पिछले कुछ दिनों से मध्य प्रदेश की राजनीति में छाया सन्नाटा कुछ ऐसा था कि इसमें आने वाले तूफान की आहट साफ सुनी जा सकती थी. लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ. हर बार विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे के साथ ही कुछ दिन तक यही माहौल रहता है फिर पार्टियों में कुछ लोग बागी तेवर अपनाते हैं और आखिरकार चुनाव निपट जाते हैं. लेकिन इस बार आठ नवंबर यानी मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में बतौर प्रत्याशी नामांकन भरने की आखिरी तारीख आते-आते जिस तरीके से सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस के भीतर कार्यकर्ताओं में असंतोष का लावा फूटा वह कई मायनों में अभूतपूर्व है. यह असंतोष पहले तो मुंह जुबानी विरोध के रूप में दिखा और उसके बाद बगावती तेवर अख्तियार करते हुए सड़कों से पार्टी कार्यालयों तक जा पहुंचा. अजीब संयोग यह भी रहा कि राजधानी भोपाल स्थित भाजपा कार्यालय के स्वागत कक्ष को पार्टी कार्यकर्ताओं ने जहां तोड़ा-फोड़ा वहीं कांग्रेसजनों ने भी प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के कक्ष को नुकसान पहुंचाया. नौबत यहां तक आ गई कि इन कार्यकर्ताओं को खदेड़ने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा.
उज्जैन अंचल में तो टिकट न मिलने से आक्रोशित कांग्रेस के एक नेता नरसिंह मालवीय ने जहर पीकर आत्महत्या ही कर ली. इसके अलावा कई नेताओं ने इस बीच जान देने की धमकियां दीं वहीं सूबे की राजनीति में यह भी पहली बार ही सुनने को मिला कि कार्यकर्ताओं ने अपने दल के किसी प्रत्याशी पर जानलेवा हमला कर दिया. शुजालपुर विधानसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे महेंद्र जोशी ऐसे ही हमले का शिकार हुए. दरअसल ऐसी अधिकतर सीटें जहां असंतोष फैल रहा है वहां एक बात समान है. दोनों ही दलों के दिग्गज नेताओं ने यहां अपने रिश्तेदारों को टिकट दिलवाया है. इसके चलते जमीनी और वरिष्ठ कार्यकर्ता हाशिये पर हो गए हैं. ताज्जुब की बात है कि इस बार ऐसा एक या दो दर्जन सीटों पर नहीं हुआ बल्कि प्रदेश की 230 में से करीब सवा सौ सीटों पर दोनों पार्टियों या किसी एक पार्टी के बड़े नेताओं के रिश्तेदार चुनाव मैदान में हैं.
भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी भले ही कांग्रेस पर नेहरू-गांधी परिवार को लेकर वंशवाद का आरोप लगाएं लेकिन प्रदेश की भाजपा खुद इस ‘बीमारी’ की चपेट में दिख रही है. इस चुनाव में भाजपा के चार पूर्व मुख्यमंत्रियों ने सियासी वारिस चुनते हुए अपने परिजनों को टिकट दिलाया है. हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा की अपनी कोई संतान नहीं है. बावजूद इसके उन्होंने अपने भतीजे सुरेंद्र पटवा को भोजपुर (रायसेन) से टिकट दिलाया. वहीं पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी ने भी अपने उत्तराधिकारी के रूप में पुत्र दीपक जोशी को हाट-पीपल्या (देवास) से टिकट दिलाया. इसी कड़ी में ओमप्रकाश सकलेचा ने अपने पिता और पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वीरेंद्र कुमार सकलेचा के पुत्र होने का लाभ उठाते हुए जाबद (नीमच) से टिकट पा लिया है. पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती अपने समर्थकों को भले ही टिकट न दिलवा सकी हों लेकिन खरगापुर (टीकमगढ़) से उन्होंने अपने भतीजे राहुल सिंह को पार्टी का प्रत्याशी बनवा दिया है. यह और बात है कि राजनीतिक घरानों से आने वाले इन नेतापुत्रों को अब अपने क्षेत्र में ही जबरदस्त विरोध झेलना पड़ रहा है. खरगापुर में तो कार्यकर्ताओं ने उमा के भतीजे के पुतले फूंकते हुए पूरा विधानसभा क्षेत्र ही एक दिन के लिए बंद कर दिया था.
