नाक की लड़ाई

 

बिहार में गया और मोतिहारी दो अलग-अलग हिस्सों में बसे हुए शहर हैं. दोनों इलाकों के निवासियों में काफी भिन्नता है. मोतिहारी ठेठ भोजपुरी भाषी इलाका है तो गया मगही भाषा और संस्कृति का गढ़. मोतिहारी वालों को इस बात की मुग्धता रहती है कि उनकी ही धरती पर महात्मा गांधी के सत्याग्रह की बुनियाद पड़ी और बाद में वे मोहनदास से महात्मा बन गए. गया वालों को गुमान रहता है कि गया की धरती ने ही ज्ञान की तलाश में भटक रहे राजकुमार सिद्धार्थ को बुद्ध बनने का अवसर दिया. इन दोनों इलाकों में सांस्कृतिक-सामाजिक और भौगोलिक दूरी इतनी ज्यादा है कि आपस में रोटी-बेटी का संबंध न के बराबर होता है. इन दोनों में अड़ोसी-पड़ोसी जैसा कोई संबंध नहीं है. बावजूद इसके आजकल बिहार के इन दोनों इलाकों में एक-दूसरे के लिए सौतिया डाह जैसी भावना चरम पर है. दोनों इलाकों का दौरा करने और स्थानीय लोगों से बातचीत करने पर यह साफ महसूस होता है कि यहां क्षेत्रीय अस्मिता का भाव बिहारी होने के गर्व पर भारी पड़ रहा है. अपनी लड़ाई के समर्थन में मोतिहारी और गया के लोग मानव श्रींखलाएं बना रहे हैं, परचेबाजी कर रहे हैं और दिल्ली दौड़ लगा रहे हैं.

इस अलगाव के केंद्र में है एक केंद्रीय विश्वविद्यालय. वही केंद्रीय विश्वविद्यालय, जिसके स्थान चयन को लेकर देश के मानव संसाधन मंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री मूंछ की लड़ाई लड़ रहे हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मोतिहारी के पक्ष में खड़े हैं तो दूसरी ओर देश के मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल हैं जो गया के पक्ष में अपने वकालत के पेशे वाले अनुभव से तर्क-वितर्क करते हैं.

इस लड़ाई का राजनीतिक असर जो होना है वह तो होगा ही, फिलहाल सबसे ज्यादा हास्यास्पद स्थिति उन छात्र-छात्राओं की हो गई है जो पिछले तीन साल से कहने को तो केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहे हैं लेकिन उन्हें पटना के बीआईटी परिसर के एक कोने में अपने भविष्य का ताना-बाना बुनना पड़ रहा है. उस कोने की व्यथा यह है कि अक्सर विश्वविद्यालय के कुलपति और बीआईटी प्रबंधन के बीच तू-तू मैं-मैं की नौबत आ जाती है और बीआईटी प्रबंधन उन्हें बाहर निकाल देने की धमकी देता रहता है.

बिहार सरकार के मानव संसाधन मंत्री पीके शाही का कहना है, ‘हमें एक नहीं चार केंद्रीय विश्वविद्यालय चाहिए.’ विपक्षी नेता राष्ट्रीय जनता दल के सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘बिहार को चाहिए कि वह गया और मोतिहारी, दोनों जगह केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की मांग तो करे ही, साथ ही पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की पुरानी मांग को भी दुहराए.’ लेकिन इन बिहारी नेताओं की भावना के उलट केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल बार-बार एक ही बात दोहरा रहे हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालय गया में ही खुलेगा, मोतिहारी में उसका एक्सटेंशन सेंटर खोला जा सकता है. साथ में सिब्बल यह सुझाव भी देते हैं कि अगर राज्य सरकार चाहे तो मोतिहारी में एक राज्यस्तरीय विश्वविद्यालय की स्थापना करे, केंद्र सरकार हर संभव सहयोग करेगी. इन सबके बीच प्रस्तावित केंद्रीय विश्वविद्यालय जिसको लेकर सारी लड़ाई जारी है, उसके कुलपति जनक पांडेय ने यह कहकर नया पेंच फंसा दिया है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत बिहार के सभी प्रमंडलों में एक-एक कम्युनिटी कॉलेज खोलना चाहिए. यानी हर जिम्मेदार व्यक्ति के पास अपना-अपना फॉर्मूला है.

