हाल के महीनों में विपक्ष में तेज़ी से बढ़ी है कांग्रेस नेता की स्वीकार्यता
पेगासस से लेकर कोरोना वायरस और अर्थ-व्यवस्था पर तीखी आवाज़ उठा रहे राहुल गाँधी ने जब अगस्त के शुरू में नेताओं को अपने घर नाश्ते पर बुलाया, तो साफ़ हो गया कि कांग्रेस नेता अब भविष्य की तैयारी के लिया कमर कस चुके हैं। संसद में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने जिस तरह पेगासस पर मोदी सरकार को घेरा है और जैसे तेवर उसने दिखाये हैं, उससे साफ़ कि कांग्रेस संगठन को पटरी पर लाने के साथ-साथ अब विपक्षी एकता की धुरी बनने की कोशिश में जुट गयी है।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल गाँधी को इन तमाम विपक्षी दलों के केंद्र में ख़ुद को स्थापित करने के लिए अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में ज़्यादा-से-ज़्यादा राज्यों में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाना होगा। राष्ट्रीय चुनावों में अपनी कमज़ोर स्थिति की भरपाई कांग्रेस विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करके कर सकती है, जो उसके लिए ज़रूरी भी है। राहुल ने हाल के हफ़्तोंमें कई मौक़ों पर विपक्षी बैठकों का नेतृत्व किया है। उन्हें अपने घर नाश्ते पर बुलाया है और मानसून सत्र विपक्ष की रणनीति को लेकर अहम रोल निभाया है। तो क्या यह माना जाये कि राहुल गाँधी एक नये अवतार में मैदान में आये हैं? उनकी तैयारी और रणनीति में बदलाव तो यही संकेत करते हैं।
इसमें कोई दो-राय नहीं है कि देश में कुछ गम्भीर मुद्दे उभरने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जनता में समर्थन में कमी का अहसास करते ही कांग्रेस सक्रिय हुई है। राहुल गाँधी हाल के महीनों में प्रधानमंत्री मोदी के विरोध के केंद्र में रहे हैं। जनता में एक उनकी पहचान से कोई इन्कार नहीं कर सकता। कांग्रेस अध्यक्ष पद छोडऩे के बाद भी राहुल पार्टी में सर्वोच्च नेता बने हुए हैं, तो इसका कारण उनका पार्टी के बीच एकता की गारंटी होना भी है। ऐसे में यह तो तय ही है कि कांग्रेस की तरफ़ से राहुल गाँधी ही एक नेता के रूप में सामने होंगे। हाल के हफ़्तोंमें उनकी सक्रियता एक अलग स्तर पर दिखने लगी है। उन्होंने विपक्ष के नेताओं को जहाँ अपने यहाँ आमंत्रित किया है, वहीं जम्मू-कश्मीर और कुछ अन्य राज्यों का दौरा भी किया है।
राहुल की चुनाव की राजनीति केलिहाज़ से सक्रियता ज़्यादा दिलचस्प है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म किये जाने के मोदी सरकार के फ़ैसले के बाद राहुल गाँधी पहली बार राज्य के दौरे पर गये। वे कई कार्यक्रमों में शामिल हुए, जिनमें कश्मीरी पंडितों के सबसे महत्त्वपूर्ण मंदिर ‘क्षीर भवानी’ में माथा टेकना भी शामिल है। राजनीतिक क्षेत्रों में राहुल के इस दौरे को ख़ासी तरजीह मिली। राहुल का कश्मीर दौरा ऐसे समय में हुआ है, जब यूटी में परिसीमन निर्धारण की प्रक्रिया जारी है और अगले साल विधानसभा चुनाव करवाये जाने की चर्चा तेज़ है। पिछले क़रीब दो साल में कश्मीर की सियासत में क्या बदलाव आया है, इसे लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। तीन महीने हुए ज़िला विकास परिषदों (डीडीसी) के चुनावों के नतीजे ज़ाहिर करते हैं कि कश्मीर में क्षेत्रीय दलों के प्रति लोगों का भरोसा बना हुआ है।
