केन्द्र सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) को अंतिम रूप दे रही है। सभी हितधारकों से मिलने वाले सुझावों के बाद जल्द ही इसे अनुमोदन के लिए प्रस्तुत किये जाने की सम्भावना है। मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ने दिसंबर में राज्यसभा में एक लिखित जवाब में इसकी पुष्टि की।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार, ड्राफ्ट पॉलिसी में शिक्षा में सार्वजनिक निवेश के रूप में सकल घरेलू उत्पाद का 6 फीसदी खर्च करने का सुझाव दिया गया है। गौरतलब है कि 1968 में पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) में भी शिक्षा के लिए सार्वजनिक व्यय जीडीपी का 6 फीसदी रखने की सिफारिश की गयी थी, जिसे 1986 में दूसरे एनईपी में भी दोहराया गया था।
वर्ष 2017-18 में भारत में शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय जीडीपी का महज़2.7 फीसदी था। मसौदा नीति में कहा गया है कि शिक्षा पर निवेश को कुल सार्वजनिक व्यय के वर्तमान 10 फीसदी से अगले 10 साल में दोगुना करके 20 फीसदी कर दिया जाए। अतिरिक्त 10 फीसदी व्यय में से 5 फीसदी का उपयोग विश्वविद्यालयों और कॉलेजों (उच्च शिक्षा) के लिए किया जाएगा, 2 फीसदी का उपयोग स्कूल शिक्षा में अतिरिक्त शिक्षक लागत या संसाधनों के लिए किया जाएगा और 1.4 फीसदी का उपयोग बच्चों की देखभाल और शिक्षा के लिए किया जाएगा।
समिति ने निधियों के वितरण में परिचालन सम्बन्धी समस्याओं और लीकेज का भी अवलोकन किया है। उदाहरण के लिए यह देखा गया है कि शिक्षा और प्रशिक्षण के ज़िला संस्थानों में लगभग 45 फीसदी रिक्तियाँ हैं, जिसके कारण उनके आवंटन का उपयोग नहीं किया जा रहा है या अप्रभावी रूप से किया जा रहा है। यह संस्थागत विकास योजनाओं के माध्यम से धन के सर्वोत्तम और समय पर उपयोग की सिफारिश करता है।
अब जबकि प्रस्तावित नयी शिक्षा नीति को अंतिम रूप दिया जाना बाकी है, शिक्षण में बहु-विषयक दृष्टिकोण को ताकत देने और नयी पीढ़ी को संवेदनशील बनाने के लिए, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को 2019-20 से देश भर के स्कूलों में एक विषय के रूप में रखा गया है। सीबीएसई ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए कई संगठनों जैसे इंटेल, आईबीएम और माइक्रोसॉफ्ट आदि के साथ अनुबंध किया है।
मंत्री ने यह भी पुष्टि की कि डॉ. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शैक्षिक नीति के मसौदे पर हितधारकों और अलग-अलग मंत्रालयों और राज्य सरकारों से सुझाव प्राप्त हुए हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 का मसौदा पहुँच, बराबरी, गुणवत्ता, उपलब्धता और उत्तरदायित्व जैसे आधार स्तम्भों पर बनाया गया है। नयी नीति का उद्देश्य स्कूल शिक्षा पाठ्यक्रम में पुस्तकों के भार को कम करना है। यह सक्रिय शिक्षाशास्त्र को भी बढ़ावा देता है, जो मुख्य क्षमताओं, जीवन कौशल के विकास पर केन्द्रित होगा, जिसमें 21वीं सदी के कौशल भी शामिल होंगे।
उन्होंने बताया कि स्कूलों को फिर से परिसरों में व्यवस्थित किया जाएगा। इससे स्कूल शिक्षा पाठ्यक्रम में सामग्री भार को कम करने में मदद मिलेगी। इससे शिक्षा शास्त्र को भी बढ़ावा मिलता है, जो 21वीं सदी के कौशल सहित मुख्य क्षमताओं, जीवन कौशल के विकास पर ध्यान केन्द्रित करेगा। उन्होंने खुलासा किया कि इस नीति को देश में शिक्षा से जुड़ी लगभग हर आवाज़को ध्यान में रखकर विकसित किया गया है। हमने 1,10,000 ग्राम समितियों से सुझाव लिए हैं। यहाँ तक कि जनता से 2,00,000 से अधिक सुझाव मिले हैं। उन्होंने कहा कि हम भाग्यशाली हैं कि सभी ने अब तक नयी नीति की सराहना की है और प्रयासों का समर्थन किया है।
