नवीन पटनायक के समक्ष गढ़ बचाने की चुनौती

लोकसभा चुनाव के चौथे चरण में नौ राज्यों की 71 सीटों पर मतदान संपन्न हो गए। इनमें ओडिशा की छह लोकसभा सीटें- केंद्रापाड़ा, जगतसिंहपुर, जाजपुर, भद्रक, बालेश्वर, मयूरभंज और इनके तहत आने वाली 41 विधानसभा सीटों पर भी मतदान हुआ। ओडिशा में मतदान का यह अंतिम चरण था। बीजू जनता दल (बीजद) उम्मीदवार की मृत्यु के बाद सिर्फ पत्कुरा विधानसभा सीट पर 19 मई को मतदान होंगे। चौथे चरण के चुनाव में ओडिशा के दो प्रमुख नेताओं भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और केंद्रापाड़ा लोकसभा सीट से उम्मीदवार बैजयंत पांडा और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और भंडारीपोखरी विधानसभा से उम्मीदवार निरंजन पटनायक मैदान में हैं। पश्चिम बंगाल की तरह ओडिशा से भी भाजपा की खास उम्मीदें जुड़ी हैं। उसे यकीन है कि सूबे में राज्य सरकार के खिलाफ परिवर्तन की लहर चल रही है। वैसे इस बार सत्ताधारी बीजद को विपक्षी दलों से कड़ी चुनौती मिल रही है। नतीजतन ओडिशा के चुनावी नतीजे बेहद चौंकाने वाले होंगे। परिणाम शायद साल 1995 जैसे भी हो सकते हैं। उस चुनाव में भी बीजू पटनायक के खिलाफ कोई लहर नहीं दिख रही रही थी। इसके बावजूद कांग्रेस के हाथों उन्हें करारी शिकस्त खानी पड़ी।

क्या बरकरार रह पाएंगी सीटें

ओडिशा में विधानसभा की कुल 147 सीटें हैं। 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजद को 43.4 फीसद मत मिले थे और 117 सीटों पर उसे कामयाबी मिली। कांग्रेस को 25.7 प्रतिशत मत और 16 सीटें मिली थी। जबकि भाजपा को 18 फीसद मत और 10 सीटें मिली। वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजू जनता दल को 44.10 फीसद वोट मिले थे और उसके खाते में सूबे की इक्कीस सीटों में से बीस सीटें आईं थी। भाजपा को 21.50 फीसद वोट और एक सीट मिली थी,जबकि उसके नौ उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे। कांग्रेस को 26 फीसद वोट मिले लेकिन कोई सीट उसके हिस्से नहीं आई। लेकिन तीन साल बाद फरवरी 2017 में हुए ग्राम-पंचायतों के चुनाव में भाजपा को बड़ी कामयाबी मिली। राज्य की 846 जिला परिषदों में बीजद को सबसे अधिक 473 सीटों पर जीत मिली,जबकि भाजपा जिला परिषद की 297 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही। वहीं कांग्रेस को सिर्फ 60 सीटें मिलीं।

हालांकि इस बार के चुनाव में हालात बदले हुए नजर आ रहे हैं। लोकसभा के चुनाव में जहां अधिकांश सीटों पर सत्ताधारी बीजद और भाजपा में लड़ाई है, वहीं विधानसभा के चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबले के आसार हैं। ज्यादातर लोगों का मानना है कि प्रदेश चुनाव में नवीन पटनायक सरकार की वापसी होगी, लेकिन लोकसभा की कई सीटों का नुकसान हो सकता है। जबकि कई लोग यह भी मानते हैं कि ओडिशा त्रिशंकु विधानसभा की तरफ जाएगी। 2014 में कांग्रेस को विधानसभा की सोलह सीटें मिली थी, लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी शून्य पर सिमट गई। ऐसे में कांग्रेस के लिए इस बार अपनी सीटें बरकरार रख पाना एक बड़ी चुनौती है।

