हाल के वर्षों में बिहार में जयंती- पुण्यतिथि के जरिये राजनीति की धुआंधार परंपरा परवान चढ़ी है. तमाम दल अपने- अपने तरीके से एक दूसरे को मात देने की कोशिश में विस्मृति के गर्भ से नायकों को निकालकर, उन्हें जातीय फ्रेम में फिट कर उनके नायकत्व को उभारने में लगे हुए हैं. कई मायने मे यह अच्छा ही है. जयंती आयोजन की दिशा में बिहार सरकार ने भी एक नयी पहलकदमी की है. राज्य के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की जयंती एक साल तक अमृत वर्ष के रूप में मनाने की शुरुआत हुई है. मुजफ्फरपुर मे एक बड़े आयोजन से इसकी शुरुआत मुख्यमंत्री ने कर दी है, अब साल भर यह सिलसिला पूरे राज्य मे चलेगा.
राज्य के पहले वित्त मंत्री अनुग्रह नारायण सिंह की 125वीं जयंती वर्ष को भी पूरे साल धूमधाम से मनाये जाने सरकारी तैयारी है॰ नेताद्वय की याद मे घूम-घूम कर, तरह-तरह से आयोजन होंगे, उनकी जीवनी स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल होगी, भाषण संकलित कर प्रकाशित करने का प्रस्ताव है. इस खास आयोजन के लिए एक समिति भी बनी है, जिसके अध्यक्ष खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं. समिति में उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, भाजपा के बिहार प्रदेश अध्यक्ष डा सीपी ठाकुर, जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह, राज्य के कई मंत्री, विधानसभा में विपक्ष के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी, विधानपरिषद में प्रतिपक्ष के नेता गुलाम गौस, वाम पृष्ठभूमि वाले विधान पार्षद केदार पांडेय, वासुदेव सिंह आदि शामिल हैं. समिति निर्माण में बेहतर, चतुर राजनीतिक दृष्टिबोध का समन्वय झलकता है. सत्ता पक्ष, विपक्ष, वाम का बेहतर समन्वय.
बहरहाल, बात दूसरी. उम्मीद की जानी चाहिए कि इन पुराने नेताओं के जीवनमूल्य, उनके संघर्ष और संघर्ष के साथ ही सृजन के बीज बोने की कोशिश प्रेरणादायी साबित होगी. लेकिन, इस जयंतीमय माहौल में एक छोटी सी चूक बड़ी खटक पैदा करनेवाली है. गुजर रहा साल लोक नाट्य सम्राट तथा बिहार और बिहारी शैली को प्रतिष्ठित करानेवाले भिखारी ठाकुर का 125वां जयंती वर्ष भी है. सरकार के साथ श्रीबाबू-अनुग्रह बाबू जयंती समिति में शामिल दूसरे दल के नेताओं को भी भिखारी याद नहीं आये, महत्वपूर्ण नहीं लगे, खटकनेवाली बात है.
बनाव-बिगड़ाव की समानुपाति प्रक्रिया से गुजर रहे बिहार को श्रीबाबू और अनुग्रह बाबू के साथ भिखारी के संघर्ष-सृजन के पुनर्पाठ की जरूरत कुछ मायनों में ज्यादा है. सांस्कृतिक राजनीति के अभाव में बिहार अराजकता के दायरे से बाहर नहीं निकल पा रहा. भिखारी सामाजिक बदलाव के एक ऐसे दुर्लभ व अद्भुत सूत्रधार थे, जिन्होंने सांस्कृतिक चेतना को राजनीतिक चेतना से आगे रखते हुए बदलाव की ऐसी बुनियाद तैयार की थी, जो राजनीति अब भी करने में सक्षम नहीं हैं. भिखारी ने कई चुनौतियां को ध्वस्त किया था. सामंती रंडी नाच का वर्चस्व खत्म कर लौंडा नाच की परंपरा विकसित कर, उसे परवान चढ़ाकर मनोरंजन की एक अहम विधा नाच का सामान्यीकरण कर सबके लिए सुलभ कर दिया था.
ठेठ गंवई शैली में ‘बिदेसिया’ के जरिये स्त्री की बिरह वेदना को लोक स्वर दिया था. बेटियों की बिक्री के खिलाफ भिखारी ने ‘बेटीबेचवा’ नाटक के माध्यम से बहुत पहले ही असरदार काम किया था. बतौर अभिनेता, जर्जर काया के साथ आखिरी बार धनबाद के एक मंच पर उतरे भिखारी ने सूदखोरों और बेटीबेचनेवालों पर धावा बोला था. प्रभाव यह हुआ था कि पहली बार कोलियरी इलाके में सूदखोरों के खिलाफ लोगों का संगठन बना. यह संकल्प भी लिया गया कि जो बेटी बेचेगा, उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाएगा.
भिखारी के नायकत्व को उभारने की ज्यादा जरूरत क्यों है, उसे ऐसे भी समझ सकते हैं. आज बिहार में राजनीति स्त्री स्वातंत्र्य, सशक्तिकरण और उन्हें अधिकारों से लैश करने का अभियान चल रहा है. भिखारी ने अपने दायरे में, अपने संसाधन से इस उभार की कोशिश आजादी से पहले ही की थी. बदलाव की आकांक्षा जगायी थी. भिखारी की मंडली गांव में ‘गबरघिचोर’ नाटक करती थी, जिसमें एक स्त्री अपने यौन आकांक्षा और स्वतंत्रता पर पंचों से बहस करती है. सोचिए, सामंतमिजाजियों के इलाके में, ठेठ गंवई मंच पर एक स्त्री के जरिये यह सार्वजनिक संवाद करने-करवाने का साहस कितना बड़ा रहा होगा. भिखारी ने यह बार-बार किया था. आज हाशिये के समूह को मुख्यधारा में लाने की पहल बिहार की राजनीति में चल रही है, भिखारी ने उसे भी बहुत पहले किया था. आप गौर करें उनके नाटक के पात्रों के नामों पर. मलेछू, चपाट, उदबास, गलीज आदि नाम उनके नाटक के नायकों के हैं. हाशिये के नाम, उपेक्षित-वंचित समुदायों के नामों को नायकत्व दे रहे थे भिखारी. अपने दल में वंचितों को शामिल कर नायकत्व भी प्रदान कर रहे थे.
आज भिखारी बिहार की प्रमुख भाषा भोजपुरी के समाज के सबसे बड़े अवलंबन हैं. दुनिया के उन तमाम मुल्कों में उनके नाम का सम्मान है, जहां भोजपुरी समझी जाती है. बिहारी अस्मिता को स्थापित करने और बिहारी शैली को परवान चढ़ाने को बेकरार नया बिहार, उनकी ताकत को क्यों नहीं समझ रहा, यह समझ से परे है. श्रीबाबू, अनुग्रह बाबू की जयंती समारोह समिति में शामिल सत्ता पक्ष, विपक्ष और वाम नेताओं के बुद्धि-विवेक पर तरस खाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते आप !