पार्टी के शीर्ष तक पहुँचने के बाद जगत प्रकाश नड्डा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए गये हैं। उनकी राजनीतिक गाथा अद्भुत रही है। हिमाचल से ताल्लुक रखने वाले नड्डा केंद्र और राज्य में मंत्री रहने के अलावा भाजपा की छात्र और युवा दोनों इकाइयों के अध्यक्ष रहे हैं। पिछले कुछ महीने से कार्यकारी अध्यक्ष रहे नड्डा के लिए अध्यक्ष पद के कार्यभार की नयी चुनौतियाँ रहेंगी। इसी को लेकर राकेश रॉकी का यह विश्लेषण
जगत प्रकाश नड्डा यानी जे.पी. नड्डा भाजपा के नये अध्यक्ष बन गये। अपनी मेहनत के बूते पार्टी के सबसे बड़े पद पर पहुँचे नड्डा के सामने कई चुनौतियाँ हैं। पिछले महीनों में जिस तरह भाजपा ने कुछ अहम राज्य खोये हैं, उससे नड्डा के सामने चुनौती और भी बड़ी हो जाती है। पहले फरवरी में दिल्ली और साल के आिखर में बिहार विधानसभा के चुनाव में पार्टी के नैया पार लगाने के लिए इस दिग्गज रणनीतिकार से पार्टी को बहुत उम्मीद रहेगी।
नड्डा जिन अमित शाह से भाजपा की बागडोर सँभाल रहे हैं, उन्हें एक मौके पर भाजपा के बीच जीत की गारन्टी देने वाला भाजपा अध्यक्ष माना जाता रहा है। हालाँकि, यह भी सच है कि पिछले महीनों में भाजपा को राज्यों के मोर्चे पर मात खानी पड़ी है, जिसे शाह की ख्याति के विपरीत कहा जा सकता है। करीब पाँच साल तक भाजपा की कमान पूरी ताकत से थामने वाले शाह एक मौके पर भाजपा में अपरिहार्य अध्यक्ष रहे। अब उनका ज़िम्मा नड्डा के कन्धों पर आ गया है।
भाजपा की राजनीति में नड्डा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों के करीब रहे हैं। दोनों नड्डा की रणनीतिक क्षमताओं के कायल रहे हैं, जिन्हें नड्डा ने समय-समय पर साबित भी किया है। इसी का नतीजा है कि आज नड्डा पार्टी के शीर्ष पद तक पहुँच गये हैं।
पिछले साल लोकसभा चुनाव से पहले जब उन्हें उत्तर प्रदेश जैसे बहुत ही अहम राज्य की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी तब काफी बड़ी चुनौती उनके सामने थी। सपा-बसपा जैसे दो मज़बूत दलों ने हाथ मिला लिया था और भाजपा को उन्हें परास्त करके ही लोकसभा की ज्यादा सीटें मिल सकती थीं। नड्डा ने ज़मीनी हकीकत के आधार पर भाजपा की रणनीति बुनी और भाजपा संगठन को सपा-बसपा गठबन्धन के सामने मज़बूती से खड़ा रखते हुए 80 में से 64 सीटें जीत लीं। भाजपा में बहुत नेता इसे नड्डा की संगठन क्षमता के बूते ही सम्भव मानते हैं।
साल 2010 में वे भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री बनाये गये। वे इस दौरान जम्मू-कश्मीर, तेलंगाना, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, केरल, राजस्थान और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों के प्रभारी रहे। साल 2012 में उन्हें राज्यसभा सदस्य चुना गया, जबकि 2014 में नड्डा भाजपा केन्द्रीय संसदीय बोर्ड के सचिव नियुक्त हुए। इस तरह एक लम्बा सफर नड्डा ने संगठन में तय किया है।
नयी चुनौतियाँ हैं सामने
इन सब उपलब्धियों के बाद अब नड्डा के सामने संगठन को देश भर में चलने की बड़ी चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारी है। भाजपा भले अभी भी देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल हो, पिछले कुछ विधानसभा चुनाव भाजपा ने हारे हैं। पिछले कुछ वर्षों में भाजपा को जीत का जैसा चस्का लगा था, उसे इन हारों से झटका लगा है। भाजपा को दो साल पहले तक अपराजय पार्टी माना जा रहा था लेकिन इन दो वर्षों में भाजपा ने कई राज्य गँवा दिये हैं।