भुवनेश्वर-पुरी में दिलचस्प लड़ाई

राजधानी भुवनेश्वर और पुरी संसदीय सीटों पर चुनाव संपन्न हो गए। भुवनेश्वर पच्चीस वर्षों से बीजद के कब्जे में है। यहां लंबे समय से जीत का ख्वाब देख रही भाजपा ने पूर्व आईएएस अधिकारी अपराजिता सारंगी को मैदान में उतारा है। जबकि बीजद ने पूर्व आईपीएस अधिकारी अरूप पटनायक पर दांव खेला है। मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर रहे पटनायक की पहचान एक तेज-तर्रार अधिकारी की रूप में रही है। वहीं ओडिशा में कई जिलों में कलेक्टर रहीं सारंगी वर्ष राज्य शिक्षा विभाग की सचिव और भुवनेश्वर महानगर पालिका की आयुक्त भी रह चुकी हैं। सारंगी पिछले साल स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर भाजपा में शामिल हुई थी। भुवनेश्वर से सबसे अधिक आठ बार कांग्रेस उम्मीदवारों की जीत हुई है। जबकि बीजद 1998 से लगातार यहां जीतती आई है। भुवनेश्वर से पांच बार सांसद रहे प्रसन्ना कुमार पटसानी का टिकट काटकर अरूप पटनायक को उम्मीदवार बनाना नेताओं के साथ-साथ जनता के लिए भी हैरान करने वाला फैसला था। भुवनेश्वर की तरह पुरी में भी रोचक चुनावी नतीजे आने की उम्मीद है। यहां भाजपा उम्मीदवार संबित पात्रा का मुकाबला बीजद से लगातार पांच बार सांसद रहे पिनाकी मिश्रा से है। जबकि कांग्रेस के सत्यप्रकाश नायक मैदान में हैं। ओडिशा में सवर्णों की आबादी कम है,लेकिन सूबे की सियासत में उनका प्रभावी दखल रहा है। केंद्र सरकार द्वारा सवर्णों को दस फीसद आरक्षण मिलने से भाजपा को ओडिशा में इससे फायदा होने की उम्मीद है। यहां सवर्णों की आबादी करीब पंद्रह फीसद है। इनमें क्षत्रिय सात प्रतिशत,ब्राह्मण पांच प्रतिशत और कायस्थ तीन प्रतिशत हैं।

भाजपा में बाहरी नेताओं की आमद

ओडिशा में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव से पहले बीजू जनता दल के कई बड़े नेताओं ने भाजपा का दामन थामा। इनमें सबसे बड़ा नाम सांसद बैजयंत पांडा का है। भाजपा ने उन्हें केंद्रापाड़ा से ही उम्मीदवार बनाया है। इसके अलावा बीजद सरकार में कृषि मंत्री रहे दामा राउत को भाजपा ने पारादीप विधानसभा से मैदान में उतारा है। वहीं कंधमाल से बीजद सांसद प्रत्यूषा राजेश्वरी सिंह भी पिछले महीने भाजपा में शामिल हुईं। नायगढ़ राजपरिवार से जुड़ीं प्रत्यूषा का कंधमाल और आस-पास के इलाकों में काफी असर है। नबरंगपुर से बीजद के पूर्व सांसद रहे बलभद्र मांझी इस बार बतौर भाजपा उम्मीदवार चुनावी समर में हैं। कुछ समय पहले कांग्रेस के पूर्व सांसद विभु प्रसाद तराई ने भी पाला बदला और भाजपा में शामिल हुए। पार्टी ने उन्हें जगतसिंहपुर लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया है।

कांग्रेस खेमे में उदासीनता

करीब दो दशकों से बीजू जनता दल ओडिशा की सत्ता में है। वामफ्रंट के नाम पश्चिम बंगाल में लगातार चौंतीस वर्षों तक शासन करने का कीर्तिमान है। कमोबेश ऐसी ही महत्वाकांक्षा मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी रखते हैं। बीजद से जुड़े नेता सत्ता विरोधी लहर से जुड़े सवालों को तव्वजो नहीं दे रहे हैं। लेकिन प्रदेश में सरकार के खिलाफ ‘एंटी-इनकंबैंसी फैक्टर’ को खारिज भी नहीं किया जा सकता। मुख्य विपक्षी पार्टी होने के नाते कांग्रेस को इसका फायदा मिलना चाहिए था,लेकिन नेताओं की उदासीनता और आपसी गुटबाजी से इसका लाभ भाजपा को मिलता दिख रहा है। एक तो ओडिशा कांग्रेस में सशक्त नेतृत्व का अभाव है,वहीं दूसरी तरफ नेताओं-कार्यकर्ताओं में आपसी समन्वय का अभाव है। भाजपा पिछले दो दशकों से राज्य में सांगठनिक विस्तार पर जोर दे रही है। पश्चिम बंगाल की तरह उसने ओडिशा के ग्रामीण क्षेत्रों में पैठ बनाई। ग्राम-पंचायतों के चुनाव को भाजपा ने आधार बनाया,जबकि कांग्रेस इस मामले में निष्क्रिय बनी रही। भाजपा के चुनाव-प्रचार पर गौर करें तो उसने आक्रामक और सुनयोजित तरीके से इसे अंजाम दिया। राष्ट्रीय स्तर के उनके कई नेता रोजाना अलग-अलग जिलों में जनसंपर्क किया, जबकि कांग्रेस इस मामले में काफी पीछे रही। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ओडिशा में कम