मंत्रालय केन्द्र की एक योजना ‘पंडित मदन मोहन मालवीय राष्ट्रीय मिशन ऑन टीचर्स एंड टीचिंग’ को लागू कर रहा है, जिसका उद्देश्य शिक्षकों के बेहतर और पेशेवर बनाना है। जो शिक्षकों के शिक्षण और व्यावसायिक विकास के लिए शीर्ष श्रेणी की संस्थागत सुविधाओं का निर्माण करता है। मौज़ूदा केन्द्रीय, राज्य और मानद (सम) विश्वविद्यालय/शैक्षिक संस्थान योजना के विभिन्न घटकों के तहत केन्द्र के रूप में अनुमोदित हैं और निजी संस्थानों में शिक्षक विभिन्न क्षमता निर्माण कार्यक्रमों के साथ-साथ प्रेरणादायक प्रशिक्षण में भी भाग ले सकते हैं।
इसके अलावा, शिक्षण में सालाना युवा कार्यक्रम, एमओओसी प्लेटफॉर्म- स्वयं का उपयोग करके उच्च शिक्षा संकाय के ऑनलाइन पेशेवर विकास की एक बड़ी और अनूठी पहल को कार्यान्वित किया जा रहा है। इसके लिए अनुशासन-विशिष्ट संस्थानों को राष्ट्रीय संसाधन केन्द्र के रूप में पहचाना और अधिसूचित किया गया है, जिसे संशोधित पाठ्यक्रम को हस्तांतरित करने के लिए अनुशासन, नये और उभरते रुझानों, शैक्षणिक सुधार और कार्यप्रणाली में नवीनतम विकास पर ध्यान केन्द्रित करने के साथ ऑनलाइन प्रशिक्षण सामग्री तैयार करने का काम सौंपा गया है। इसके अलावा, उच्च शिक्षा में शिक्षण की गुणवत्ता में सुधार के लिए विभिन्न योजनाओं, राष्ट्रीय उच्च्तर शिक्षा अभियान (आरयूएसए), शिक्षा के लिए वैश्विक पहल (जीआईएएन), तकनीकी शिक्षा गुणवत्ता सुधार कार्यक्रम (टीईक्यूआईपी) को लागू किया जा रहा है। यूजीसी और एआईसीटीई द्वारा उच्च और तकनीकी शिक्षा में शिक्षण की गुणवत्ता में सुधार के लिए कई पहल की जाती हैं।
स्कूली शिक्षा के सम्बन्ध में शिक्षकों की भर्ती और सेवा शर्तेें मुख्य रूप से राज्य सरकारों/संघ राज्य क्षेत्र प्रशासनों के क्षेत्र में हैं। केन्द्र सरकार समागम शिक्षा की केन्द्र प्रायोजित योजना के माध्यम से सहायता प्रदान करती है। अपनी ज़रूरत के हिसाब से राज्य/केन्द्रशासित प्रदेश उपयुक्त शिक्षक-छात्र अनुपात को बनाये रखने के लिए अतिरिक्त शिक्षकों प्रयासरत हैं। शिक्षकों के बेहतर काम करने और उनमें सुधार के लिए केन्द्र सरकार के उठाए अन्य कदमों में नियमित रूप से सेवा शिक्षकों के प्रशिक्षण, नये भर्ती किये गये शिक्षकों के लिए प्रेरणास्रोत प्रशिक्षण, शिक्षकों के लिए शैक्षणिक सहयोग और स्कूल प्रबन्धन समितियों/स्कूल प्रबंधन विकास समितियों के माध्यम से शिक्षकों की उपस्थिति की निगरानी के अलावा ब्लॉक संसाधन केन्द्र/क्लस्टर संसाधन केन्द्र और राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को स्कूलों में बायोमैट्रिक अटेंडेंस सिस्टम की स्थापना जैसी डिजिटल तकनीक का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित आदि, देना शामिल हैं।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (एनसीईआरटी) ने सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा के लिए शिक्षक के प्रदर्शन और उपस्थिति को ट्रैक करने के लिए प्रदर्शन संकेतक विकसित किये हैं। शिक्षक के प्रदर्शन का आकलन करने के लिए राज्य सरकारों/संघ शासित प्रदेशों के साथ तकनीक साझा की गयी है।
इसके अलावा भारत में शिक्षकों के लिए शिक्षा कार्यक्रमों में गुणात्मक सुधार लाने के लिए चार वर्षीय बीएड एकीकृत पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। इस पाठ्यक्रम के लिए तैयार किये गये मॉडल पाठ्यक्रम में लिंग, समावेशी शिक्षा, आईसीटी, योग, वैश्विक नागरिकता शिक्षा (जीसीईडी) और स्वास्थ्य और स्वच्छता जैसे महत्त्वपूर्ण पहलू शामिल हैं। शिक्षण विशेषज्ञता मुख्य रूप से प्राथमिक स्तर और माध्यमिक स्तर के लिए होगी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय और राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् (एनसीटीई) ने शिक्षक शिक्षा (एनसीटीई) के लिए दीक्षा जैसा समर्पित डिजिटल मॉडल विकसित किया है, जिसका उद्देश्य देश के स्कूली शिक्षकों को नवीन तकनीक आधारित समाधानों की पहुँच के साथ सशक्त बनाना है। दीक्षा एक अनूठी पहल है, जो प्रभावी शिक्षण और प्रशासन के लिए शिक्षकों की ज़रूरतों के हिसाब से डिजिटल बुनियादी ढाँचा प्रदान करती है।