भारत एक ऐसा देश है, जिसके रीति-रिवाज़और तीज-त्योहार, सभी कुछ प्रकृति के अनुरूप तय किये गये हैं। ज्योतिष और मुहूर्त का भी उद्भव प्रकृति के अनुरूप हुआ है। यहाँ के सभी त्योहार मौसम और ऋतुओं के अनुरूप आते और मनाये जाते हैं, जो प्रकृति के बदलाव से सम्बन्धित हैं। भारत के मूल त्योहार भले ही किसी पौराणिक-कथा या किवदंती से जुड़े हों, परन्तु अंतत: उनका सम्बन्ध प्रकृति से ही है। यहाँ एक और तथ्य भी इन त्योहारों से जुड़ा हुआ है और वह है खेती। सभी जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। ऐसे में यह त्योहार न केवल मौसम और ऋतुओं के अनुरूप हैं, वरन् कृषि के अनुरूप भी हैं। ऐसे में हम अपनी संस्कृति के अनुरूप ही सभी त्योहारों को मनाते हैं। इन त्योहारों में अंग्रेजी कैलेण्डर का कोर्ई महत्त्व नहीं है, बल्कि इन त्योहारों में ज्योतिष शास्त्र का महत्त्व है। लेकिन आजकल हम अपनी संस्कृति को धीरे-धीरे भुलाते जा रहे हैं और अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार ही अपने त्योहारों को मनाने लगे हैं। जबकि अंग्रेजी कैलेण्डर से हमारे त्योहारों और यहाँ तक की भारतीय मौसम का भी कोर्ई लेना-देना नहीं है। इसी क्रम में अंग्रेजी कैलेण्डर के नये साल मनाने की प्रवृत्ति तकरीबन सभी भारतीयों में पनपने लगी है; जबकि सच्चाई यह है कि अंग्रेजी कैलेण्डर की कोर्ई भी तारीख हर साल आगे-पीछे होती रहती हैं। दरअसल, यह एक वैलेंस कैलेण्डर है, जिसे तीन साल में एक दिन की बढ़त करके बैलेंस किया गया है। दूसरी बात यह भी है कि इस कैलेण्डर को अंग्रेजों ने निर्मित किया है। यही कारण है कि यह कैलेण्डर भारतीय मौसमों, ऋतुओं और यहाँ की प्रकृति के अनुरूप पूरी तरह खरा नहीं उतर सका है। ऐसे में इस अंग्रेजी कैलेण्डर से हमें त्योहार मनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। नये साल को हम इसी कैलेण्डर के हिसाब से मनाने लगे हैं। यह बुरा नहीं है कि हम दूसरी संस्कृतियों के त्योहारों का सम्मान करें। लेकिन यह गलत है कि हम अपनी परम्परा के अनुरूप मनाये जाने वाले त्योहारों को भूलते जा रहे हैं। अगर केवल अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुरूप मनाये जाने वाले त्योहारों या यह कहें कि ईसाइयों के यानी पश्चिमी संस्कृति के त्योहारों की बात करें, तो आजकल हम नये साल से लेकर रोज-डे, स्लेप-डे, किस-डे और न जाने कौन-कौन से डे तथा क्रिसमिस-डे मनाने लगे हैं। इसमें कोर्ई बुराई नहीं है; लेकिन हम अपने त्योहारों को भूलते जा रहे हैं, यह गलत है। जैसे हम अपने नये साल को ही भूल चुके हैं। आप खुद ही सोचें कि 01 जनवरी को आने वाले नये साल में आिखर क्या नया होता है, सिवाय अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से नया साल आने के अलावा? जबकि हम सब भली-भाँति जानते हैं कि प्रकृति इस समय अपना कोर्ई रंग नहीं बदलती, मौसम भी नहीं बदलता, यहाँ तक कि ऋतु भी नहीं बदलती। अंग्रेजी कैलेण्डर के नये साल में हमारे यहाँ सर्दी का ही मौसम होता है और शीत ऋतु ही होती है। इन दिनों में हमारी रीति के अनुसार दूसरे कई ऐसे त्योहार होते हैं, जिनके बारे में अधिकतर लोग नहीं जानते। जैसे- माघ मास, जो पुण्य-धर्म का महीना होता है; इसके अलावा पूस का महीना, जिसे पकवान बनाकर खाने का समय होता है, खासकर दाल-बड़े, कचौड़ी, तिलकुट यानी तिल तथा मूँगफली के दानों से बनी मिठाइयाँ आदि बनाकर खाने का मौसम होता है। आयुर्वेद के हिसाब से भी इस मौसम में इस तरह के व्यंजन जमकर खाये जा सकते हैं। इन दिनों हमारी पाचन शक्ति बहुत बेहतर होती है। मगर हम मनाते हैं, नया साल; जिसका उतना महत्त्व कम-से-कम प्रकृति के हिसाब से नहीं होता, जितना कि हमारे इन त्योहारों का होता है। मगर हम अपने त्योहारों को भूलकर पश्चिमी सभ्यता के