कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया, जो कि अब राज्यसभा सांसद हैं, एक नयी मुसीबत में फँस गये हैं। दरअसल उन पर 100 बीघा सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने का आरोप है। इस ज़मीन की कीमत करीब 600 करोड़ रुपये बतायी जाती है। इस ज़मीन को लेकर उन पर चल रहे मुकदमे की हाल ही में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में सुनवाई थी। इस ज़मीन को लेकर जनहित याचिका दायर करने वाले याचिकाकर्ता ग्वालियर के सामाजिक कार्यकर्ता ऋषभ भदौरिया हैं। हाई कोर्ट ने इस मामले में मध्य प्रदेश सरकार से जवाब देने को कहा है।
बता दें कि इससे छह महीने पहले भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ ज़मीन से जुड़े दो मामलों में आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ (ईओडब्ल्यू) ने जाँच की थी। बाद में सिंधिया के एक ज़िम्मेदार अधिकारी ने बताया कि दोनों मामलों को सुबूतों के अभाव में खत्म कर दिया गया है। सवाल यह उठता है कि दोनों मामले उनके भाजपा में शामिल होने के बाद ही समाप्त कैसे हो गये?
वैसे मध्य प्रदेश के राजनीतिक जानकारों की मानें, तो ज्योतिरादित्य सिंधिया पर ज़मीन हथियाने के अब तक कई आरोप लग चुके हैं। उन पर ईओडब्ल्यू की जाँच तक चले जिन दो मामलों को खत्म करने की बात उनके ज़िम्मेदार अधिकारी ने कही, उनमें एक मामले का शिकायतकर्ता सुरेंद्र श्रीवास्तव नाम का एक शख्स था।
इस मामले में आवेदक का आरोप था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके परिजनों ने 2009 में ग्वालियर के महलगाँव की सर्वे नम्बर-916 की ज़मीन खरीदकर रजिस्ट्री में हेरफेर कराकर उसकी 6000 वर्ग फीट ज़मीन कम कर दी। वहीं दूसरे मामले में सिंधिया देवस्थान के चेयरमेन और ट्रस्टियों द्वारा राजस्व विभाग के अधिकारियों और प्रशासनिक अधिकारियों से मिलकर सर्वे नम्बर-1217 की सरकारी ज़मीन के फर्ज़ी दस्तावेज़ तैयार करके बेचने का आरोप लगाया गया है। इसके अलावा उन पर शिवपुरी के पास आदिवासियों की करीब 700 बीघा ज़मीन हड़पने का भी आरोप लगा था। सिंधिया पर यह आरोप जून-जुलाई, 2019 में भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं राज्यसभा सदस्य प्रभात झा ने लगाया। तब सिंधिया कांग्रेस में थे। प्रभात झा ने उस समय कहा था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस ज़मीन पर कब्ज़ा जमाया, उस ज़मीन के सरकारी कागज़ हैं। उन्होंने तब के मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ से आग्रह किया था कि वह इस मामले की जाँच करवाएँ।
अब इस 100 बीघा सरकारी ज़मीन मामले में मध्य प्रदेश के राजनीतिक जानकारों ने बताया है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने यह ज़मीन 100 रुपये के आसपास में ली थी। हालाँकि इसके सुबूत नहीं मिल सके हैं, पर आरोप यही है। मगर यह बात सही है कि ज़मीन सरकारी है। बताया जा रहा है कि यह ज़मीन ज्योतिरादित्य सिंधिया चेरिटेबल और कमलराजा चेरिटेबल ट्रस्ट के नाम से ली गयी है। इस ज़मीन पर फिलहाल सुनवाई हो रही है, क्योंकि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ 3 अगस्त को याचिकाकर्ता ने माँग की कि इस मामले में केंद्र सरकार का पक्ष भी सुना जाना चाहिए।
याचिकाकर्ता के वकीलों डी.पी. सिंह और अवधेश सिंह तोमर ने दलील दी कि देश की आज़ाद के वक्त तत्कालीन रियासतों का विलय किया गया था, तब केंद्र सरकार ने रियासतों के राजाओं के साथ एक प्रतिज्ञा पत्र तैयार कराया था कि कौन-सी सम्पत्तियाँ राजा के पास रहेंगी और कौन-सी सरकारी हो जाएँगी। इसी सिलसिले में 30 अक्टूबर 1948 को केंद्र सरकार व तत्कालीन सिंधिया राजघराने के बीच एक प्रतिज्ञा पत्र तैयार हुआ था। इसलिए 22 सर्वे नम्बरों की 100 बीघा ज़मीन ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलराजा ट्रस्टों के नाम की गयी थी, उसका उल्लेख केंद्र सरकार और ग्वालियर की पूर्ववर्ती सिंधिया रियासत के बीच हुए करार में है या नहीं? यह बात केंद्र सरकार ही बता सकती है। केंद्र सरकार की रिपोर्ट के आधार पर ही पता चलेगा कि यह ज़मीन किसकी है?