हरियाणा में तीन महीने पहले जब उसने सरकार बनायी, तो उसे जेजेपी का सहारा लेना पड़ा; क्योंकि उसका अपना बहुमत नहीं आया था। महाराष्ट्र में तो उसकी भरोसेमंद साथी और उसकी ही विचारधारा से मेल खाने वाली शिव सेना ने कांग्रेस जैसी उसकी मुखर विरोधी के साथ हाथ मिला लिया। इसके बाद झारखंड में भाजपा को शर्मनाक हार झेलनी पड़ी, जहाँ उसके केंद्र के सहयोगी भी उससे अलग होकर चुनाव में उतरे।
इन घटनाओं पर नज़र दौड़ाएँ तो पता चलता है कि भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती अपने सहयोगियों को सँभालने की भी है। पिछले कुछ महीनों में भाजपा ने तीन बड़े सहयोगियों को खो दिया है, जिनमें टीडीपी और शिवसेना भी शामिल हैं। एनआरसी जैसे मुद्दों पर भाजपा के अपने कई सहयोगियों के विचार भिन्न हैं और वे इस पर नाराज़गी जता रहे हैं।
बिहार, जहाँ इस साल के आिखर में ही विधानसभा चुनाव होने हैं, वहाँ पार्टी की सरकार में सहयोगी जेडीयू हाल के उसके फैसलों को लेकर सवाल उठा रही है। खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एनआरसी को लेकर साफ कह चुके हैं कि बिहार में इसे किसी भी रूप में लागू नहीं किया जाएगा। नीतीश के करीबी सहयोगी प्रशांत किशोर खुले रूप से भाजपा की नीतियों के िखलाफ खड़े दिख रहे हैं। उनके विरोध की भाषा में वहीं तल्खी दिख रही है, जो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की एनआरसी, सीएए , एनपीआर और एनआरसी के िखलाफ है।
कुछ मुद्दों पर लोकसभा और राज्यसभा में मोदी सरकार का समर्थन करते रहे ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक तक एनआरसी आदि के िखलाफ हैं। कांग्रेस और दूसरे दलों के मुख्यमंत्री तो इन का सख्त विरोध कर ही रहे हैं। ऐसे में भाजपा के सामने दिक्कत आने वाले दिनों में राज्यसभा में बिल पास करवाने की भी आएगी। नये अध्यक्ष नड्डा खुद राज्य सभा के सदस्य हैं, लिहाज़ा उन पर यह बड़ी ज़िम्मेदारी होगी कि वे पार्टी के सहयोगियों को साथ रखने के लिए कोई मज़बूत रणनीति बनायें।
कांग्रेस अभी भी भाजपा की सबसे बड़ी राजनीतिक विरोधी है। भले भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था, समय के साथ यह गलत साबित होता जा रहा है। पिछले लगभग एक साल में कांग्रेस तीन राज्यों में अपनी सरकार बना चुकी है, जबकि महाराष्ट्र और झारखंड में वह सहयोगियों के साथ सरकार का हिस्सा बन चुकी है। भाजपा ने यह सभी राज्य खो दिये हैं। दिल्ली में भी बहुत बड़ी चुनौती भाजपा के सामने है, ऐसे में नड्डा की चुनौतियों सचमुच बहुत बड़ी हैं।
एक समय कांग्रेस भी संगठन के रूप में राज्यों में कमज़ोर होकर सिर्फ केंद्र एक ही सीमित रह गयी, जिसका नुकसान यह हुआ कि लोकसभा के चुनाव में भी उसे सीटों के लाले पडऩे लगे। भाजपा भी उसी तरफ न बढ़ जाये, नड्डा को इस पर तीखी नज़र रखनी होगी। अन्यथा उसका हश्र कांग्रेस जैसा होने का खतरा बन जाएगा।
पार्टी के भीतर शाह के समय में ज़बरदस्त अनुशासन तो रहा है; लेकिन एक तरह की निरंकुशता भी पार्टी में बनी है। ऐसे में नड्डा को उससे बाहर भी पार्टी को निकलना होगा और कार्यकर्ता की निचले स्तर पर बात सुननी होगी। नहीं तो पार्टी कार्यकर्ता धीरे-धीरे संगठन में रुचि खो देगा।
एक और अहम चीज़ राज्यों में मुख्यमंत्री तय करने की भी है। महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में भाजपा का मुख्यमंत्री चयन पार्टी के लिए कोई ज्यादा लाभकारी नहीं रहा है। महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री घोषित करने के बावजूद पार्टी की सीटें विधानसभा चुनाव में घट गयीं। पार्टी ने अपनी सरकार भी खो दी। सबसे बड़ी फज़ीहत बिना बहुमत जुटाये फडणवीस का एनसीपी नेता अजित पवार के साथ शपथ लेना रहा। इससे पार्टी को छवि को बहुत बड़ा धक्का लगा है।