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार, डॉ. के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा नीति मसौदा समिति एक शिक्षा नीति का प्रस्ताव तैयार किया है। वर्तमान शिक्षा-नीति में पहुँच, बराबरी, गुणवत्ता, उपलब्धता और उत्तरदायित्व जैसे सिद्धांतों के सामने पेश होने वाली चुनौतियों का समाधान का निदान करती है। मसौदा नीति में स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक सभी स्तरों पर सुधारों का प्रावधान है। यह बच्चों की देखभाल पर ध्यान बढ़ाने, वर्तमान परीक्षा प्रणाली में सुधार, शिक्षक प्रशिक्षण को मज़बूत करने और शिक्षा नियामक ढाँचे के पुनर्गठन की कोशिश करती है। इसमें राष्ट्रीय शिक्षा आयोग की स्थापना, शिक्षा में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने, प्रौद्योगिकी के उपयोग को मज़बूत करने और व्यावसायिक और प्रौढ़ शिक्षा के साथ लोगों पर फोकस किया गया है।
प्राथमिक शिक्षा
प्रस्तावित शिक्षा नीति ने शिक्षा तक पहुँच न होने के अतिरिक्त यह गौर भी किया कि मौज़ूदा शिक्षण कार्यक्रमों में भी क्वालिटी सम्बन्धी अनेक कमियाँ हैं। इनमें ऐसे पाठ्यक्रम, जो बच्चे की विकास सम्बन्धी ज़रूरतों को पूरा नहीं करते, योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव और शिक्षण का निम्न स्तर को भी रखा गया है। वर्तमान में आँगनबाडिय़ों और निजी प्री-स्कूलों के ज़रिये अधिकतर बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती है। हालाँकि शुरुआती देखभाल में शैक्षणिक पहलू पर कम ध्यान दिया जाता है। इसीलिए मसौदा नीति में प्रारम्भिक देखभाल और शिक्षा के लिए दो स्तरीय पाठ्यक्रम विकसित करने का सुझाव दिया गया है। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं- तीन वर्ष तक के बच्चों के लिए दिशा-निर्देश (ये दिशा-निर्देश माता-पिता और शिक्षकों के लिए हैं।), और तीन से आठ वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा सम्बन्धी फ्रेमवर्क। इन्हें लागू करने के लिए आँगनबाड़ी प्रणाली में सुधार किया जाए और उन्हें व्यापक बनाया जाए, और आँगनबाडिय़ों को प्राथमिक स्कूलों के परिसर में शिफ्ट किया जाए।
वर्तमान में आरटीई एक्ट के तहत 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है। मसौदा नीति इस बात का सुझाव देती है कि आरटीई के दायरे को बढ़ाया जाए, ताकि बचपन की प्रारम्भिक शिक्षा और माध्यमिक स्कूली शिक्षा को इसमें शामिल किया जा सके। इससे एक्ट के दायरे में तीन से 18 वर्ष तक के बच्चे शामिल हो जाएँगे। इसके अतिरिक्त समिति ने सुझाव दिया है कि आरटीई एक्ट में निरंतर और व्यापक मूल्यांकन तथा नो डिटेंशन पॉलिसी से सम्बन्धित संशोधनों की समीक्षा की जाए। समिति ने कहा कि कक्षा आठ तक के बच्चों को फेल नहीं किया जाना चाहिए। इसके बजाय स्कूलों को सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चों को उनकी आयु के अनुकूल उचित स्तर की शिक्षा मिले।
बच्चों की विकास सम्बन्धी ज़रूरतों को देखते हुए स्कूली शिक्षा की मौज़ूदा प्रणाली को एक बार फिर से बनाया जाना चाहिए। इसका डिजाइन 5-3-3-4 के आधार पर तैयार किया जाना चाहिए, जिनमें निम्नलिखित शामिल हों :- (1) पाँच वर्ष का आधारभूत चरण (तीन वर्ष की प्री-प्राइमरी से कक्षा एक और दो तक), (2) तैयारी के तीन वर्ष- कक्षा तीन से कक्षा पाँच तक), (3) माध्यमिक चरण के तीन वर्ष (कक्षा छ: से कक्षा आठ तक) और (4) माध्यमिक चरण के चार वर्ष (कक्षा नौ से कक्षा 12 तक)।