इस अपील पर हाई कोर्ट ने वकीलों से पूछा कि किसी पक्षकार को बनाने के लिए जवाब की ज़रूरत क्या है? लेकिन याचिकाकर्ता ने दोबारा अपनी माँग दोहरायी और कोर्ट को यह भी बताया कि ग्वालियर शहर के सिटी सेंटर, महलगाँव ओहदपुर, सिरोल की सरकारी ज़मीन को राजस्व अधिकारियों ने इन दोनों ट्रस्टों के नाम किया है। तब हाई कोर्ट ने इस रिपोर्ट को पेश करने के लिए मध्य प्रदेश सरकार की ओर से हाई कोर्ट में मौज़ूद वकील से कहा, जिस पर उन्होंने इसके के लिए समय माँगा।
सिंधिया ने फँसने पर स्कूल निर्माण की कही बात
जानकार कहते हैं कि इस ज़मीन के विवाद में फँसने पर ज्योतिरादित्य सिंधिया अब ज़मीन पर स्कूल निर्माण की बात कह रहे हैं। याचिकाकर्ता और कुछ अन्य लोगों की मानें, तो राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा पहले इस ज़मीन का उपयोग निजी हित में किये जाने की कोशिशें की गयीं; लेकिन जब मामला अदालत में पहुँचा, तो उन्होंने इस पर स्कूल निर्माण का राग अलापना शुरू कर दिया। लोगों का कहना है कि अगर सिंधिया को इस ज़मीन पर स्कूल ही बनवाना था, तो अब तक निर्माण शुरू क्यों नहीं किया गया और यह बात उन्होंने अदालत में मुकदमा दर्ज होने से पहले क्यों नहीं कही। हालाँकि इस मामले में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बहुत कुछ बोलने से परहेज़ किया है; लेकिन उन्हें बताना चाहिए कि यदि वह इस सरकारी ज़मीन पर वाकई स्कूल बनाना चाहते हैं और अगर भविष्य में ऐसा हुआ, तो क्या इस स्कूल में गरीबों के बच्चे पढ़ सकेंगे?