हरियाणा में भी भाजपा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पार्टी को विधानसभा चुनाव में मज़बूत सफलता नहीं दिलवा पाये। भाजपा की सीटें इतनी घट गयीं कि उसे जेजेपी का समर्थन लेकर सरकार बनानी पड़ी।
झारखंड में भाजपा को बहुत बड़ा झटका लगा जब उसने सत्ता खो दी। जिन रघुबर दास को मुख्यमंत्री पद का दोबारा उम्मीदवार बनाया गया, वे भाजपा को जीत तक ले जाना तो दूर, उलटे 13 सीटें खोने के ज़िम्मेदार बने। इस तरह भाजपा के नए अध्यक्ष नड्डा के सामने भविष्य में यह बड़ी चुनौती रहेगी कि उन चेहरों को मुख्यमंत्री बनाया जाए, जो पार्टी को चुनावों में सफलता दिला सकें। महाराष्ट्र में तो फडणवीस पर यह आरोप अब ज़ोर-शोर से लग रहा है कि उन्होंने राज्य में मराठा नेताओं को कमज़ोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
दिल्ली में रिमोट
भाजपा में भी अब यह महसूस किया जाने लगा है पार्टी की राजनीति पूरी तरह दिल्ली से चलने लगी है। अर्थात् संगठन को चलाने का रिमोट दिल्ली में बन गया है। इससे राज्यों के नेता कमज़ोर होने लगे हैं। भले भाजपा आंतरिक लोकतंत्र की जितनी बड़ी बातें करे, सच यह है कि भाजपा की राजनीति धीरे-धीरे केंद्रीकृत होती जा रही है। नड्डा को निश्चित ही भाजपा को इस सोच से बाहर लाना होगा। नहीं तो इसके नतीजे भाजपा के समय में बहुत खराब भी साबित हो सकते हैं। शाह की तरह चूँकि नड्डा मंत्री नहीं हैं, वे संगठन को पूरा वक्त दे पाएँगे। शाह पिछले महीनों में गृह मंत्रालय की बहुत व्यस्त ज़िम्मेदारियों में उलझे रहे हैं, लिहाज़ा यह माना जा सकता है कि वे संगठन को उतना वक्त नहीं दे पाए। नड्डा के सामने यह समस्या नहीं है और एक पूर्णकालिक अध्यक्ष के नाते वे पूरा समय संगठन को दे पाएँगे। कांग्रेस भी दिल्ली से रिमोट के कारण ही राज्यों में कमज़ोर हुई थी। भाजपा को निश्चित ही इससे बचना होगा। वे अपनी टीम बनाएँगे तो उम्मीद की जा रही है कि इसमें वे राज्यों में पार्टी को और मज़बूत कर पाएँगे। पिछले महीनों में विरोधी ही नहीं खुद भाजपा के नेता भी यह महसूस करने लगे हैं कि भाजपा दो नेताओं मोदी और शाह पर ही पूरी तरह निर्भर होकर रह गयी है। विधानसभाओं के चुनाव में भी भाजपा का प्रचार मोदी के आये बगैर गति नहीं पकड़ता है जो पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
जेपी आंदोलन से शुरुआत
बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि नड्डा वास्तव में जेपी आंदोलन की उपज हैं।
उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत साल 1975 में ही हो गयी थी, जब जेपी आंदोलन ने देश की राजनीति को हिलाकर रख दिया था। नड्डा ने इस आंदोलन में एक छात्र के रूप में हिस्सा लिया था। इसके तुरन्त बाद वे बिहार भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) से जुड़ गये। आपातकाल के तुरन्त बाद सन् 1977 में नड्डा ने अपने कॉलेज में छात्रसंघ का चुनाव लड़ा था और जीतकर वे पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के सचिव बने। नड्डा 1977 से 1979 तक रांची में रहे, जहाँ उनके पिता एनएल नड्डा रांची विश्वविद्यालय के कुलपति और पटना विवि के प्रोफेसर थे।