त्योहारों में विशेष रुचि लेने लगे हैं। जबकि भारतीय त्योहार हमारे स्वास्थ्य से भी जुड़े हैं। आजकल अधिकतर लोग अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार नया साल 01 जनवरी से मनाने लगे हैं, जिसके मनाने का समय प्रकृति के अनुरूप नहीं है। साथ ही इस नये साल के जश्न में युवा पीढ़ी रास्ता भी भटकने के साथ-साथ भारतीय संस्कृति और परम्परा को भी भूलती जा रही है। भारतीय नये साल के महत्त्व को समझने के लिए हमें भारतीय परम्परा के नये साल के महत्त्व तथा अच्छाइयों और अभारतीय परम्परा के नये साल के कुप्रभाव तथा बुराइयों पर विचार करने की ज़रूरत है।
कब आता है भारतीय नया साल?
हालाँकि हमारी वर्षों की परम्परा है, फिर भी आजकल के बहुत से लोगों को नहीं मालूम कि भारतीय नया साल कब आता है? तो आपको बता दें कि हमारा नया साल आता है चैत्र माह चंद्रोदय के पहले दिन यानी चैत्र माह के शुक्ल पक्ष से। कुछ लोग वसंत पंचमी से भी नया साल मानते हैं, लेकिन इन दोनों समयों में थोड़ा-सा अन्तर है। हालाँकि, जब भारतीय नया साल आता है, तब प्रकृति नयी-नवेली दुल्हन की तरह सजी होती है। चारों ओर मकरंद की खुशबू बिखरी होती है। भँवरे और तितलियाँ फूलों पर मँडराते दिखते हैं। पेड़ नयी-नयी कोपलों और नये-नये पत्तों से लदे होते हैं। सुरम्य, सुगंधित पछुवा हवा चल रही होती है। कोयल कूकना शुरू कर देती है। चारों ओर हरियाली छायी होती है। सरसों के खेत पीले-पीले फूलों से लदे होते हैं। गेहूँ के खेत बालियों से लदे होते हैं। अरहर के खेतों से फूलों की सुरम्य खुशबू आती है। मोर बागों में नाचने लगते हैं। यानी सर्दी को हम अलविदा कह रहे होते हैं। गुनगुनी धूप होने लगती है और बादल लगभग आकाश से गायब हो चुके होते हैं। तब होता है हमारा नया साल। यही नहीं हमारा वित्तीय वर्ष भी 01 अप्रैल से शुरू होता है। ऐसे में हमें भारतीय संस्कृति, भारतीय प्रकृति और मौसम के अनुरूप नया साल मनाना चाहिए, जो कि चैत्र माह में नवरात्रि से शुरू होता है। वसंत पंचमी को भी नया साल मनाने की परम्परा हमारी रही है। जिसे सिख धर्म में वैशाखी के रूप में मनाते हैं। वैसे सिख धर्म में नया साल होली, जिसे पंजाबी में होला-मोहल्ला कहते हैं, के अगले दिन से माना जाता है। इसी तरह सिंधी नया साल चैत्र के शुक्ल यानी चंद्र उदय के दूसरे दिन यानी दूज वाले दिन को मनाया जाता है। महाराष्ट्र में भारतीय नये साल को गुड़ी पड़वा के रूप में मनाया जाता है, तो आंध्र प्रदेश में उगादी पर्व के रूप में मनाया जाता है। इन पाँच भारतीय परम्पराओं में तीन अलग-अलग दिवसों को नया साल मनाया जाता है; लेकिन इस अंतर से कोर्ई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि भारतीय नया साल आता वसंत ऋतु के अनुरूप ही है। वैसे मुख्य रूप से और ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नया साल चैत्र शुक्ल पक्ष के पहले दिन यानी नवरात्रे के पहले वृत से शुरू होता है, जिसे नव संवत्सर भी कहते हैं।
संवत्सर का महत्त्व और इतिहास
भारतीय ज्योतिष शास्त्र के कैलेण्डर में जो गणना की गयी है, वह सूर्य और चंद्रमा की गति और उदय-अस्त के अनुसार होती है। कहा तो यही जाता है कि दुनिया भर के कैलेण्डर भारतीय ज्योतिष शास्त्र के कैलेण्डर का अनुसरण करते हैं। लेकिन इस दावे को अभी किसी दूसरी सभ्यता ने प्रामाणिक तौर पर स्वीकार नहीं किया है। यह भी कहा जाता है कि दुनिया का सबसे पहला कैलेण्डर भारतीय कैलेण्डर है, जो राजा विक्रमादित्य के काल में बना था, इसी के चलते इसके साल विक्रम संवत्् कहा जाता है। यहाँ तक कि वर्ष, महीने और सप्ताह का चलन भी विक्रम संवत्् के अनुरूप ही हुआ है। ऐसा भी कहा जाता है कि भारतीय ज्योतिष कैलेण्डर की नकल करके ही यूनानियों ने इसे दुनिया भर में फैलाया।
सबसे प्राचीन संवत् कौन-सा है?
