस खोल से बाहर आने देना नहीं चाहते। क्योंकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसा करने से उनकी ऐश भरी ज़िन्दगी नरक समान हो जाएगी। लोग सच जानने के बाद उनके इशारे पर नहीं नाचेंगे। हमेशा देखा गया है कि जो लोग, खासतौर पर सन्त सच की बात करते हैं; एकता, भाईचारे, समानता, इंसानयित, मुहब्बत की बात करते हैं; उनके साथ अन्याय होता है। उन्हें प्रताडऩा सहनी पड़ती है और उनके खिलाफ तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ निरंकुश सत्ताएँ हाथ धोकर पड़ जाती हैं।
इसलिए ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी की चाह रखने वाले सन्तों को समझना होगा कि अगर फूलों भरा बिस्तर और ऐश-ओ-आराम वाली ज़िन्दगी ही इतनी पसन्द थी, तो फिर सन्तई का चोला ओढ़ा ही क्यों? क्यों बने पण्डित, मुल्ला, पादरी आदि? यदि सन्तों की राह इतनी आसान होती, तो उनके कदमों में बड़े-बड़े शहंशाहों के सिर न झुके होते। दुनिया भर में सन्तों का इतना मान-सम्मान नहीं होता। बड़े-बड़े आततायियों की तलवारें सन्तों के सामने आते ही गिर न पड़ी होतीं। इतिहास ऐसे िकस्सों से भरा पड़ा है, जिनमें सन्तों के तेज़, उनकी अलौकिक शक्ति और उनकी दिव्यता के कारनामे आज के आधुनिक युग में भी लोगों को आश्चर्यचकित कर देते हैं। यह िकस्से-कारनामे केवल किताबों या किंवदंतियों में ही नहीं हैं, बल्कि हकीकत में इनके प्रमाण भी हैं। आज तक न जाने कितने वैज्ञानिक, कितने पुरातत्त्वविद्, कितने इतिहासकार इन प्रमाणों और आश्चर्यजनक कारनामों की जाँच-परख कर चुके हैं और इनमें छिपे रहस्यों पर से परदा उठाने की कोशिशों में लगे हैं; पर रहस्यों पर से परदा आज तक नहीं उठा सके। इस जाँच-परख के बाद अनेक लोग तो खुद भी सन्त हो गये और ईश्वर की खोज में लग गये।
आज भले ही बहुत-से लोगों को पैसा कमाने का लालच सन्तई की तरफ ले आया हो, पर वास्तव में ऐसे लोग असली सन्त नहीं होते। वैसे तो सन्त बनने की पहली शर्त यही होती है कि सन्त को दुनियादारी से दूर रहना चाहिए, अगर यह सम्भव न हो और उसे समाज में रहना पड़े, तो भी उसे समाज से विलग जीवन बिताना चाहिए। अगर कोई सन्त ऐसा नहीं करता है, तो ऐसे व्यक्ति को सन्त कहना भी पाप है। ऐसे लोग मान-सम्मान के लायक भी नहीं होते। क्योंकि ये वही लोग होते हैं, जो अपनी देह पर काम को बोझ न डालने के चक्कर में सन्तई का चोला ओढ़ते हैं और लोगों को आपस में बाँटने का काम करते हैं, ताकि इनका धन्धा-पानी चलता रहे। पुण्य-भूमि भारत के भोले-भाले लोग इन्हें इसलिए सम्मान देते हैं, क्योंकि हमारी परम्परा में सन्तों को ईश्वर की ओर ले जाने वाले मार्ग को प्रशस्त करने वाला शुद्ध-आत्मिक शक्ति का वाहक माना गया है। कोई नहीं जानता कि मरने के बाद वह कहाँ जाता है? उसका क्या होगा? और उसकी आत्मा किस रूप में जन्म लेगी? न कोई यह जानता है कि जन्म लेने से पहले वह क्या था? और तो और, किसी को अपने शरीर की असंख्य गतिविधियों के बारे में भी नहीं पता होता, जो हर दिन, हर पल उसके अन्दर होती रहती हैं; तो फिर उस अनन्त के बारे में कैसे जान सकता है, जिसने ऐसा अनन्त ब्रह्माण्ड बनाया है, जिसमें इंसान की हैसियत एक तिनके बराबर भी नहीं है। न जाने कब यह मिट्टी से बना शरीर ढेर हो जाए? या कब इस नश्वर शरीर के जीते-जागते अपना और दुनियादारी का ज्ञान तक न रहे। इसलिए तो कहा गया है कि हमारे पास जो कुछ है, सब उसी ईश्वर का दिया हुआ है और अन्त में उसी में मिल जाना है।
सबको उसी एक परमात्मा / उसी एक अल्लाह ने पैदा किया है और एक ही तरह से पैदा किया है। फिर यह भेद कैसा? आपसी विवाद कैसा? यह मार-काट कैसी? दूसरों पर अत्याचार क्यों? भोग-विलास की लिप्सा क्यों? धन और ऐश-ओ-आराम की अनन्त इच्छा क्यों? ईश्वर को और उसकी परम् सत्ता को बाँटने की मूर्खता भरी चेष्टा क्यों? एक-दूसरे से नफरत क्यों? ईश्वर के नाम ही तो अनेक हैं, मगर वह है तो एक ही!