पटना विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद नड्डा ने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में एलएलबी की पढ़ाई की। साल 1983 में पहली बार हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव (एससीए) में वह विद्यार्थी परिषद् के अध्यक्ष चुने गये। वे हिमाचल के पहले ऐसे नेता हैं, जो किसी बड़े राष्ट्रीय राजनीतिक दल के अध्यक्ष बने हैं। भाजपा का दावा रहा है कि वह विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। ऐसे में हिमाचल के लिए यह गौरव की बात कही जाएगी। इससे राष्ट्रीय राजनीति में इस अपेक्षाकृत छोटे पहाड़ी राज्य की बड़ी पहचान बन जाएगी। 1991 में भारतीय जनता युवा मोर्चा (भाजयुमो) के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये। हिमाचल के बिलासपुर ज़िले के रहने वाले नड्डा 1993 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा विधायक दल के नेता चुने गये थे। यह उस दौर की बात है जब हिमाचल में शांता कुमार के बाद सबसे बड़े नेता जगदेव चंद की पार्टी में तूती बोलती थी। लेकिन चुनाव जीतने के तुरन्त बाद जगदेव चंद का अचानक निधन हो गया और नड्डा नेता चुने गये। साल 1998 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए वरिष्ठ नेता प्रेम कुमार धूमल का नाम नड्डा ने ही प्रस्तावित किया था। साल 2007 में धूमल जब दोबारा सीएम बने, तो नड्डा वन मंत्री बनाये गये।
दो साल बाद ही नड्डा मंत्री पद छोडक़र संगठन के लिए समर्पित हो गये। हिमाचल के प्रभारी रह चुके नरेंद्र मोदी नड्डा की संगठनात्मक और प्रशासनिक क्षमताओं से परिचित थे, लिहाज़ा जब वे 2014 में पीएम बने तो नड्डा को उन्होंने अपनी सरकार में स्वास्थ्य जैसा अहम मंत्रालय दिया। साथ ही पार्टी के महासचिव का ज़िम्मा भी उनके पास था। साल 2019 के चुनाव में जीत के बाद नड्डा को मंत्री पद न देकर जब भाजपा का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया, तभी यह तय हो गया था कि वे भाजपा के अगले अध्यक्ष होंगे। भाजपा संसदीय बोर्ड के सचिव भी नड्डा रहे। नड्डा फरवरी, 2010 से नवंबर, 2014 तक नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और अमित शाह के साथ पार्टी के महासचिव के रूप में काम कर चुके हैं। अब नड्डा भाजपा के अध्यक्ष हो गये हैं और एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी उनके ऊपर आ गयी है। पार्टी कार्यकर्ताओं को भरोसा है कि नड्डा पार्टी को नयी दिशा में ले जाएँगे।
भाजपा के अब तक के अध्यक्ष
वाजपेयी भाजपा के ऐसे इकलौते अध्यक्ष रहे, जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने। हालाँकि भाजपा के उत्थान में मुरली मनोहर जोशी और लाल कृष्ण आडवाणी का सबसे बड़ा योगदान रहा; लेकिन दोनों ही पीएम नहीं बन पाये। एलके आडवाणी उप प्रधानमंत्री ज़रूर बने।
आडवाणी के दूसरे कार्यकाल के बाद 1998 में कुशाभाऊ ठाकरे भाजपा के अध्यक्ष बने। साल 1942 में संघ का प्रचारक बनने के बाद उन्होंने मध्य प्रदेश के कोने-कोने में स्वयंसेवकों की सेना खड़ी की। वे कुशल संगठनकर्ता थे। आपातकाल के दौरान वे 19 महीने जेल में रहे। साल 1998 में वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और इस पद पर वे 2000 तक रहे। उनके बाद आये बंगारू लक्ष्मण काफी विवादित रहे। उनका राजनीतिक करियर एक स्टिंग ऑपरेशन में फँसने के बाद हशिये पर चला गया। यह स्टिंग तहलका ने किया था। लक्ष्मण को 2001 में एक लाख रुपये की रिश्वत लेने के मामले में दिल्ली की एक अदालत ने दोषी करार दिया था, जिसके बाद उन्हें जेल भी जाना पड़ा। तहलका का स्टिंग ऑपरेशन 2001 में हुआ था, जिसमें उन्हें भाजपा मुख्यालय स्थित उनके कमरे में एक लाख रुपये रिश्वत लेते हुए दिखाया गया। इससे देश की राजनीति में एक तरह का भूचाल आ गया। तब वे भाजपा के अध्यक्ष थे। उन्हें पद से हाथ धोना पड़ा।