राजनीति में प्रभावशाली नेता के लिए अपनी पत्नी को टिकट दिलाना अब कोई नई बात नहीं लगती. किंतु मंत्री रंजना बघेल ने इसके ठीक उलट मनावर (धार) से अपने लिए तो टिकट निकाला ही, पड़ोसी सीट कुक्षी (धार) से अपने पति मुकाम सिंह किराड़े को भी भाजपा का टिकट दिलवा दिया. इसी कड़ी में दिवंगत विजयाराजे सिंधिया की भाभी और राज्यसभा में भाजपा सांसद माया सिंह ने पहले तो अपने पति ध्यानचंद सिंह के लिए टिकट चाहा, लेकिन जब बात बनी नहीं तो खुद ही अपनी मनपंसद सीट ग्वालियर (मध्य) से पार्टी के टिकट पर प्रत्याशी बन गईं.
दूसरी तरफ, कांग्रेस भी रिश्तों के बोझ तले पूरी तरह दब चुकी है. खास बात यह है कि राजनीति में अपने पुत्रों को लाने के लिए यहां पैंतरेबाजी भी खूब चली. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह अपने पुत्र जयवर्धन सिंह को राघौगढ़ (गुना) से पार्टी का दावेदार बनाने के लिए इतने उतावले दिखे कि उन्होंने एक नवंबर यानी चुनाव की अधिसूचना के दिन ही अपने पुत्र का नामांकन भरवा दिया. जयवर्धन ने कांग्रेस सम्मेलन में कहा कि पिता ने उन्हें मना किया था लेकिन मां ने उन्हें सेवा के तौर पर राजनीति करने को कहा था. यही नजारा कसरावद (खरगौन) में भी देखने को मिला जब पूर्व उपमुख्यमंत्री दिवंगत सुभाष यादव के बेटे और सांसद अरुण यादव के भाई सचिन यादव को टिकट दे दिया गया. कुछ दिनों पहले ही कांग्रेस ने कहा था कि वह किसी सांसद के बेटे को टिकट नहीं देगी. लेकिन सांसद प्रेमचंद गुड्डू ने हाईकमान के निर्देशों को धता बताते हुए आलोट (रतलाम) से अपने बेटे अजीत बौरासी को पार्टी का उम्मीदवार बना ही दिया. इस सीट से प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता नूरी खान टिकट मांग रही थीं. उन्होंने अब सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया है कि गुड्डू से उन्हें जान का खतरा है. रिश्तों के नाम पर कांग्रेस ने इस हद तक दरियादिली दिखाई है कि एक ही परिवार के दो-दो लोगों को पार्टी ने टिकट बांट दिया. उदाहरण के लिए, सिरमौर (रीवा) से विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी के नाती विवेक तिवारी को टिकट दिया गया तो वहीं पड़ोसी सीट गुढ़ (रीवा) पर भी श्रीनिवास के ही पुत्र सुंदरलाल तिवारी को टिकट दिया गया.
राजनीतिक दलों के भीतर प्रत्याशियों के चयन में जिस ढंग से रिश्तेदारियां निभाई गई हैं उससे इन दलों की न केवल बीते सालों की चुनावी तैयारियां धरी की धरी रह गई हैं बल्कि अनुशासन का तंत्र भी तार-तार हो गया है. सबसे पहले यदि हम सत्तारूढ़ भाजपा को देखें तो पार्टी ने लगभग साल भर पहले सर्वे कराके अपने मंत्रियों और विधायकों की मैदानी हकीकत का पता लगाया था. इस आधार पर पार्टी के सभी विधायकों का रिपोर्ट कार्ड तैयार हुआ. इसके मुताबिक लगभग एक दर्जन मंत्रियों सहित 70 से 75 विधायकों को हारने वाली स्थिति में बताया गया था. ऐसे में तैयारी थी कि योग्यता के आधार पर कई नए चेहरों को मौका दिया जाए. लेकिन हुआ इसके ठीक उलटा. और ज्यादातर उन्हीं विधायकों को टिकट दिया गया और जिनका टिकट कटा वहां नेताओं के रिश्तेदारों को मौका मिल गया.