समिति ने कहा कि मौज़ूदा शिक्षा प्रणाली का पूरा ध्यान सिर्फ तथ्यों और प्रक्रियाओं के रटने पर नहीं है। इसलिए उसने सुझाव दिया कि प्रत्येक विषय में पाठ्यक्रम का भार कम किया जाए और ज़रूरी मुख्य कंटेंट पर ही ध्यान दिया जाए। इससे समग्र, चर्चा और चर्चा आधारित शिक्षा के लिए गुंजाइश बनेगी।
इस समिति ने कहा कि मौज़ूदा बोर्ड परीक्षाओं के कारण निम्न हैं- (1) बच्चे कुछ ही विषयों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, (2) शिक्षण की रचनात्मक तरीके से परीक्षा नहीं हो पाती और (3) विद्याॢथयों को तनाव होता है। स्कूल में बच्चे की प्रगति की निगरानी करने के लिए मसौदा नीति में कक्षा तीन, पाँच और आठ में राज्य के हिसाब से परीक्षाओं का प्रस्ताव है। इसके अतिरिक्त समिति ने केवल मुख्य कॉन्सेप्ट्स, कौशल और उच्च श्रेणी की दक्षता की जाँच के लिए बोर्ड परीक्षाओं के पुनर्गठन का सुझाव दिया है। इससे विद्यार्थी अनेक प्रकार के विषयों की परीक्षाएँ दे पाएँगे। वे अपने विषय और सेमेस्टर चुनेंगे, ताकि वे तब परीक्षा दें, जब देना चाहें। ये परीक्षाएँ स्कूलों की अपनी फाइनल परीक्षाओं का स्थान लेंगी।
समिति ने कहा कि देश के हर इलाके में प्राथमिक स्कूल बनाने से शिक्षा तक लोगों की पहुँच बढ़ी है। हालाँकि इससे बहुत छोटे स्कूल भी स्थापित किये गये हैं (जहाँ विद्यार्थियों की संख्या बहुत कम है। स्कूल छोटे होने से उसे संचालित करना मुश्किल होता है। इसका असर शिक्षकों की तैनाती और भौतिक संसाधनों की उपलब्धता पर पड़ता है। इसलिए मसौदा नीति यह सुझाव देती है कि कई सरकारी स्कूलों को मिलाकर एक स्कूल परिसर बनाया जाए। एक परिसर में एक माध्यमिक स्कूल (कक्षा नौ से 12) और आस-पड़ोस के ऐसे सभी सरकारी स्कूल आने चाहिए, जो कि प्री-प्राइमरी से लेकर कक्षा आठ तक की शिक्षा प्रदान करते हैं।
स्कूल परिसरों में आँगनबाडिय़ाँ, व्यावसायिक शिक्षा केन्द्र और प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र भी शामिल होंगे। प्रत्येक स्कूल परिसर एक अर्ध-स्वायत्त इकाई होगी, जिसमें बाल्यावस्था से लेकर माध्यमिक शिक्षा- यानी शिक्षा के सभी चरणों में एकीकृत शिक्षा प्रदान करेंगी। इससे यह सुनिश्चित होगा कि संसाधनों, जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर और प्रशिक्षित शिक्षकों को स्कूल परिसर में प्रभावी रूप से साझा किया जा सके।
शिक्षकों का प्रबन्धन
समिति ने कहा कि शिक्षकों की संख्या कम है और पेशेवर तौर पर प्रशिक्षित शिक्षकों का भी अभाव है। साथ ही गैर-शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए शिक्षकों की तैनाती की जाती है। मसौदा नीति में सुझाव दिया गया है कि एक शिक्षक को एक स्कूल परिसर में कम-से-कम पाँच से सात वर्ष तक तैनात किया जाए। इसके अतिरिक्त शिक्षकों को स्कूली घंटों के दौरान गैर-शैक्षणिक गतिविधियों में भाग लेने (जैसे मिड-डे मील पकाने या टीकाकरण अभियानों में हिस्सा लेने) की अनुमति नहीं होगी, जो कि उनकी शिक्षण क्षमताओं को प्रभावित कर सकती है।
शिक्षकों के शिक्षण के लिए मौज़ूदा बीएड प्रोग्राम को चार वर्ष के एकीकृत बीएड प्रोग्राम से रिप्लेस किया जाएगा, जिसमें उच्च क्वालिटी का कंटेंट, शिक्षण का स्तर और व्यावहरिक प्रशिक्षण शामिल होगा। सभी विषयों के लिए निरंतर एकीकृत पेशेवर विकास को भी विकसित किया जाएगा। शिक्षकों से हर वर्ष न्यूनतम 50 घंटे के निरंतर पेशेवर विकास प्रशिक्षण को पूरा करने की अपेक्षा की जाएगी।
मसौदा नीति स्कूलों के रेगुलेशन को नीति निर्धारण, स्कूल के संचालन और शैक्षणिक विकास जैसे पहलुओं से अलग करने का सुझाव देती है। सुझाव दिया गया है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक स्वतंत्र राज्य स्कूल रेगुलेटरी अथॉरिटी की स्थापना की जाए, जो सरकारी और निजी स्कूलों के लिए बुनियादी यूनिफॉर्म स्टैंडडर्स को निर्धारित करेगी। राज्य के शिक्षा विभाग नीतियाँ बनाएँगे और निरीक्षण करेंगे।