मोतिहारी बनाम गया की मौजूदा लड़ाई के अतीत में झांकने पर दिलचस्प जानकारियां मिलती हैं. 2004 में केंद्र में बनी यूपीए सरकार ने देश भर में 15 केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करने की योजना बनाई. बिहार के हिस्से में भी एक आया. पटना के बीआईटी परिसर में इसकी शुरुआत हुई. राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उसी दौरान मोतिहारी में इंजीनियरिंग कॉलेज का उद्दघाटन करने गए. यह नीतीश का उत्कर्ष काल था. भारी संख्या में मोतिहारी की जनता उन्हें सुनने के लिए इकट्ठा थी. भीड़ के जोश और मोतिहारी इलाके से एनडीए को मिली भारी सफलता के आवेग में नीतीश ने मंच से उनके लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय की घोषणा कर दी बशर्ते जमीन मोतिहारी के लोग उपलब्ध करवा दें. लगे हाथ जनता ने जमीन देने के लिए हामी भर दी. झगड़े के बीज यहीं से पड़े. मुख्यमंत्री ने अपना प्रस्ताव दिल्ली भेजा. दिल्ली ने तीन सदस्यीय टीम मोतिहारी भेजी. टीम ने मोतिहारी के पिछड़ेपन, आवागमन की दुरूहता और आबादी वगैरह को आधार बनाकर नीतीश का प्रस्ताव खारिज कर दिया. लगे हाथ केंद्र सरकार ने गया में सेना की जमीन पर विश्वविद्यालय परिसर स्थापित करने का अपना वैकल्पिक प्रस्ताव भी पेश कर दिया. यहां से नीतीश और केंद्र सरकार के बीच नाक की लड़ाई की बुनियाद पड़ी, जो अब तक चल रही है.

मोतिहारी वालों को मुख्यमंत्री का आसरा था तो गया वालों में उम्मीद केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ने जगा दी. जाहिर-सी बात है दोनों इलाकों के लोगों ने अपने-अपने हिसाब से नायक-खलनायक तय कर लिए और लड़ाई शुरू कर दी. अब यह मामला इतना जटिल हो चुका है कि इन दोनों जगहों को अगर लॉलीपॉप जैसा कुछ नहीं दिया गया तो हर हाल में राजनीतिक नुकसान राज्य में सत्ताधारी एनडीए गठबंधन को उठाना पड़ेगा. दोनों इलाकों में राजनीतिक वर्चस्व एनडीए का ही है. राजनीतिक हैसियत के मामले में राज्य में अप्रासंगिक हो चुकी कांग्रेस के पास यहां खोने के लिए कुछ नहीं, इसलिए केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री राज्य के मुख्यमंत्री को हर हाल में अंगूठा दिखाने पर आमादा हैं. मोतिहारी जिस पूर्वी चंपारण का मुख्यालय है, उस इलाके की 11 विधानसभा सीटों में से नौ और तीन संसदीय सीटों पर एनडीए का कब्जा है. दूसरी ओर गया में संसदीय सीट पर भाजपा का कब्जा होने के साथ-साथ 10 में से नौ विधानसभा सीटों पर एनडीए ही काबिज है. जाहिर-सी बात है, शिक्षा के एक केंद्र को लेकर यदि सियासी लड़ाई चल रही है तो अब दोनों में से जहां केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं बन सकेगा, वहां एनडीए को नुकसान उठाना होगा.

शिक्षा के इस सियासी खेल में शिक्षा से जुड़े असल सवाल हाशिये पर चले  गए हैं. संसद में बिहार के सांसद मोतिहारी में केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना को लेकर गांधी का अपमान बंद करो जैसे नारे लगा रहे हैं,. शिक्षाविदों के एक वर्ग का सवाल है कि चंपारण में गांधी के नाम से एक केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित कर देने से क्या गांधी का मान रह जाएगा. अपने चंपारण प्रवास के दिनों में गांधीजी ने शिक्षा के क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण काम किए थे. पश्चिमी चंपारण में वृंदावन नाम की एक जगह पर उन्होंने 28 बुनियादी विद्यालयों की शुरुआत करवाई थी. इन विद्यालयों में वर्षों से शिक्षक नहीं हैं. लेकिन यह मुद्दा उठाने वाला कोई नहीं. पश्चिम चंपारण में ही कुमारबाग नामक स्थान में कभी राज्य ही नहीं राष्ट्रीय स्तर का मॉडल स्कूल खुला था. वह खंडहर बना हुआ है, लेकिन उसकी भी कोई सुध लेने वाला नहीं. बुनियादी विद्यालय खोलने के लिए चंपारणवासियों ने उदारता से जो जमीनें दी थीं उनका क्या हो रहा है, यह सवाल भी महत्वपूर्ण है.