ऐसे में राहुल के दौरे के विधानसभा चुनाव की तैयारियों के अलावा राष्ट्रीय मायने भी हैं। गाँधी ने दौरे में पार्टी की बैठक की, जिसमें प्रदेश प्रभारी रजनी पाटिल, प्रदेश अध्यक्ष जी.ए. मीर, वरिष्ठ नेता रमण भल्ला, एनएसयूआई राष्ट्रीय अध्यक्ष नीरज कुंदन शामिल रहे। दौरे के दूसरे दिन राहुल गाँधी का कश्मीरी पंडितों के सबसे महत्त्वपूर्ण देवस्थान क्षीर भवानी मंदिर पहुँचना ख़ासी चर्चा में रहा। अनुच्छेद-370 ख़त्म होने के बाद इस मंदिर में माथा टेकने पहुँचने वाले राहुल गाँधी पहले राष्ट्रीय नेता हैं। राहुल श्रीनगर की हज़रतबल दरगाह भी पहुँचे, जिसकी कश्मीरी मुस्लिमों में बहुत ज़्यादा मान्यता है। राहुल ने लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘मैं आपके दर्द को समझता हूँ। क्योंकि मैं भी एक कश्मीरी हूँ। कश्मीर की राजनीति में कांग्रेस की हमेशा महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।’
राहुल की नाश्ता कूटनीति
विपक्ष को एक जुट करने के लिए राहुल गाँधी ने जब लोकसभा और राज्यसभा के 100 से ज़्यादा सांसदों को नाश्ते पर बुलाया, तो इसकी काफ़ी चर्चा रही। दिल्ली के कांस्टीट्यूशनल क्लब में क़रीब 17 राजनीतिक दलों के 155 नेता राहुल की नाश्ता बैठक में जुटे। इसके बाद मानसून सत्र के बाक़ी बचे दिनों की रणनीति भी तय हुई। ज़ाहिर है राहुल की नाश्ता बैठक सफल रही; क्योंकि संसद में इसके बाद उन्हीं मुद्दों पर विपक्ष ने मोदी सरकार को घेरा, जिसका बैठक में फ़ैसला हुआ था। इसके अलावा राहुल गाँधी ने विपक्ष के संसद तक साइकिल मार्च में भी हिस्सा लिया। विपक्षी नेताओं के साथ बैठक में राहुल गाँधी ने कहा- ‘मेरे विचार से सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम इस शक्ति को एक करते हैं। यह आवाज़ (जनता की) जितनी एकजुट होगी, यह आवाज़ उतनी ही शक्तिशाली होगी और भाजपा-आरएसएस के लिए इसे दबाना उतना ही मुश्किल होगा।’ राहुल की ऐसी बैठकों से बसपा को किनारा करते देखा गया है। इसका एक बड़ा कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति है, जहाँ कांग्रेस बहुत तेज़ी से अपनी सक्रियता बढ़ा रही है। बसपा को लगता है कि कांग्रेस के साथ रहना उसके लिए घातक हो सकता है। कुछ-कुछ यही बात सपा को लेकर भी कही जा सकती है, जो कांग्रेस की बढ़ती सक्रियता को लेकर काफ़ी चौकन्नी दिख रही है। हालाँकि सपा अपने प्रतिनिधि विपक्ष की इन बैठकों में भेजती ज़रूर है।
राहुल की इस नाश्ता बैठक में शिवसेना, समाजवादी पार्टी, शरद पवार की एनसीपी, उद्धव ठाकरे की शिवसेना, लालू की राजद, समाजवादी पार्टी, माकपा, भाकपा, आरएसपी, आईयूएमएल, केसीएम, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, नेशनल कॉन्फ्रेंस (जेके), तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), बिहार की लोकतांत्रिक जनता दल (एलजेडी) प्रमुख हैं।