उच्च शिक्षा
अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में उच्च शिक्षा में सकल दािखला अनुपात (जीईआर) 2011-12 में 20.8 फीसदी से बढक़र 2017-18 में 25.8 फीसदी हो गया। समिति ने कहा कि देश में उच्च शिक्षा में निम्न दािखले का मुख्य कारण यह है कि उस तक लोगों की पहुँच नहीं है। उसने जीईआर के 25.8 फीसदी के मौज़ूदा स्तर को 2035 तक 50 फीसदी करने का लक्ष्य निर्धारित किया।
समिति ने कहा कि मौज़ूदा उच्च शिक्षा प्रणाली में बहुत से रेगुलेटर हैं और उनके मैन्डेट्स ओवरलैप होते हैं। इससे उच्च शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता पर असर होता है और निर्भरता तथा केन्द्रीकृत नीति निर्धारण का वातावरण तैयार होता है। इसलिए समिति ने राष्ट्रीय उच्च शिक्षा रेगुलेटरी अथॉरिटी (एनएचईआरए) की स्थापना का प्रस्ताव रखा। यह स्वतंत्र अथॉरिटी उच्च शिक्षा के रेगुलेटरों का स्थान लेगी, जिसमें पेशेवर और व्यावासियक शिक्षा के रेगुलेटर भी शामिल हैं। इसका अर्थ यह है कि सभी पेशेवर परिषदों, जैसे एआईसीटीई और भारतीय बार काउंसिल की भूमिका केवल पेशेवर प्रैक्टिस के लिए मानदंड बनाने तक सीमित हो जाएगी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का काम भी केवल उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुदान देने तक सीमित होगा।
वर्तमान में नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रेडेशन काउंसिल (एनएएसी) एक एक्रेडेटड निकाय है, जो यूजीसी के अंतर्गत आती है। मसौदा नीति ने एनएएसी को यूजीसी से अलग करके एक स्वतंत्र और स्वायत्त निकाय बनाने का सुझाव दिया है। इस भूमिका में एनएएसी टॉप लेवल की एक्रेडेटर के तौर पर काम करेगी और विभिन्न एक्रेडिटेशन संस्थानों को लाइसेंस जारी करेगी, जो कि उच्च शिक्षण संस्थानों का हर पाँच से सात वर्षों में एक बार मूल्यांकन करेगी। सभी मौज़ूदा शिक्षण संस्थानों का एक्रेडेशन 2030 तक हो जाना चाहिए।
वर्तमान में उच्च शिक्षण संस्थान केवल संसद या राज्य कानूनों के ज़रिये स्थापित किये जा सकते हैं। मसौदा नीति प्रस्तावित करती है कि इन संस्थानों को एनएचईआरए से हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूशन चार्टर के ज़रिये स्थापित करने की अनुमति दी जा सकती है। इस चार्टर को कुछ विशिष्ट मानदंडों के पारदर्शी मूल्यांकन के आधार पर प्रदान किया जाएगा। सभी नये उच्च शिक्षण संस्थानों को स्थापना के पाँच वर्षों के भीतर एनएचईआरए से मान्यता हासिल हो जानी चाहिए।
उच्च शिक्षण संस्थानों को तीन श्रेणियों में पुनर्गठित किया जाएगा :- (1) शोध विश्वविद्यालय, जो कि शोध और शिक्षण दोनों पर ध्यान केन्द्रित करेंगे, (2) शिक्षण विश्वविद्यालय, जो कि शिक्षण पर मुख्य रूप से ध्यान केन्द्रित करेंगे; लेकिन महत्त्वपूर्ण शोध भी करेंगे और (3) कॉलेज, जो कि केवल अंडरग्रेजुएट शिक्षा देंगे। धीरे-धीरे इन सभी को पूर्ण शैक्षणिक, प्रशासनिक और वित्तीय स्वायत्तता दी जाएगी।
राष्ट्रीय शोध प्रतिष्ठान की स्थापना
समिति ने गौर किया कि भारत में शोध और नवाचार में कुल निवेश 2008 में 0.84 फीसदी के मुकाबले गिरकर 2014 में 0.69 फीसदी रह गया। भारत दूसरे देशों की तुलना में शोधार्थियों (प्रति लाख आबादी में), अभिभावकों और प्रकाशनों के लिहाज़से भी पिछड़ा हुआ है।
शोध पर फोकस
समिति ने गौर किया कि भारत में शोध और नवाचार में कुल निवेश 2008 में 0.84 फीसदी के मुकाबले गिरकर 2014 में 0.69 फीसदी रह गया।
मसौदा नीति ने राष्ट्रीय शोध प्रतिष्ठान की स्थापना का सुझाव दिया है, जो कि एक स्वायत्त निकाय होगा, ताकि भारत में उच्च स्तरीय शोध के लिए फंडिंग, मेंटरिंग और क्षमता निर्माण किया जा सके।
प्रतिष्ठान के चार प्रमुख प्रभाग होंगे