अनेक भारतीय ज्योतिषी और विद्वान भी विक्रमी संवत्् से ही भारतीय दिवस गणना आदि को मानते हैं और यह मानते हैं कि एक साल की गणना भी विक्रम संवत्् से ही शुरू हुई है; लेकिन विक्रम संवत्् से तकरीबन 6,700 ईस्वी पूर्वी सप्तर्षि संवत्् अस्तित्व में आ चुका था। हालाँकि, ज्योतिष शास्त्र के जानकारों की मानें, तो वर्ष यानी संवत्् का प्रारम्भ तकरीबन 3,100 ईस्वी पूर्व माना जाता है। कुछ ज्योतिष मानते हैं कि भारतीय कैलेण्डर भगवान कृष्ण के जन्म से शुरू हुआ था, जिसे कृष्ण कैलेण्डर भी कहते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग नया साल दीपावली से मानते हैं। इन लोगों में गुजरात और जैन धर्म के लोग शामिल हैं। बताया जाता है कि कृष्ण संवत्सर के बाद कलियुगी संवत्् की शुरुआत भी हुई। हालाँकि, यह कैलेण्डर इतने स्पष्ट और प्रामाणिक अब नहीं माने जाते, क्योंकि भारतीय ज्योतिष शास्त्र भी विक्रम संवत्् के अनुरूप ही चलता है, जिसके हिसाब से ही हमारे त्योहार पड़ते हैं, जो कि प्रकृति के अनुरूप हैं। हालाँकि विक्रमी संवत् के उद्भव यानी शुरुआत को लेकर ज्योतिषी और विद्वान एकमत नहीं हैं। फिर भी अधिकतर विद्वान विक्रम संवत्् की का प्रारम्भ 57 ईसवीं पूर्व से मानते हैं।
क्या है विक्रमी संवत्् यानी नव संवत्सर?
विक्रम संवत्् यानी नव संवत्सर पाँच प्रकार का होता है। इसमें सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र, सावन और अधिमास आदि की गणना मान्य की गयी है, जिसके हिसाब से साल का चक्र घूमता है। इसका ज्योतिष में 12 राशियों से भी सम्बन्ध है। विक्रम संवत्् का एक साल 365 दिन का होता है। वहीं चंद्र वर्ष 354 दिनों का होता है। इसी तरह ज्योतिष शास्त्र के अनुसार एक माह 30 दिन का होता है। जबकि सप्ताह सात दिन का। अंग्रेजी कैलेण्डर में हर साल को बैलेंस करने के लिए कुछ माह 30 दिन के, कुछ माह 31 दिन के तो फरवरी को 28 या तीसरे वर्ष 29 दिन का बनाया गया है। जबकि भारतीय कैलेण्डर में प्रत्येक माह 30 दिन का ही होता है।
भारतीय नव वर्ष का महत्त्व
आजकल भले ही भारतीय युवा पीढ़ी अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार नया साल मनाने लगी है, लेकिन भारतीय कैलेण्डर के अनुसार ही नया साल मनाना अधिक उत्तम है। भारतीय नव वर्ष का महत्त्व और मतलब न केवल नयी प्रकृति, बल्कि रंगों और कलाओं से भी है। क्योंकि इन दिनों में प्रकृति भी रंग-बिरंगी और आकर्षक दिखती है, वहीं कला की देवी सरस्वती की उपासना भी की जाती है। माना जाता है कि संगीत की उत्पत्ति का