रैलियां की यही राहुल गांधी कालाहांडी-रायगढ़ा में वेदांता के खिलाफ नियमगिरि आंदोलन से जुड़े डोंगरिया कोंध आदिवासियों की लड़ाई को अपनी लड़ाई बताया था। उन्होंने खुद को दिल्ली में तैनात ‘नियमगिरि का सिपाही’ करार दिया था। कांग्रेस को यकीन था कि इसका लाभ साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मिलेगा। लेकिन फायदा तो दूर की कौड़ी साबित हुई, इसके उलट साल 2009 में जीतीं अपनी छह संसदीय सीटें भी कांग्रेस नहीं बचा पाई। पांच साल बाद भी कांग्रेस खेमे की उदासीनता खत्म नहीं हुई। नतीजतन इस बार भी कांग्रेस की स्थिति में सुधार होगा इसकी गुंजाइश कम है।

पटनायक की खामोशी पर उठते सवाल

मुख्यमंत्री नवीन पटनायक एक गंभीर नेता और अपने सधे बयानों के लिए जाने जाते हैं। हालांकि उनकी खामोशी पर कांग्रेस सवाल उठा रही है। पार्टी का आरोप है कि बीजद और भाजपा का परोक्ष रूप से गठबंधन है। इन आरोपों को मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के उस बयान से बल मिला,जिसमें उन्होंने कहा कि राज्य के हितों की खातिर बीजेडी केंद्र में बनने वाली किसी भी सरकार के साथ जाने पर विचार कर सकती है। इससे पहले मुख्यमंत्री पटनायक हमेशा भाजपा और कांग्रेस से दूरी बनाए रखने की बात कहते रहे। इन आरोपों की सच्चाई चाहे जो हो,लेकिन नोटबंदी, जीएसटी, सर्जिकल स्ट्राइक-एयर स्ट्राइक पर मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने केंद्र सरकार के खिलाफ कभी कोई बयान नहीं दिया। यहां तक कि उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के उप-सभापति के चुनावों में भी बीजद ने भाजपा का समर्थन किया था। गत लोकसभा चुनाव में बीजद को ओडिशा की कुल इक्कीस में से बीस सीटें मिली थी। इन नतीजों से राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी प्रमुख नवीन पटनायक का कद बढ़ा है। साथ ही दो दशकों से मुख्यमंत्री हैं,लेकिन फिर राष्ट्रीय मुद्दों पर उनका चुप रहना कई तरह के कयासों को जन्म देता है। यह पूछना तो लाजिमी है ऐसे मामलों में उनका और पार्टी का क्या रूख है ? ओडिशा की लाइफलाइन कही जाने वाली महानदी पर जब छत्तीसगढ़ में डैम बना उस समय भी मुख्यमंत्री नवीन पटनायक खामोश रहे।

किधर जाएंगे दलित-आदिवासी

हालिया कुछ वर्षों में कुछ राज्यों में दलितों के साथ उत्पीडऩ की कई घटनाएं हुईं। इसके विरोध में दलित संगठनों ने देशव्यापी आंदोलन भी किए। वर्ष 2014 के चुनाव में दलितों का समर्थन भाजपा को मिला था। नतीजतन उत्तर प्रदेश में भाजपा को अभूतपूर्व कामयाबी मिली थी। लेकिन इसके बरक्स ओडिशा में ‘मोदी लहर’ काम नहीं आई। पिछले चुनाव में दलित और आदिवासी मतदाताओं ने बीजद का समर्थन किया। राज्य में दलितों की जहां आबादी 16.5 है, वहीं आदिवासियों (अनुसूचित-जनजातियों) की संख्या 22.85 है। ओडिशा की चुनावी राजनीति में इनकी अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि राज्य में दो दशकों से बीजद के एकछत्र राज के पीछे दलितों और आदिवासियों की बड़ी भूमिका है। इस बार सियासी हालात कई मामलों में अलग हैं। ‘प्रधानमंत्री उज्जवला योजना’ पर भले ही विपक्षी पार्टियां तंज कसती हों, लेकिन प्रदेश के आदिवासी इलाकों में लोगों को इसका लाभ मिला है। ओडिशा में ‘ग्राम रक्षा दल’ से जुड़े लोगों में ज्यादातर दलित हैं, लेकिन इनकी तनख्वाह सिर्फ 1800 रुपये है। वेतन विसंगतियों को लेकर बीजद सरकार से इनकी नाराज़गी है। मुख्य विपक्षी पार्टी होने के बावजूद भी कांग्रेस इस मुद्दे पर शांत रही। जबकि भाजपा सदन से लेकर सड़क तक इस मुद्दे पर मुखर रही। उसने चुनावी रैलियों में भी ‘ग्राम रक्षा दल’ से संबद्ध लोगों के वेतन में वृद्धि का वादा किया। सुंदरगढ़, क्योंझर, मयूरभंज, नबरंगपुर और कोरापुट अनुसूचित जनजातियों के लिए जबकि भद्रक, जाजपुर और जगतसिंहपुर अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित है। 2014 में सुंदरगढ़ से भाजपा उम्मीदवार जुएल उरांव को छोड़ शेष सातों सीट बीजद के खाते में गई थी। लेकिन इस बार बीजद को यहां कड़ी चुनौती मिल सकती है।