विज्ञान, तकनीक, सामाजिक विज्ञान और आट्र्स एवं ह्यूमैनिटीज। इसमें और प्रभाग जोड़े जा सकते हैं। प्रतिष्ठान को 20,000 करोड़ रुपये (जीडीपी का 0.1 फीसदी) का वार्षिक अनुदान प्रदान किया जाएगा।
मसौदा नीति सुझाव देती है कि अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम्स को बहु-अनुशासनिक (इंटरडिसिपलिनरी) बनाया जाए। इसके लिए इनके पाठ्यक्रम को दोबारा बनाना होगा, ताकि निम्नलिखित को शामिल किया जा सके :- (क) एक समान मुख्य पाठ्यक्रम और (ख) स्पेशलाइजेशन के एक/दो क्षेत्र। विद्यार्थियों को स्पेशलाइजेशन के लिए एक क्षेत्र को ‘मेजर’ और वैकल्पिक क्षेत्र को ‘माइनर’ के तौर पर चुनना होगा।
लिबरल आट्र्स में चार साल के अंडरग्रेजुएट कार्यक्रम शुरू किये जाएँगे और विद्यार्थियों को उचित सर्टिफिकेशन के साथ एक से अधिक निकास विकल्प (एक्जिट ऑप्शन्स) मुहैया कराये जाएँगे। इसके अतिरिक्त अगले पाँच वर्षों में लिबरल आट्र्स के पाँच भारतीय संस्थानों को बहु-अनुशासनिक लिबरल आट्र्स के मॉडल संस्थानों के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए।
फैकल्टी प्रोत्साहन
समिति ने गौर किया कि उच्च शिक्षण संस्थानों में काम करने की खराब स्थितियाँ और शिक्षण के अत्यधिक दबाव से शिक्षकों का मनोबल गिरा है। इसके अतिरिक्त स्वायत्तता की कमी और करियर में प्रगति की व्यवस्थित प्रणाली न होने का भी असर हुआ है। मसौदा नीति सुझाव देती है कि सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में 2030 तक फैकल्टी के लिए निरंतर पेशेवर विकास कार्यक्रम विकसित किया जाए और स्थायी रोज़गार (टैन्योर) ट्रैक प्रणाली की शुरुआत की जाए। इसके अतिरिक्त अधिकतम 30-1 के विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात को सुनिश्चित किया जाए।
समिति ने कहा कि पाठ्यक्रम गैर-लचीला, संकुचित और पुराना है। हालाँकि, फैकल्टी के पास अक्सर पाठ्यक्रम डिजाइन करने की स्वायत्तता नहीं होती, जिसका शिक्षण के स्तर पर नकारात्मक असर होता है। समिति ने सुझाव दिया था कि सभी उच्च शिक्षण संस्थानों को पाठ्यक्रम, शिक्षण और संसाधन से सम्बन्धित मामलों में पूरी स्वायत्तता मिलनी चाहिए।
शिक्षा में गवर्नेेंस
समिति ने कहा कि शिक्षा में गवर्नेेंस की मौज़ूदा प्रणाली पर पुनर्विचार तथा विभिन्न मंत्रालयों, विभागों और संस्थाओं के बीच सिनर्जी एवं समन्वय कायम करने की ज़रूरत है। इस सम्बन्ध में समिति ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं –
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग की स्थापना, जो कि शिक्षा का एपेक्स निकाय होगा। यह निकाय निरंतर और सतत आधार पर देश में शिक्षा के दृष्टिकोण को विकसित करने, उसे लागू करने, उसका मूल्यांकन करने और उस पर पुनर्विचार करने के लिए ज़िम्मेदार होगा। वह राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (एनसीईआरटी), प्रस्तावित राष्ट्रीय उच्च शिक्षा रेगुलेटरी अथॉरिटी तथा राष्ट्रीय शोध प्रतिष्ठान सहित अनेक निकायों के कामकाज और उनके कार्यान्वयन की निगरानी करेगा।
मानव संसाधन और विकास मंत्रालय को दोबारा शिक्षा मंत्रालय नाम दिया जाना चाहिए, ताकि शिक्षा पर फिर से ध्यान केन्द्रित किया जा सके।
शिक्षा का वित्त पोषण
मसौदा नीति ने शिक्षा में 6 फीसदी सरकारी व्यय की प्रतिबद्धता को दोहराया। उल्लेखनीय है कि पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनयीपी) 1968 ने शिक्षा में जीडीपी के 6 फीसदी व्यय का सुझाव दिया था, जिसे 1986 में दूसरे एनयीपी ने दोहराया था। 2017-18 में भारत में शिक्षा पर सरकारी व्यय जीडीपी का 2.7 फीसदी था।
