देश में एक आलीशान और आधुनिक लोकतंत्र का मंदिर यानी संसद भवन जो सेंट्रल विस्टा का ही एक भाग होगा लगभग बनकर लगभग तैयार हो चुका है। पिछले दिनों, जिसका जायज़ा भी प्रधानमंत्री ने लिया था, आशा की जा रही है कि आगामी संसद सत्र इसी नये और भव्य संसद भवन में होगा। लेकिन विपक्षी दल शुरू से ही केंद्र की मोदी सरकार के इस निर्णय का विरोध कर रहे हैं।
इसके पीछे उनके दो तर्क हैं- पहला यह कि मोदी सरकार ने सेंट्रल विस्टा को, जिसमें संसद भवन, उप राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री आवास शामिल है, को 20,200 करोड़ से ज़्यादा की लागत से ऐसे समय में अति आवश्यक कार्यों की सूची में डालकर बनवाना शुरू किया, जब पूरा देश कोरोना महामारी से त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहा था। इसे लेकर सेंट्रल विस्टा का विरोध जताने वालों का सवाल यह है कि ऐसे समय में जब लोगों को मदद की ज़रूरत थी, ऑक्सीजन की ज़रूरत थी, रोज़गार जा रहे थे, भयंकर तरीक़े से मौतें हो रही थीं, तब इतनी बड़ी रक़म से नया संसद भवन, प्रधानमंत्री आवास और उप राष्ट्रपति आवास बनवाने की क्या ज़रूरत थी? विरोध जताने वालों का दूसरा तर्क और सवाल यह है कि अभी पुराना संसद भवन इतनी ख़राब स्थिति में भी नहीं है कि वहाँ पर संसद की कार्यवाही न चलायी जा सके? दुनिया में ऐसे कई देश हैं, जहाँ आज भी हमसे भी पुरानी संसद की इमारतें हैं और उनमें आज भी कार्यवाही बदस्तूर जारी है, तो नया संसद भवन बनाने की क्या ज़रूरत थी?
दरअसल मैं पिछले क़रीब ढाई दशक से संसद की गतिविधियों को कवर कर रहा हूँ। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि नये संसद भवन की देश को बहुत ज़रूरत थी। हर चीज़ पर राजनीति करना राजनीतिक दलों का काम है। लेकिन अगर हम निष्पक्ष तरीक़े से देखें, तो पिछले समय पुरानी संसद में जगह को लेकर तमाम राजनीतिक दलों को परेशानियाँ होती रही हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस के अलावा एक अच्छा कार्यालय तक किसी अन्य राजनीतिक दल के पास संसद भवन की इमारत में नहीं है। इसके अलावा तमाम दूसरे कार्यालय संसद भवन की पुरानी इमारत में खस्ताहाल में है, जगह कम होने के वजह से ही नयी लाइब्रेरी बिल्डिंग बनाने और एनेक्सी भवन के विस्तार किया गया था। इसलिए देखना होगा कि क़रीब 100 साल पहले जब हिन्दुस्तान का संसद भवन अंग्रेजी हुकूमत के दौरान जब बना था, तो हिन्दुस्तान की आबादी 35 से 40 करोड़ के अन्दर थी। लेकिन आज के समय में देश की आबादी क़रीब 140 करोड़ के आसपास है। ऐसे में न सिर्फ़ देश में लोकसभा की सीटें पहले की अपेक्षा बढ़ चुकी हैं, बल्कि राज्यसभा की सीटें भी बढ़ चुकी हैं और इनमें आगे भी इज़ाफ़ा हो सकता है। दूसरी बात, ख़ुद कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने एक बार पत्र लिखकर कहा था कि देश को नये संसद भवन की ज़रूरत है। लेकिन जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह बड़ा फ़ैसला लेने की हिम्मत दिखायी और जब वह नये संसद भवन में उसका जायज़ा लेने पहुँचे, तो इस पर फिर राजनीति होने लगी। अब जयराम रमेश ही कह रहे हैं कि ये फ़िज़ूलख़र्ची है।