साल 1940 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सक्रिय सदस्य रहे जना कृष्णमूर्ति ने तमिलनाडु में भारतीय जनसंघ के महासचिव के रूप में पदभार सँभाला। सन् 1980 में वे वाजपेयी, आडवाणी, एसएस भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे और जगन्नाथ राव जोशी के साथ भाजपा के वे नेता रहे, जिन्होंने भाजपा का गठन किया और संस्थापक राष्ट्रीय सचिव बने। सन् 1980 से 1990 तक उन्होंने चार दक्षिणी राज्यों केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भाजपा का विस्तार करने में मदद की। सन् 2001 में वे भाजपा के अध्यक्ष बने। वे वाजपेयी मंत्रिमंडल में कानून मंत्री भी रहे।
उनके बाद अध्यक्ष बने वेंकैया नायडू। साल 2002 में वे वाजपेयी सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री बने। जुलाई, 2002 से 2004 तक वे भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। सन् 2014 में वे मोदी सरकार में शहरी विकास, गृहनिर्माण और गरीबी निवारण और संसदीय मामलों के केंद्रीय मंत्री रहे। 5 अगस्त, 2017 में वे भारत के 13वें उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इसके बाद राजनाथ सिंह दो बार पार्टी के अध्यक्ष रहे। उनसे पहले यह उपलब्धि केवल अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के पास ही थी। राजनाथ सिंह पहली बार 31 दिसंबर, 2005 को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। दूसरी बार 23 जनवरी, 2013 से 9 जुलाई, 2014 तक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। वे वाजपयी और मोदी सरकार में मंत्री भी रहे और आज देश के रक्षा मंत्री हैं।
उनके बाद नितिन गडकरी भाजपा के अध्यक्ष बने। उनका कार्यकाल सन् 2010-2013 तक रहा। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बनने वाले वे इस पार्टी के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष थे जब वे 52 साल में अध्यक्ष बने। वे मोदी की दो बार की सरकारों से मंत्री हैं। आज वे सरकार में सडक़ परिवहन और राजमार्ग, जहाज़रानी, जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री हैं। गडकरी सफल उद्यमी भी हैं।
अमित शाह को भाजपा का अब तक का सबसे ताकतवर अध्यक्ष माना जाता है। संगठन को ज़मीन तक ले जाने वाले शाह भले देश के गृह मंत्री बन गये और काफी समय यह पद सँभालने के बाद पार्टी अध्यक्ष पद उन्होंने अब नड्डा को सौंप दिया है, संगठन पर उनकी पकड़ का हर कोई कायल रहा है। उनके बारे में यह जुमला प्रसिद्ध रहा कि शाह के अध्यक्ष रहते भाजपा को कोई चुनाव में हरा नहीं सकता। हालाँकि पिछले कुछ महीनों में भाजपा को राज्यों में अपनी सरकारें गँवानी पड़ी हैं। आज उनके बारे में कहा जाता है कि गृह मंत्री के रूप में वे पार्टी की नीतियों को कानूनों के ज़रिये आगे बढ़ा रहे हैं।
कैसे उठी भाजपा
भाजपा के 1980 में गठन के बाद अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के पहले अध्यक्ष बने। शुरू में भाजपा कांग्रेस के मुकाबले कभी एक मज़बूत पार्टी नहीं दिखी। भाजपा के गठन से पहले वाजपेयी और राजस्थान के मुख्यमंत्री भी रहे भैरों सिंह शेखावत जैसे नेता जनसंघ के चेहरे थे। शुरू में भाजपा की संसद में उपस्थिति भी नाममात्र ही रही। भाजपा के अध्यक्ष कई हुए लेकिन मुरली मनोहर जोशी और लाल कृष्ण आडवाणी का नाम खासकर लिया जाता है।
मुरली मनोहर जोशी
जोशी वो चेहरा हैं जो भाजपा को एक राष्ट्रवादी पार्टी का स्वरूप देने का श्रेय रखते हैं।