शिक्षा पर कुल सार्वजनिक व्यय 10 फीसदी है। मसौदा नीति इस दर को अगले 10 वर्षों में दोगुना करके 20 फीसदी करने का प्रयास करती है। अतिरिक्त 10 फीसदी में से 5 फीसदी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों (उच्च शिक्षा) पर खर्च किया जाएगा, 2 फीसदी अतिरिक्त स्कूली शिक्षा में शिक्षकों की लागत या संसाधनों पर और 1.4 फीसदी बच्चों की शुरुआती देखभाल और शिक्षा पर खर्च किया जाएगा।
समिति ने परिचालनगत समस्याओं और धनराशि के वितरण में लीकेज पर गौर किया। उदाहरण के लिए यह गौर किया गया कि ज़िला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों में लगभग 45 फीसदी रिक्तियाँ हैं, जिनके कारण उनके आवंटनों का इस्तेमाल नहीं किया गया या प्रभावी तरीके से इस्तेमाल नहीं हुआ। समिति ने संस्थागत विकास योजनाओं के ज़रिये धनराशि के अधिकतम और यथासमय उपयोग का सुझाव दिया।
शिक्षा में तकनीक
समिति ने गौर किया कि तकनीक निम्नलिखित में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है :- (क) कक्षाओं में सीखने, सिखाने और मूल्यांकन की प्रक्रिया में सुधार करना, (ख) शिक्षकों को तैयार करने और उनके निरंतर पेशेवर विकास में सहायता देना, (ग) सुदूर क्षेत्रों तथा वंचित समूहों में शिक्षा तक पहुँच बढ़ाना, और (घ) समूची शिक्षा प्रणाली की योजना, प्रशासन और प्रबन्धन में सुधार करना। समिति सभी शिक्षण संस्थानों के बिजलीकरण का सुझाव देती है, चूँकि बिजली तकनीक आधारित कार्यक्रमों की पूर्व शर्त है।
सूचना एवं संचार तकनीक के ज़रिये राष्ट्रीय शिक्षा अभियान में वर्चुअल प्रयोगशालाएँ शामिल हैं, जिनके ज़रिये विभिन्न विषयों की प्रयोगशालाओं का दूर बैठे भी फायदा उठाया जा सकता है। इस अभियान के अंतर्गत राष्ट्रीय शिक्षा तकनीकी मंच का गठन भी किया जाएगा। यह एक स्वायत्त निकाय होगा और तकनीक को शुरू, स्थापित और प्रयोग करने से सम्बन्धित फैसले लेने में मदद करेगा। यह मंच तकनीक आधारित कार्यक्रमों के सम्बन्ध में केन्द्र और राज्य सरकारों को प्रमाण आधारित परामर्श देगा। इसमें राष्ट्रीय रेपोजिटरी की स्थापना का सुझाव दिया गया है। इसका मुख्य कार्य संस्थानों, शिक्षकों और विद्यार्थियों से सम्बन्धित रिकॉड्र्स का डिजिटल प्रारूप में रखरखाव करना होगा। इसके अतिरिक्त एक सिंगल ऑनलाइन डिजिटल रेपोजिटरी बनायी जाएगी, जहाँ कॉपीराइट मुक्त शैक्षणिक संसाधन विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध होंगे।
व्यावसायिक शिक्षा
समिति ने कहा कि 19-24 आयु वर्ग के 5 फीसदी से भी कम श्रम बल को भारत में व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त होती है। इसके विपरीत यूएसए में 52 फीसदी, जर्मनी में 75 फीसदी और दक्षिण कोरिया में 96 फीसदी युवाओं को व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त होती है। समिति ने सुझाव दिया कि 10 वर्षों की अवधि में चरणबद्ध तरीके से सभी शिक्षण संस्थानों (स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों) में व्यावसायिक शिक्षण कार्यक्रमों को एकीकृत किया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि यह दक्षता विकास और उद्यमिता पर राष्ट्रीय नीति (2015) का अपवर्ड संशोधन है, जिसका लक्ष्य 25 फीसदी शिक्षण संस्थानों में व्यावसायिक शिक्षा प्रस्तावित करना था।
इस सम्बन्ध में मुख्य सुझाव है कि नौवीं से 12 वीं कक्षा के बीच के सभी स्कूली विद्यार्थियों को कम-से-कम एक व्यवसाय में व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त होनी चाहिए। प्रस्तावित स्कूल परिसरों की पाठ्यक्रम डिलिवरी विशेषज्ञता से लैस होनी चाहिए और यह मौज़ूदा नेशनल स्किल्स क्वालिफिकेशंस फ्रेमवर्क के दक्षता के स्तर के अनुकूल होनी चाहिए।
प्रस्तावित उच्च शिक्षण संस्थानों को ऐसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी शुरू करने चाहिए, जो कि अंडरग्रेजुएट शिक्षण कार्यक्रमों में एकीकृत हैं। मसौदा नीति का लक्ष्य यह है कि 2025 तक उच्च शिक्षण संस्थानों में दािखला लेने वाले अधिकतम 50 फीसदी विद्यार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा उपलब्ध करायी जाए। इस समय इन संस्थानों के 10 फीसदी से भी कम विद्यार्थियों को यह सुविधा उपलब्ध है।