दूसरी ओर गया वाले  एक केंद्रीय विश्वविद्यालय से करिश्मे की उम्मीद लगाए हुए हैं. उनके मन में यह सवाल नहीं आ रहा कि उनके यहां तो पहले से ही मगध विश्वविद्यालय के नाम से राज्य का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय मौजूद है. वह क्यों नहीं उत्कृष्ट संस्थान बन सका? गया और मोतिहारी की लड़ाई में ऐसे कई सवाल लुप्त हो गए हैं.

पटना विश्वविद्यालय देश के गिने-चुने विश्वविद्यालयों में एक रहा है. वहां क्या हालत है? शिक्षाविद विनय कंठ कहते हैं, ‘वहां कैडर स्ट्रेंथ अब मात्र 40 प्रतिशत रह गई है, इसके लिए क्या हो रहा है? 90 से ज्यादा कोर्स शुरू हो गए हैं, लेकिन न आधारभूत ढांचा है, न शिक्षक. इसके लिए क्या कोशिश हो रही है?’ बिहार के नौ विश्वविद्यालयों में पिछले नौ सालों से एक भी नियुक्ति का नहीं होना भी कोई कम महत्वपूर्ण सवाल नहीं है. ऐसा नहीं कि इन सबके लिए सिर्फ वर्तमान सरकार दोषी है. लेकिन जब नीतीश कुमार के काल में ही शिक्षा सियासत का मसला बनी है और केंद्रीय और प्रांतीय विश्वविद्यालय का पेंच फंस गया है तब स्थानीय विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता की चर्चा होना भी लाजिमी है. रही बात एक केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना को लेकर लड़ाई लड़ रहे लोगों की तो उन्हें इसके संदर्भ में कुछ जानकारियां भी रखनी चाहिए. बिहार में इस वक्त नौ राज्य संचालित विश्वविद्यालय हैं जबकि एक भी केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं है. राज्य से बाहर जाकर और तकनीकी शिक्षा ग्रहण कर रहे छात्रों को छोड़ दिया जाए तो लगभग 75 फीसदी छात्र इन्हीं संस्थानों से शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और इनकी दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है.’

कंठ के सवालों को परे भी करें तो बिहार के बारे में सामान्य-सी जानकारी रखने वाले भी जानते हैं कि यहां दो दशक पहले तक कई उत्कृष्ट शिक्षण संस्थान हुआ करते थे. भागलपुर में टीएनबी कॉलेज, दरभंगा में सीएम साइंस कॉलेज, गया में गया कॉलेज, मुजफ्फरपुर में एलएस कॉलेज, मोतिहारी में एमएस कॉलेज, आरा में जैन कॉलेज, पटना में साइंस कॉलेज, आर्ट्स कॉलेज, कॉमर्स कॉलेज जैसे कई नामी संस्थान थे. इन कॉलेजों में पढ़ना गर्व की बात भी माना जाता था. आज ये सभी संस्थान बस नाम ढो रहे हैं.

सबसे अधिक छात्र राज्यों के विश्वविद्यालयों में जाते हैं और इन विश्वविद्यालयों की सेहत की चिंता किसी को नहीं है. केंद्रीय विश्वविद्यालयों को यूजीसी के बजट का करीब 60 प्रतिशत हिस्सा दिया जाता है और राज्य के विश्वविद्यालयों को 40 प्रतिशत. यह केंद्र की योजना है. अब राज्य के निवासियों को तय करना चाहिए कि किसकी मजबूती में उनकी भलाई है. जानकार कहते हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालय तो चाहिए लेकिन राज्य के विश्वविद्यालयों का क्या होगा, इस पर भी इतनी ही मजबूती से बात हो, तभी तस्वीर और तकदीर बदल सकती है.