ख़ुद को बदल रहे हैं
कांग्रेस नेता राहुल गाँधी में बदलाव दिख रहा है। अपनी पार्टी में वृहद् वर्ग का समर्थन हासिल करने वाले राहुल का विपक्षी दलों में स्वीकार्यता हासिल करने का यह प्रयास विपक्ष को भी रास आएगा; क्योंकि राहुल की पिछली निष्क्रियता ही थी, जिसने इन दलों को राहुल से दूर रखा हुआ था। राहुल गाँधी मानसून सत्र में पिछले वर्षों के मुक़ाबले अबकी बार कहीं ज़्यादा सक्रिय भूमिका में दिखे हैं। संसदीय कार्यवाही से पहले विपक्ष की बैठकों का नेतृत्व करना ज़ाहिर करता है कि उनकी स्वीकार्यता का दायरा विपक्ष में वृहद् होता जा रहा है।
राहुल गाँधी की इस सक्रियता ने जहाँ विपक्षी ख़ेमे में उम्मीद पैदा की है, वहीं भाजपा में इससे शुरुआती बेचैनी है। भाजपा की हर सम्भव कोशिश रही है कि राहुल गाँधी किसी भी सूरत में विपक्ष के केंद्र में न आने पाएँ। भाजपा को पता है कि राहुल के किसी भी विपक्षी अभियान के केंद्र में आने से न सिर्फ़ मोदी के ख़िलाफ़ राहुल एक सर्वमान्य विपक्षी चेहरा बन जाएँगे, कांग्रेस और राहुल गाँधी को लेकर उसके (भाजपा के) छवि बिगाड़ो अभियान और दुष्प्रचार की भी हवा निकल जाएगी।
राहुल के नये अवतार का एजेंडा साफ़ है- ‘अगले साल उत्तर प्रदेश में और 2024 में देश भर में भाजपा को परास्त करना।’ ख़ुद को अपराजय मानने वाली भाजपा इस कल्पना भर से ही सिहर जाती है कि उसकी ताक़त को चुनौती मिल सकती है। राहुल भाजपा को इसलिए भी खटकते हैं कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा सक्रिय नेता हैं। ऐसे में राहुल विपक्ष की भी ज़रूरत हैं, यह विपक्ष के तमाम बड़े नेता समझते हैं। ऐसे में राहुल यदि सक्रिय होकर विपक्ष का मोदी, भाजपा के ख़िलाफ़ नेतृत्व करते हैं, तो जनता में ज़्यादा बेहतर संकेत जाएगा।
आम जनता में आज भी भाजपा के अलावा यदि किसी राजनीतिक दल की देश भर में पहचान है, तो वह कांग्रेस ही है। बेशक कांग्रेस पिछले दो लोकसभा चुनावों में हारी है, उसका समर्थक वर्ग देश में भाजपा से भी बड़ा है। ऐसे में यदि भाजपा को जनता से झटका मिलता है, तो कांग्रेस कोई भी बड़ा कमाल कर सकती है। भाजपा नेता यह बात समझते हैं।लिहाज़ा आनी वाले समय में राहुल के ख़िलाफ़ वे और सक्रिय होंगे। जैसे-जैसे राहुल की तरफ़ से सरकार विरोध मज़बूत होगा, वे जनता की चर्चा के केंद्र में भी आते जाएँगे। यही कारण है कि अपनी रणनीति में बदलाव लाकर अब राहुल गाँधी बहुत मज़बूती से विपक्षी दलों के बीच एकता पर ज़ोर देने लगे हैं।
हरकिशन सिंह सुरजीत की मृत्यु के बाद के इन वर्षों में सोनिया गाँधी ही विपक्ष की एकता या बैठकों की धुरी रही हैं। लेकिन अब राहुल गाँधी वह स्थान लेते दिख रहे हैं। बीच में ऐसा लगा था कि शायद शरद पवार यह जगह ले लेंगे, लेकिन उनकी आयु और सेहत शायद उन्हें बहुत सक्रिय रहने की इजाज़त नहीं देती। बीच में तो उनके राष्ट्रपति / उप राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन जुटाने की ख़बरें भी सोशल मीडिया में फैलीं। ख़ुद पवार ने हालाँकि ऐसी किसी कोशिश से इन्कार किया। ऐसे में राहुल का विपक्षी एकता का केंद्र बनना बहुत हैरानी पैदा नहीं करता।