यह सवाल इसलिए भी बहुत ज़रूरी है, क्योंकि स्कूल तो ट्रस्टों के ज़रिये ही बनेगा और देश भर का रिकॉर्ड है कि ट्रस्टों के नाम पर सस्ते दामों में सरकारी ज़मीनों को लेने वाले ट्रस्टों या समाजसेवी संगठनों या संस्थाओं ने इनका इस्तेमाल व्यापारिक तरीके से किया है और जमकर पैसा कमाया है। ट्रस्टों के नाम पर बने कई स्कूल तो ऐसे हैं, जिनमें गरीबों के बच्चे मिलेंगे ही नहीं। अगर कोई एकाध गरीब का बच्चा वहाँ पढ़ भी रहा है, तो उसके साथ एक जैसा और सही व्यवहार नहीं होता।
मध्य प्रदेश सरकार की बढ़ रही मुुुश्किल
इन दिनों मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार काफी मुश्किलों का सामना कर रही है। इसके तीन-चार कारण हैं। एक यह कि कोरोना की रोकथाम को लेकर शिवराज सरकार को कोई खास सफलता नहीं मिल सकी है। दूसरा यह कि जबसे मध्य प्रदेश में कांग्रेस की मध्यावर्ती सरकार गिरने के बाद शिवराज की सरकार बनी है, तबसे किसानों की आत्महत्याएँ, प्रशासन के द्वारा ही किसानों की खेती की ज़मीन को जबरन छीनने की कोशिश और उनकी पिटाई, जिसमें कई किसानों ने आत्महत्या की कोशिश तक की; किसानों के प्रदर्शन भी बढ़ गये। और अब बेरोज़गार युवाओं ने रोज़गार की माँग को लेकर प्रदर्शन करके मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार की नाक में दम कर दिया है। जगह-जगह प्रदर्शन के चलते इन बेरोज़गारों को पुलिस ने हिरासत में भी लिया; लेकिन इससे बेरोज़गारों के प्रदर्शन और सरकार के खिलाफ नारेबाज़ी में कोई कमी नहीं आयी। अब आलम यह है कि बेरोज़गारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। शिवराज सरकार की अगली सबसे बड़ी समस्या है विधानसभा के उप चुनाव में उसकी जीत का संकट। विदित हो कि कांग्रेस के विधायकों को तोडऩे के बाद शिवराज सिंह चौहान ने सरकार तो बना ली, लेकिन 27 सीटों पर उप चुनाव होने थे, जो अभी तक नहीं हुए हैं।
हालाँकि यह उप चुनाव सीटें खाली होने के छ: महीने के अन्दर होने थे; लेकिन कोरोना के चलते लगे लॉकडाउन की वजह से अभी तक नहीं हुए हैं, जबकि शिवराज सरकार के गठन को छ: महीने हो गये हैं। मुश्किल यह है कि मध्य प्रदेश की जनता में अधिकतर लोग शिवराज सरकार के काम से असंतुष्ट नज़र आ रहे हैं, और इस बात को खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी अच्छी तरह समझ रहे हैं। उप चुनाव सितंबर में ही होने की बात भी अब फीकी पड़ती नज़र आ रही है; क्योंकि अभी तक इनकी तारीख तय नहीं हुई है। वहीं चुनाव आयोग ने इस उप चुनाव को लेकर कानून मंत्रालय को प्रस्ताव भेजा है, जिसमें मध्य प्रदेश में उप चुनाव टालने को लेकर कहा गया है। विपक्ष यानी कांग्रेस का कहना है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चुनाव नहीं कराना चाहते, क्योंकि वह जानते हैं कि भाजपा को हार का सामना करना पड़ सकता है, जिसके आसार भी नज़र आ रहे हैं। वहीं सट्टा बाज़ार के सूत्रों के मुताबिक, उप चुनावों में भाजपा की हार होने पर ज़्यादा चर्चा है।
हालाँकि सट्टा बाज़ार की जानकारियों को प्रमाणित नहीं कहा जा सकता है, मगर इन खबरों को काफी पक्के तौर पर माना जाता है। ऐसे में शिवराज सरकार द्वारा प्रदेश की सत्ता में बने रहने पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं। राजनीति के जानकार पवन सिंह कहते हैं कि मामा (शिवराज सिंह चौहान) ने मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बना तो ली है, लेकिन अब उन्हें जन-समर्थन उस तादाद में नहीं मिल रहा है, जितना कि पहले मिला करता था। ऐसे में अगर उप चुनाव हुए, तो शिवराज सरकार के मध्य-काल में ही गिर जाने की आशंका है। लोग अब भी कांग्रेस को ही अच्छा मान रहे हैं और उप चुनाव में कांग्रेस को ही ज़्यादा सीटें दे सकते हैं। सुनने में यह भी आया है कि उप चुनाव के मद्देनज़र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लोगों को तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे हैं।