इसमें एक राष्ट्रीय समिति का गठन किया जाएगा, ताकि इन लक्ष्यों को हासिल करने से सम्बन्धित ज़रूरी कदमों पर कार्य किया जा सके। शिक्षण संस्थानों में व्यावसायिक शिक्षा के एकीकरण के लिए एक फंड की स्थापना की जाएगी। इस धनराशि के संवितरण का क्या तरीका होगा, समिति इस पर कार्य करेगी।
प्रौढ़ शिक्षा
जनगणना 2011 के अनुसार भारत में अब भी युवा निरक्षरों (15-24 वर्ष) की संख्या 3.26 करोड़ और वयस्क निरक्षरों (15 वर्ष और उससे अधिक) की संख्या 26.5 करोड़ है। इस सम्बन्ध में मसौदा नीति ने सुझाव दिया है कि एनसीईआरटी के अंतर्गत एक घटक इकाई के रूप में केन्द्रीय प्रौढ़ शिक्षा संस्थान की स्थापना की जाए। यह एक स्वायत्त संस्थान होगा, जो कि प्रौढ़ शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क विकसित करेगा। इस फ्रेमवर्क में पाँच व्यापक क्षेत्र शामिल होंगे- मूलभूत साक्षरता और संख्या ज्ञान, महत्त्वपूर्ण जीवन कौशल, व्यावसायिक दक्षता विकास, बुनियादी शिक्षा और सतत शिक्षा।
प्रौढ़ शिक्षा केद्रों को प्रस्तावित स्कूल परिसरों में शामिल किया जाएगा। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग में युवाओं और प्रौढ़ों के लिए सम्बन्धित पाठ्यक्रमों को उपलब्ध कराया जाएगा। हाल ही प्रारम्भ किये गये नेशनल ऑडिट ट्यूटर्स प्रोग्राम के ज़रिये प्रौढ़ शिक्षा के प्रशिक्षकों और प्रबन्धकों का कैडर तथा वन-टू-वन ट्यूटर्स की टीम बनायी जाएगी।
भारतीय भाषाओं को बढ़ावा
समिति ने महसूस किया कि बड़ी संख्या में छात्र तबसे पिछड़ रहे हैं, जब से स्कूलों का संचालन ऐसी भाषा में किया जा रहा है, जो उन्हें समझ नहीं आते हैं। इसलिए, उसने यह यह सिफारिश की कि जहाँ तक सम्भव हो शिक्षा का माध्यम कक्षा पाँच तक घरेलू भाषा/मातृभाषा/स्थानीय भाषा होना चाहिए और बेहतर हो तो ग्रेड आठ तक हो।
पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा प्रस्तुत, त्रिभाषा फार्मूला में कहा गया है कि राज्य सरकारों को आधुनिक भारतीय भाषा के अध्ययन को अपनाना और लागू करना चाहिए, जिसमें हिन्दी भाषी राज्यों और हिन्दी के अलावा गैर-हिंदी भाषी राज्यों में क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी के साथ अधिमान एक दक्षिणी भाषा को दिया जाना चाहिए। मसौदा नीति ने सिफारिश की कि इस तीन भाषा फार्मूले को जारी रखा जाना चाहिए और सूत्र के कार्यान्वयन में लचीलापन प्रदान किया जाना चाहिए।
समिति ने टिप्पणी की कि फार्मूले के कार्यान्वयन को मज़बूत करने की आवश्यकता है, विशेष रूप से हिन्दी भाषी राज्यों में। इसके अलावा, हिन्दी भाषी क्षेत्रों के स्कूलों को राष्ट्रीय एकीकरण के उद्देश्य से भारत के अन्य हिस्सों से भारतीय भाषाओं को भी पढ़ाना चाहिए। भाषा की पसन्द में लचीलापन प्रदान करने के लिए, जो छात्र अपनी तीन भाषाओं में से एक या अधिक को बदलना चाहते हैं; वे ग्रेड छ: या ग्रेड सात में ऐसा कर सकते हैं, इस शर्त के अधीन कि वे अभी भी अपने मॉड्यूलर बोर्ड परीक्षाओं में तीन भाषाओं में दक्षता प्रदर्शित करने में सक्षम हैं।
भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए, पाली, फारसी और प्राकृत के लिए एक राष्ट्रीय संस्थान स्थापित किया जाएगा। सभी उच्च शिक्षा संस्थानों में स्थानीय भारतीय भाषा के अलावा, कम-से-कम तीन भारतीय भाषाओं के लिए उच्च गुणवत्ता वाले संकाय की भर्ती होनी चाहिए। इसके अलावा, भारतीय भाषाओं में शब्दावली को मज़बूत करने के लिए सभी क्षेत्रों और विषयों को शामिल करने के लिए वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग का विस्तार किया जाएगा।