कांग्रेस के भीतर भी राहुल गाँधी अपनी माँ सोनिया गाँधी की छाया से बाहर निकल चुके हैं; भले पार्टी के फ़ैसलों पर अध्यक्ष के नाते अन्तिम मुहर वही लगाती हैं। हाल के महीनों में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति राहुल गाँधी की पसन्द से ही हुई है। पार्टी के राज्य नेताओं में भी अब ख़ुद को राहुल गाँधी के नज़दीक दिखाने का चलन बढ़ा है, जो ज़ाहिर करता है कि ये आम कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता अब राहुल को ही नेता के रूप में देखने लगे हैं। हाल में राहुल के नाश्ते में शामिल एक विपक्षी नेता ने ‘तहलका’ बातचीत में राहुल के प्रति अपने अनुभव को लेकर कहा- ‘वह ज़ोर देकर यह कहते हैं कि आरएसएस (और भाजपा) के ख़िलाफ़ साथ काम करने की सख़्त ज़रूरत है। वह यह भी कहते हैं कि ऐसा किया जा सकता है। राहुल दूसरे नेताओं से उनके विचार जानने को उत्सुक रहते हैं। उनका व्यवहार दूसरे नेताओं के प्रति बहुत सम्मान भरा होता है और वह आकर्षित करते हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि यदि राहुल पूरी गम्भीरता से मैदान में जुट जाएँ, तो वह भाजपा के लिए बड़ी राजनीतिक चुनौती बनने की क्षमता रखते हैं।’
विपक्षी नेताओं के मुताबिक, यह राहुल गाँधी ही थे, जिन्होंने पेगासस जैसे गम्भीर मामले पर विपक्ष को एकजुट किया। कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खडग़े के संसद कक्ष में हुई बैठक की पूरी ज़िम्मेदारी राहुल गाँधी ने ही सँभाली थी। बाद में पत्रकार वार्ता (प्रेस कॉन्फ्रेंस) में भी मुख्य तौर पर राहुल गाँधी के सम्बोधन के बावजूद उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि दूसरे नेता भी वहाँ बोलें, ताकि विपक्ष का वृहद् प्रतिनिधित्व उजागर हो। संसद के भीतर भी राहुल गाँधी अन्य दलों के नेताओं से सम्पर्क बढ़ाने की कोशिश करने लगे हैं। पेगासस मुद्दे पर उन्होंने (राहुल) अन्य दलों के नेताओं से सदन के भीतर भी जिस तरह चर्चा की वह एक बदले हुए राहुल गाँधी के दर्शन करवाता है। एक सांसद ने कहा- ‘राहुल गाँधी ने संसद सत्र के दौरान साइकिल यात्रा का प्रस्ताव ही नहीं दिया, बल्कि उसका नेतृत्व भी किया। यह पहले नहीं दिखता था। राहुल में यह बदलाव स्वागत योग्य है।’
राहुल के सामने चुनौती संसद के बाहर विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की रहेगी। कुछ मुद्दों पर संसद भीतर सहमति बनाना ज़रूर सफल रहा है। एक वृहद् लक्ष्य के लिए सभी दलों को एक छतरी के नीचे लाने में अभी समय लगेगा। इसमें दो-राय नहीं कि राहुल ने एक बेहतर शुरुआत की है। आने वाले समय में उनकी कोशिश विपक्ष के ख़ेमे को और विस्तार देने की रहेगी। साथ ही अपने नेतृत्व को विपक्ष के बीच और मज़बूत करने के कोशिश भी राहुल को करनी होगी। यह थोपा नहीं जा सकता, बल्कि भरोसे और कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में जीत दिलवाकर ही हो सकता है। लिहाज़ा राहुल के लिए यह बहुत ज़रूरी रहेगा कि विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस को जितवाकर चुनावी रूप से सफल नेता की अपनी छवि भी मज़बूत करें। आख़िर विपक्ष राहुल को एक करिश्माई नेता होने के नाते ही तो उन्हें अपना नेता मानने की हिम्मत दिखाएगा।