कुछ दिनों पहले ही जबलपुर कैंट से भाजपा विधायक और विधानसभा अध्यक्ष रहे ईश्वरदास रोहाणी की मौत के बाद सहानुभूति की लहर का लाभ उठाने के लिए भाजपा ने इसी सीट पर उनके पुत्र अशोक रोहाणी को टिकट दिया है. इसी रणनीति के तहत पार्टी ने सुनील नायक की मौत के बाद उनकी बेटी अनीता नायक को भी पृथ्वीपुर (टीकमगढ़) से मैदान में उतारा है. वरिष्ठ पत्रकार एनडी शर्मा के मुताबिक, ‘राजनीतिक दलों का परिवारवाद को इस तरीके से समर्थन देना एक तरह से जागीरदारी प्रथा का ही नया रूप है. इससे जहां लोकतंत्र की नींव कमजोर हुई है वहीं राजनीति में योग्य लोगों के लिए दरवाजे भी बंद हुए हैं.’ जहां तक मप्र की राजनीति का सवाल है तो टिकटों को लेकर होने वाले असंतोष में परिवारवाद ने आग में घी डालने जैसा काम किया है. यही वजह है कि कई दावेदार अब ताल ठोककर पार्टी के खिलाफ ही खड़े हो गए हैं. इस बारे में भाजपा प्रदेश संगठन के मुखिया नरेंद्र तोमर का मानना है, ‘टिकट-वितरण के बाद विरोध होता ही है लेकिन बगावत की स्थिति में भी पार्टी का फैसला नहीं बदलेगा.’
दूसरी तरफ, सत्ता में वापसी की कवायद करने वाली कांग्रेस पर उन्हीं के बड़े नेताओं का भाई-भतीजावाद भारी पड़ गया. कांग्रेस में भी ऐसे नेताओं की संख्या अच्छी-खासी है जिन्होंने मैदानी कार्यकर्ताओं की कीमत पर अपने नातेदारों को टिकट दिलाने में कामयाबी हासिल की है. हालांकि बगावत का डर कांग्रेस को पहले से सता रहा था और यही वजह है कि उसने टिकटों की घोषणा नामांकन की तारीख के एक दिन पहले ही की. दिलचस्प है कि काफी अरसे से कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तर्ज पर मप्र में भी राहुल गांधी फॉर्मूला चलाने की चर्चा जोरों पर थी. इसके तहत ग्राउंड रिपोर्ट के आधार पर जमीन से जुड़े योग्य नेताओं को वरीयता देने का दावा किया गया था. किंतु कांग्रेस के नेता मप्र में भाजपा की कड़ी चुनौती के बावजूद नातेदारी निभाने का मोह नहीं छोड़ सके.
इसी कड़ी में पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत अर्जुन सिंह के पुत्र और कांग्रेस से नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने चुरहट (सीधी) सीट पर पिता की विरासत को संभालते हुए खुद को स्थापित किया है. लेकिन चुरहट के आस-पास के इलाके पर नजर दौड़ाएं तो जाहिर होता है कि टिकट पाने वालों में हर तरफ अजय सिंह के नाते-रिश्तेदारों की पूछ-परख रही है. जैसे कि अर्जुन सिंह के साले सुरेंद्र सिंह मोहन के बेटे राजेंद्र सिंह को कांग्रेस ने अमरपाटन (सतना) और अर्जुन सिंह के दामाद भुवनेश्वर प्रसाद सिंह को सिंगरौली से टिकट दिया है. ऐसे में सालों से वंशवाद का आरोप झेल रही कांग्रेस ‘शहजादों की नई फसल’ से जुड़े सवालों पर मौन है. लेकिन पार्टी के एक पदाधिकारी का मानना है, ‘अब यह साफ हो चुका है कि क्षत्रप नेताओं के सामने दिल्ली का हाईकमान बहुत बौना है. पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नाम की चीज नहीं है. और ऐसा लगता है कि बड़े नेता दिल्ली से टिकट छीनकर अपनों को चुनाव लड़वा रहे हैं.’
जाहिर है यह चुनाव मप्र में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही वंशवाद की राजनीति के लिए अभूतपूर्व साबित होने जा रहा है और साथ में खतरनाक संकेत भी दे रहा है कि यदि यह प्रवृत्ति आगे बढ़ी तो राज्य में शासन की कमान कुछ परिवारों के हाथ में ही सिमट जाएगी.