हालाँकि मेरा मानना है कि एक चीज़ जो विरोध के लायक है और मैं भी उस पर सहमत हूँ, वो यह है कि सरकार को नया संसद भवन बनाने से पहले इस गम्भीर विषय पर फ़ैसला करने के लिए एक सलाहकार समिति बननी चाहिए थी, जो एक रिपोर्ट देती कि किस प्रकार से नया संसद भवन बनना चाहिए। ज़ाहिर है इसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में भी कुछ लोगों ने याचिका डाली है, जिसमें कहा गया है कि किस तरह से नया संसद भवन बनवाने के लिए पेड़ काटे गये और पर्यावरण का ध्यान नहीं रखा गया है।
तो इस प्रकार के विरोध तो जायज़ माने जा सकते हैं। लेकिन यह कहना कि संसद भवन ही नहीं बनाना चाहिए था, बिलकुल ग़लत है। क्योंकि पुराने संसद भवन में मैंने अपनी आँखों से संसद की छत से पत्थर के टुकड़े गिरते देखें है। उसके बाद अस्थायी तौर पर छतों पर जाल लगाने का काम किया गया था। आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के दिशा-निर्देश के मुताबिक, पुराने संसद भवन में से एक पत्थर भी आप हटा नहीं सकते और एक पत्थर भी वहाँ लगा नहीं सकते, तो इन परिस्थितियों में उस संसद भवन को चलाना काफ़ी मुश्किल हो रहा था और एक नये संसद भवन की आवश्यकता तो थी।
मेरा मानना है कि देश को नया संसद भवन मिलने से कोई नुक़सान नहीं है, बल्कि अच्छा ही है। संसद भवन का डिजाइन साल 1912-13 में उस वक़्त के मशहूर ब्रिटिश वास्तुविद एडविन लुटियन ने बनाया था। इसका निर्माण 1921 से 1927 के बीच हुआ था। अंग्रेजों ने दिल्ली में नयी प्रशासनिक राजधानी बनाने के लिए इसे बनवाया, जिसे आज़ादी के बाद संसद भवन के रूप में इस्तेमाल में लाया गया। 566 व्यास मीटर में बने 144 खंभों वाले संसद भवन में 340 कमरे हैं। इसमें कुल अभी लोकसभा में 543 और राज्यसभा में 245 सीटें हैं। अब अगर नये संसद भवन की बात करें, तो इसका शिलान्यास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तालाबंदी में 2020 में किया। इसके निर्माण की जिम्मेदारी सरकार ने टाटा को 2020 में 861.9 करोड़ रुपये में दी। कुछ रिपोर्ट में कहा गया है कि इसकी लागत क़रीब 1,200 करोड़ रुपये तक बढ़ गयी है। इस नये संसद भवन में लोकसभा में 888 सीटें हैं, जबकि राज्यसभा में 384 सीटें हैं। नये संसद भवन के बनकर पूरे होने की मियाद दिसंबर 2020 थी; लेकिन इसमें अभी एक-डेढ़ महीने का समय और लग सकता है और उम्मीद है कि अगला संसद सत्र लोकतंत्र के इसी नये मंदिर में लगेगा।
बहरहाल सवाल यह भी है कि जब विपक्ष से सवाल करने की स्वतंत्रता को छीन लेना चाहती है। अगर कोई सवाल पूछ ले, तो या तो उसके सवालों के जवाब नहीं देती या फिर उसके ख़िलाफ़ बदले की भावना से कार्रवाई करती है। ऐसे में नये संसद भवन को लोकतंत्र का मंदिर कैसे कहा जाए? जब लोकतंत्र बचेगा ही नहीं, तो इस लोकतंत्र के मंदिर की आवश्यकता ही क्या है? यह कोई किसा राजा का दरबार नहीं है, बल्कि एक स्वतंत्र देश के लोकतंत्र का मंदिर है, जहाँ न सिर्फ़ विपक्ष