भ्रष्टाचार की आंच

ओडिशा के चुनावों में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है। भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियां इसे लेकर बीजद सरकार पर हमलावर हैं। पश्चिम बंगाल की तरह ओडिशा में भी चिटफंड घोटाले को लेकर भाजपा मुख्यमंत्री नवीन पटनायक पर हमलावर रही। इसके अलावा राज्य सरकार द्वारा संचालित कई योजनाओं पर भी विपक्षी पार्टियां सवाल उठा रही हैं। इस समय ओडिशा में कुल 60 योजनाएं चल रही हैं। इनमें 18 योजनाएं साल 2018 में शुरू हुई जबकि 17 स्कीम 2017 में। भाजपा और कांग्रेस का आरोप है कि चुनावी फायदे के लिए दो वर्षों में चौंतीस योजनाएं शुरू की गई हैं। इनमें कई स्कीम सिर्फ कागजों पर चल रहे हैं और नौकरशाहों को इससे फायदा हो रहा है। भाजपा ने तो सत्ता में आने पर नवीन सरकार में शुरू हुईं सभी योजनाओं की जांच करने की बात कही है।

बीजद में महिलाओं को तरजीह

स्वयं सहायता समूहों से बीजू जनता दल को काफी उम्मीदें हैं। राज्य में ऐसे समूहों की संख्या करीब सत्तर लाख है। राज्य सरकार की तरफ से इन्हें वित्तीय मदद भी मिलती है। इससे बीजद ने गंझम लोकसभा से प्रमिला बिशोई को उम्मीदवार बनाया है। ओडिशा में स्वयं सहायता समूहों को लोकप्रिय बनाने में इनकी बड़ी भूमिका है। ग्रामीण महिलाओं को स्वाबलंबी बनाने में इन समूहों का बड़ा योगदान है। बीजद ने इस बार 33 फीसद महिलाओं को लोकसभा उम्मीदवार बनाया है और सात महिलाओं को टिकट दिया है। लेकिन विधानसभा में इस अनुपात में टिकट नहीं दिए गए। नवीन पटनायक इस बार हिंजली और विजयपुर दो विधानसभा सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं।

किसान आत्महत्या पर घिरी सरकार

मुख्यमंत्री नवीन पटनायक किसानों की बेहतरी का दावा करते हैं,लेकिन उनके 19 वर्षों के कार्यकाल में बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्या की। ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ के मुताबिक बीते दो दशकों में ओडिशा में 3,800 किसानों ने खुदकशी की। सर्वाधिक आत्महत्याएं पश्चिमी और तटीय ओडिशा में हुई हैं। हैरानी की बात यह है कि राज्य सरकार की तरफ से मृत किसानों के शोक-संतप्त परिवारों को आर्थिक मुआवजा नहीं मिलता। राज्य में आत्महत्या की मुख्य वजह कजऱ् और फसलों का नाकाम होना है। मुख्यमंत्री बनने पर नवीन पटनायक ने दावा किया था कि सभी प्रखंडों में 35 फीसद भूमि सिंचित होगी। लेकिन 19 साल बाद भी ओडिशा के सभी खेतों तक पानी नहीं पहुंचा। जुलाई 2015 में ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना’ शुरूआत हुई थी। सभी राज्यों में सिंचाई प्रणाली मजबूत बनाने के लिए वित्त मंत्रालय ने वर्ष 2017-18 में 8,200 करोड़ रुपये का आवंटन किया था। ओडिशा के हिस्से में भी ठीक-ठाक धनराशि आई थी। बावजूद इसके राज्य की 65 फीसद कषि भूमि अब भी सिंचित नहीं है। पिछले 19 वर्षों के दौरान राज्य में कोई बड़ी सिंचाई परियोजना नहीं बनी।