आज से 28 साल पहले 1992 में श्रीनगर के लालचौक पर तिरंगा फहराने की घटना ने उन्हें एक लोकप्रिय नेता बना दिया। दिलचस्प यह है कि वर्तमान पीएम मोदी भी इस तिरंगा यात्रा में उनके सहभागी थे। यात्रा का उद्देश्य यह सन्देश देना था कि आतंकवाद से ग्रस्त श्रीनगर में भी तिरंगा फहराया जा सकता है। साल 1992 में लालचौक अलगाववादियों और आतंकियों की गतिविधियों का केंद्र बन चुका था और जोशी तिरंगा फहराकर यही बताना चाहते थे कि कश्मीर भारत का हिस्सा है और वहाँ तिरंगा फहराना देश की प्रतिष्ठा से जुड़ा है। जोशी की यह यात्रा कन्याकुमारी से शुरू हुई जिसे वास्तव में एकता यात्रा का नाम दिया गया था। उन्होंने 26 जनवरी, 1992 को लालचौक में तिरंगा फहराने का एलान किया। यात्रा की घोषणा से देश भर में तनावपूर्ण स्थिति बन गयी। खासकर, कश्मीर में विस्फोटक स्थिति बन गयी। आतंकवादी संगठनों और अलगाववादियों ने भी एलान किया कि किसी को लाल चौक पर तिरंगा फहराने नहीं देंगे। इस दौरान श्रीनगर में पुलिस मुख्यालय मे ग्रेनेड धमाका करके आतंकियों ने अपने मंसूबे ज़ाहिर कर दिये; लेकिन जोशी नहीं रुके। वे जहाज़ से श्रीनगर पहुँचे और सन् 1992 में मुरली मनोहर जोशी और नरेन्द्र मोदी श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराया। वहाँ आतंकियों की तरफ से राकेट भी चलाये गये। भले वहाँ तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था थी, लेकिन इसने जोशी को भाजपा में बहुत लोकप्रिय नेता बना दिया।
लालकृष्ण आडवाणी
जब लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी का ज़िम्मा मिला, तो उन्होंने कांग्रेस के मुकाबले खड़े होने के लिए भाजपा को हिन्दुत्व के एजेंडे में ढालना शुरू किया। इसमें अपना धर्म और अपनी संस्कृति जैसा मनोवैज्ञानिक विचार अपनाया और पार्टी को इसी के बूते आगे ले जाने की ठानी। इसके लिए आडवाणी देश की राजनीति की दिशा बदलने वाली रथ यात्रा का आइडिया सामने लाये और 1989 में उनकी रथ यात्रा ने भाजपा की पूरी सूरत ही बदल डाली। कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के एक राष्ट्रीय दल के रूप में उभार का यह बहुत बड़ा आधार बना। इस यात्रा ने आडवाणी ही नहीं भाजपा की इमेज भी एक हिन्दूवादी पार्टी की बना दी। इसके बाद ही भाजपा ने देश में अपना वोट बैंक बनाने की मुहिम शुरू की, जिसमें उसे काफी हद तक कामयाबी भी मिली। दो सीटों वाली भाजपा के लिए यह रथ यात्रा देश की राजनीति में बड़ा मंच प्रदान करने वाली साबित हुई। आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय वीपी सिंह की सरकार थी जिससे भाजपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद अक्टूबर 1991 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार ने बाबरी मस्जिद के आस-पास की 2.77 एकड़ भूमि को अपने अधिकार में ले लिया। और बड़ी घटना हुई 6 दिसंबर, 1992 को जब हज़ारों हिन्दू कारसेवकों ने अयोध्या पहुँचकर बाबरी मस्जिद को ढहा दिया। साम्प्रदायिक दंगे हुए, जिसमें कई लोग मारे गये। इस घटना की जाँच के लिए लिब्रहान आयोग का गठन हुआ। अब अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है और राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हो चुका है। रथ यात्रा का असली सेहरा आडवाणी के माथे पर सजने के बावजूद आडवाणी ने वरिष्ठ नेता वाजपेयी के नाम को ही प्रधानमंत्री के रूप में आगे किया। हालाँकि इसके साथ उन्होंने अपने लिए भी पीएम पद का सपना देखा जो उन्हें लगता था कि वाजपेयी के बाद अवश्य फलीभूत होगा। साल 2004 में सरकार बनाने वाली भाजपा 2009 में आडवाणी के पीएम उम्मीदवार रहते हार गयी, तो आडवाणी की राजनीति और सपने को इससे बड़ा झटका लगा। उनके इस सपने के पूरा होने से पहले ही नरेंद्र मोदी भाजपा की राजनीति के बड़े क्षत्रप बनकर उभर गये। बहुत लोग मानते थे कि पीएम नहीं बन पाए आडवाणी को भाजपा राष्ट्रपति तो बनाएगी ही; लेकिन यह भी नहीं हुआ और भाजपा को एक नयी दिशा देने वाला नेता भाजपा के हाशिये का हिस्सा बन गया।