की, बल्कि पत्रकारों की, बुद्धिजीवियों की और जनता की आवाज़ न सिर्फ़ सुनी जानी चाहिए, बल्कि उस पर संज्ञान भी लिया जाना चाहिए। साफ़ ज़ाहिर है कि लोकतंत्र में जिस विपक्ष के होने को लोकतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी माना गया है, उस लोकतंत्र में जब विपक्ष ही नहीं रहेगा, तो फिर सत्ता पर जबरन क़ब्ज़ा होने में वक़्त नहीं लगेगा, जो कि देश के लिए भी ख़तरनाक है और देश की जनता के लिए भी।
मेरा मानना है कि अगर सरकार ऐसा करती है, तो इसके ख़िलाफ़ जो आवाज़ उठ रही है, वो जायज़ है। लेकिन जो पत्रकार, बुद्धिजीवी और विपक्षी नेता अब भी ख़ामोशी से यह तमाशा देख रहे हैं या फिर सरकार के साथ खड़े नज़र आ रहे हैं, उन्हें न तो पत्रकार कहलाने का हक़ है, न बुद्धिजीवी कहलाने का हक़ है और न ही नेता बने रहने का हक़ है। क्योंकि सरकार की ग़लत नीतियों के विरोध का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि कोई सरकार विरोधी हो गया, बल्कि उसका मतलब साफ़तौर पर यह है कि वह सरकार को सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर रहा है, जो कि हर लोकतांत्रिक देश के हित में है और ज़रूरी भी है। यहाँ अगर हम पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के ही शब्दों को याद करें, तो उन्होंने ख़ुद संसद में इस बात का ज़िक्र किया था कि जब वो राजनीति में नये थे और संसद में सबसे पीछे बैठते थे, तो एक बार उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा कि साउथ ब्लाक में नेहरू जी का एक चित्र लगा रहता था। मैं आते-जाते देखता था। नेहरू जी के साथ सदन में नोकझोंक भी हुआ करती थी। मैं नया था पीछे बैठता था। कभी-कभी तो बोलने के लिए मुझे वॉकआउट करना पड़ता था। लेकिन धीरे-धीरे मैंने जगह बनायी, मैं आगे बढ़ा और जब मैं विदेश मंत्री बन गया, तो मैंने देखा कि गलियारे में टंगा हुआ नेहरू जी का फोटो कहाँ है? मैंने कहा यह चित्र कहाँ गया, कोई जवाब नहीं मिला; लेकिन चित्र वहाँ फिर से लगा दिया गया।
अटल जी ने कहा था कि ऐसा नहीं था कि नेहरू जी से मतभेद नहीं थे, और मतभेद गम्भीर रूप से उभर सामने आते थे। मैंने एक बार पंडित जी से कह दिया था कि आपका मिलाजुला व्यक्तित्व है और आप में चर्चिल भी है और चेम्बरलेन भी। वो नाराज़ नहीं हुए। शाम को किसी बैंक्वेट में मुलाक़ात हो गयी और उन्होंने कहा कि आज तो बड़ा ज़ोरदार भाषण दिया और हँसते हुए चले गये। अटल बिहारी वाजपेई ने कहा कि आजकल ऐसी आलोचना करना दुश्मनी को दावत देना है। लोग बोलना बन्द कर देंगे।
यह वाक़िया सरकार को सिखाता है कि विपक्ष को किस तरह से साथ लेकर चलना चाहिए और उसकी सुननी चाहिए। लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। और यह देश के लोकतंत्र के लिए ख़तरे की सायरन है, जो लगातार बज रहा है; लेकिन उसे बन्द करने की हिम्मत किसी में नहीं है। अगर लोकतंत्र को बचाना है, तो देश के सभी तब$कों को जागना होगा और लोकतंत्र के ख़तरे वाले इस सायरन को बन्द करना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)