सम्बन्ध वसंत के आगमन से है। कविता भी उदय भी वसंत के आगमन से है। महाकवि कालिदास ने तो प्रकृति के इस नव यौवन यानी नये साल में प्रकृति के नयेपन पर वृहद काव्य की बड़ी बारीकी से रचना की है। आिखर दुनिया का कौन ऐसा इंसान या जानवर या अन्य प्राणी होगा, जिसका लगाव या सम्बन्ध प्रकृति से न हो? इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि कोर्ई भी नहीं। पर फिर भी हम अपनी प्रकृति से कटने लगे हैं, जो कि हमारी बड़ी भूल है। हमें याद रखना होगा कि प्रकृति से कटकर कोर्ई भी सुखी नहीं रह सकता। हमें प्रकृति के अनुरूप रहकर हर कार्य करना चाहिए, अन्यथा वह दिन देखना पड़ सकता है, जब हम बर्बादी के कगार पर खड़े दिखेंगे। आपको लग रहा होगा कि त्योहारों को न मनाने से भला क्या बिगड़ेगा? तो यह आपकी बड़ी गलत-फहमी होगी। क्योंकि प्रकृति के अनुसार त्योहार मनाने से हमारे स्वास्थ्य, हमारे जीवन-चक्र और हमारे व्यक्तिगत चरित्र आदि पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि भारतीय नया साल बहुत शुद्धता, वृत, प्रकृति पूजा आदि से शुरू होता है। जबकि अंग्रेजी साल में ऐसा कुछ भी नहीं है, सिवाय रात भर के हुड़दंग के।
अंग्रेजी के नये साल पर जश्न का नशा
कहने की ज़रूरत नहीं कि आज की पीढ़ी ज्यों-ज्यों पश्चिमी सभ्यता के त्योहारों के जश्न में डूबती जा रही है, त्यों-त्यों नशे और अवैध और अत्यधिक सेक्स की लत में डूबती जा रही है। 01 जनवरी को मनाया जाने वाला नया साल लोग 31 दिसंबर की रात से शुरू करते हैं और वह भी किसी न किसी बुराई के साथ। अधिकतर युवा-युवतियाँ इस अंग्रेजी कैलेण्डर के नये साल को शराब और रात भर के डांस आदि के साथ शुरू करते हैं, जिसमें शोर-शराबे के अलावा कुछ और नहीं होता। शहरों में तो पब हाउस, बार, गेस्ट हाउस, होटल के कमरे और अवैध रूप से चल रहे सेक्स रैकेट के अड्डे 31 दिसंबर की रात से 01 जनवरी की सुबह तक शराब, सबाब, कबाब में तर रहते हैं, जो किसी न किसी रूप में भारत की नयी पीढ़ी को भटका रहे हैं। नयी पीढ़ी को इस पागलपन से बचाने के लिए अपने त्योहारों का महत्त्व और इनकी अच्छाइयाँ बताने की ज़रूरत है। लेकिन इसमें समस्या यह है कि न केवन बच्चे और युवा, बल्कि अनेक बुजुर्ग भी अंग्रेजी कैलेण्डर के इस पश्चिमी नये साल के जश्न में डूबते जा रहे हैं। उन्हें केवल शादी-विवाह या अन्य शुभ कामों के लिए भारतीय ज्योतिष शास्त्र और उसके सवंत्सर के अनुरूप चलने के अलावा बाकी चीज़ों से कोर्ई सरोकार नहीं रह गया है।
आने वाली पीढिय़ाँ भूल न जाएँ भारतीय नव वर्ष!