ममता की तैयारी
राहुल की ही तरह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी ख़ुद को राष्ट्रीय भूमिका के लिए तैयार करती दिख रही हैं। लिहाज़ा यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में ख़ुद ममता का राष्ट्रीय भूमिका को लेकर क्या रूख़ रहता है? लेकिन अगस्त के दूसरे हफ़्ते ममता बनर्जी को टीएमसी के संसदीय दल का नेता चुन लिया जाना बहुत दिलचस्प फ़ैसला कहा जाएगा। राजनीति के लिहाज़ से यह एक बड़ा, हैरान करने वाला और अहम फ़ैसला है। क्योंकि ममता न लोकसभा की सदस्य हैं। न लोकसभा या राज्यसभा की ही सदस्य हैं। क्या माना जाए कि आने वाले समय में वह राज्यसभा या लोकसभा में आ सकती हैं? ममता बनर्जी की अपने इस चयन पर टिप्पणी भी बहुत दिलचप्स थी। उन्होंने कहा- ‘क्योंकि वो मुझसे प्यार करते हैं।’ बनर्जी ने भविष्य में केंद्रीय स्तर पर राजनीति करने को लेकर कहा- ‘मैं कोई राजनीतिक ज्योतिषी नहीं हूँ। ये सब कुछ सिचुएशन (परिस्थिति), सिस्टम (तंत्र) और स्ट्रक्चर (संरचना) पर निर्भर करता है।’
ज़ाहिर है आगामी पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद विपक्ष स्थिति को देखकर नेतृत्व को लेकर किसी एक बिन्दु पर फोकस करेगा और नेतृत्व के निर्णय पर पहुँचने का प्रयास करेगा।
विपक्ष की बैठक
राहुल गाँधी जब जम्मू-कश्मीर के दौरे पर थे, उसी शाम कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल विपक्षी पार्टी के नेताओं के साथ अपने घर पर रात्रि भोज (डिनर) का आयोजन कर रहे थे। इस रात्रि भोजन में 15 पार्टियों के क़रीब 45 नेता और सांसद शामिल हुए; जिसमें लम्बे समय तक जेल में रहने वाले लालू यादव, शरद पवार, अखिलेश यादव, डेरेक ओब्रायन, सीताराम येचुरी और संजय राउत जैसे नेता शामिल थे। इसके अलावा बीजेडी के पिनाकी मिश्रा, अकाली दल के नरेश गुजराल और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह, सपा से राम गोपाल यादव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के महासचिव सीताराम येचुरी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव डी. राजा, नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला, बीजू जनता दल के नेता अमर पटनायक, द्रमुक (द्रविड़ मुनेत्र कषगम) के तिरुचि शिवा और टी.के. एलनगोवन, रालोद (राष्ट्रीय लोक दल) के जयंत चौधरी और टीआरएस (तेलंगाना राष्ट्र समिति)के नेता भी शामिल हुए। वहीं कांग्रेस के गुलाम नबी आज़ाद, पी. चिदंबरम, भूपिंदर सिंह हुड्डा, आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, पृथ्वीराज चव्हाण, मनीष तिवारी और शशि थरूर शामिल थे। विदित हो कि राहुल गाँधी के नाश्ते पर आम आदमी पार्टी न्यौता पाकर भी नहीं गयी थी। सिब्बल की इस रात्रि भोज बैठक में आगामी 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2024 के आम चुनाव में विपक्षी एकता मज़बूत करने की बात हुई। भाजपा को निशाने पर रखा गया।