इस समय नामवर सिंह के लिखे पुनर्पाठ की ज़रूरत है। उन्होंने ‘कविता के नए प्रतिमान’ से ही अपनी माक्र्सवादी विचारधारा में विचलन शुरू कर दिया था। न केवल इतना ही आज वे यह स्वीकार भी करते हैं कि वह पुस्तक उन्होंने तत्कालीन साहित्य अकादमी सचिव भारतभूषण अग्रवाल के कहने पर महज तीन सप्ताह मेें लिखी थी। उद्देश्य था अकादमी पुरस्कार पाना।
इस पुस्तक के प्रकाशित होते ही प्रगतिशील आलोचना के शिखर पुरुष और समीक्षक डा. रामविलास शर्मा ने इस पुस्तक की तीखी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि इस पुस्तक में लेखक का अपना कुछ नहीं है। सारा कुछ अमेरीकन ‘न्यू क्रिटिसिज्म’ से आयातित है। दूसरे इस पुस्तक में बड़ी ही चतुराई से नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल को हाशिए पर ढकेल दिया गया। जो लेखक ऐसे तुच्छ समझौते, तुच्छताओं के लिए करता है, वह महान लेखक नहीं हो सकता। महानता सिर्फ लेखन से ही नहीं, लेखक के आचरण से भी परखी जाती है। राम विलास शर्मा ने ऐसा कोई समझौता कभी नहीं किया।
नामवर सिंह सत्ता और संस्थानों से जुड़कर साहित्य की छिछली राजनीति करते रहे हैं। उन्होंने कभी लेखन के लिए कोई बड़ा जोखिम नहीं उठाया। अपनी राजनीति के लिए ही राजकमल प्रकाशन और उसकी साहित्यक पत्रिका ‘आलोचना’ भी हासिल की।
एक साधक लेखक यह सब नहीं करता। जब भी नियुक्तियों में भूमिका निभाने का मौका मिला उन्होंने अपने चाटुकारों को ही लिया। योग्य लोगों को किनारे किया। इसमें कोई संदेह नही कि वे बहुत परिश्रमी और बहुत पढ़ाकू व्यक्ति रहे हैं। यह कतई ज़रूरी नहीं कि एक पढ़ाकू व्यक्ति, नेक इंसान भी होगा। अंग्रेजी में कहावत है, ‘द वाइजेस्ट एंड द मीनेस्ट ऑफ मैनकाइंड’ यानी एक बहुत बड़ा विद्वान, लेकिन आचरण में ‘अधम’। अनेक उदाहरण हैं जिन्हें उनके संदर्भ में आमानवीय ही कहा जाएगा।
हिंदी में आलोचना के शिखर पुरुष आज भी रामविलास शर्मा ही है, चूंकि वे अंग्रेजी में थे इसलिए वे कभी हिंदी के चाटुकार शिष्यों की फौज तैयार नहीं कर पाए। फिर भी उनका अध्ययन और हिंदी में साहित्य लेखन हमेशा प्रमाणिक रहा। नामवर सिंह मुझे एक ‘प्रोफेशनल’ आलोचक ही लगते हैं। वे मौलिक साधक-सर्जक कम हैं। यह तथ्यपरक सवाल पहले भी उठता रहा है। अब ज्य़ादा उठने लगा है।
आखिर क्या कारण रहा कि नामवर सिंह पिछले दो दशकों में कोई मौलिक रचना नहीं दे पाए। हिंदी के व्यापक साहित्य पर नया और मौलिक सोचने-कहने की आज ज्य़ादा ज़रूरत है। इस पर सोचना चाहिये क्योंकि आलोचना में काफी कुछ नया और मौलिक कहने-करने की जगह है। आज वहां एक बड़ा खालीपन है।
डाक्टर नामवर सिंह काफी बड़ी भूमिका निभा सकते थे। मेरा विनम्र अनुरोध है कि हिंदी में मूर्ति पूजा नहीं बल्कि हिंदी के समकालीन साहित्य की वस्तु निष्ठ मूल्यांकन की ज्य़ादा ज़रूरत आज है। मैंने खुद अंग्रेजी भाषा में अध्ययन, अध्यापन और हिंदी में लेखन पूरी जि़ंदगी किया है। मुझे नामवार सिंह से कभी कोई लाभ लेने की नौबत नहीं आई। हिंदी आलोचकों में आज भी शिखर आलोचक और नेक इंसान डा. रामविलास ही लगते हैं। साहित्य सृजन और जीवन में हम उनसे ही ज्य़ादा प्रेरित होते हैं। नामवर सिंह से नहीं जिनका लेखन ठहर गया। रामविलास शर्मा अंतिम क्षण तक नया रचते रहे, नया तार्किक चिंतन करते रहे और नए विमर्श उठाते रहे।