अगर सब इसी तरह चलता रहा और हम इसी तरह वसंत पंचमी को नया साल न मनाकर अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार 01 जनवरी को नया साल मनाते रहे, तो हमारी पीढिय़ाँ भूल जाएँगी कि भारतीय संस्कृति का भी कोर्ई सबसे बेहतर कैलेण्डर होता है। साथ ही यह भी भूल जाएँगी कि ज्योतिष गणना का क्या महत्त्व है? इससे न केवल हमारी संस्कृति का पतन होगा, वरन् हमारा भी पतन होगा। क्योंकि जो लोग अपनी संस्कृति, सभ्यता, संस्कार और भाषा को भुला देते हैं, उनका इतिहास खत्म हो जाता है, पतन हो जाता है।
भारतीय संस्कृति पर हमला, एक सोची-समझी साज़िश
जब भारत पर अंग्रेजों ने शासन किया था, तब उन्होंने सबसे पहले भारतीय भाषाओं पर हमला किया और अंग्रेजी को मुख्य भाषा के रूप में इस्तेमाल किया। इसी तरह उन्होंने भारतीय संस्कृति पर भी कुठाराघात किया और यहाँ की सभ्यता को भी कुचला। हमारे अच्छे ग्रंथों को या तो वे लेकर चले गये या उन्हें जला दिया। यह भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति और भारतीयता को नष्ट करने की एक सोची-समझी साज़िश थी। आज हम अंग्रेजी हुकूमत से आज़ादी के 72 साल बाद भी अपनी किसी एक बेहतरीन भाषा को भी राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं दे सके हैं और अंग्रेजी का लवादा ओढ़े घूम रहे हैं। इसी तरह अब हमारे त्योहारों पर हमले हो रहे हैं, अंग्रेजी कैलेण्डर यानी पश्चिमी सभ्यता के अनुरूप त्योहारों के रंग में हम भारतीयों को रंगकर। ऐसा नहीं कि यह सब एक दिन में हो गया, हम धीरे-धीरे अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार ढलने लगे और उसी के अनुसार पश्चिमी सभ्यता के त्योहारों को अपनाने लगे। यहाँ यह भी बताना ज़रूरी है कि यह सब यूँ ही नहीं हो रहा है, बल्कि इसके लिए बड़ी फंडिंग तक की जाती है और यह फंडिंग भारतीयों की जेब काटकर की जाती है। शायद थोड़ी-सी तरक्की, थोड़ी-सी अमीरी और नये साल के जश्न के नशे ने हमें अन्धा बना दिया है। अंग्रेजी कैलेण्डर के इस नये साल के जश्न में हम इतने मदहोश हो गये हैं कि हमें यह तक नहीं पता चल रहा कि हम नशे के शिकार हो रहे हैं और नशे तथा जिस्म की तस्करी को बढ़ावा दे रहे हैं, जो कि हमारे लिए काफी घातक है।
सरकारें भी नहीं लगातीं रोक
31 दिसंबर की रात पूरी तरह शोर-शराबे और नशे तथा जिस्म फरोशी के धन्धे में डूबी होती है। यह बात पुलिस भी अच्छी तरह जानती है, आबकारी विभाग के अधिकारी भी जानते हैं और सरकारें भी। लेकिन कोर्ई भी इस अवैध काम में हस्तक्षेप करने की ज़हमत नहीं उठाता। यहाँ तक कि अवैध बार, क्लब और शराब के अड्डे भी चलते हैं, पर किसी को कोर्ई लेना-देना नहीं। शायद अवैध कमाई और रिश्वत की रकम ने सबकी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। आज नये साल के नशे में न केवल शहर, बल्कि कस्बे और गाँव तक डूबने लगे हैं। न तो केन्द्र सरकार का इस ओर ध्यान है और न ही राज्य सरकारें इस नशीली-रसीली जश्न की रात पर रोक लगाती हैं। अगर यह सब इसी तरह चलता रहा, तो इसी तरह अवैध धन्धों और नशे की तस्करी को बल मिलता रहेगा और भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के साथ-साथ भारतीयों का भी पतन होता रहेगा।
भडक़ाऊ संगीत भी दे रहा बढ़ावा
नये साल के जश्न में आजकल जिस तरह की नाइट पार्टियाँ आयोजित होने लगी हैं, उन्हें भडक़ाऊ म्यूजिक भी बढ़ावा दे रहा है। बॉलीवुड के आजकल के गानों के अलावा इस काम को हरियाणवी और भोजपुरी गाने भी बढ़ावा दे रहे हैं। असभ्यता की ओर ले जाने और जिस्म लौलुप्सा के लिए उकसाने वाले इन गीतों पर भी पाबंदी लगनी चाहिए; ताकि नये साल की नाइट पार्टियों में होने वाली अश्लीलता पर कुछ रोक लग सके। इसके साथ ही देर रात तक, जैसा कि कानूनी हिदायत है; पुलिस को कहीं पर भी म्यूजिक नहीं बजने देना चाहिए; तेज आवाज़में तो बिलकुल भी नहीं।