नबनिता देब सेन जादवपुर विश्वविद्यालय के तुलनात्मक साहित्य विभाग में प्रोफेसर रहीं और अभी 7 नवम्बर को वे नहीं रहीं। अनेक विषयों पर लघु कथाएँ, निबंध, यात्रावृत्त, कविता, बाल साहित्य और छन्द-नाट्य लिख चुकी हैं। सीता से शुरू, वामा बोधिनी, शीत साहसी हेमंत लोक आदि रचनाओं में स्त्री-पाठ की पुनव्र्याख्या करती हैं। अनेक विशिष्ट सम्मानों में वर्ष 2000 में प्राप्त पद्मश्री, साहित्य अकादमी अवार्ड, कबीर सम्मान, रवीन्द्र पुरस्कार और संस्कृति अवार्ड से नवाजी जा चुकी हैं। वे ग्रेट ब्रिटेन की रॉयल एशियाटिक सोसायटी की फैलो रह चुकी हैं और इंडियन नेशनल कम्पेरेटिव लिटरेचर एसोसिएशन की उपाध्यक्ष थीं साथ ही वे ऑक्सफोर्ड में 1996-97 में राधाकृष्ण मेमोरियल लेक्चरर रह चुकी हैं।
आधुनिक समाज में आज विमर्शों की दुनिया में जो नया हस्तक्षेप हुआ है उसमें स्त्रियों ने अपनी उपस्थिति लगातार दर्ज कराई है। नबनिता देब सेन इस दृष्टि से चन्द्रबती द्वारा रचित रामायण पर पुनर्विचार करती हैं। यह रामायण अपूर्ण है और खंडों में लिखी गई है पर यह राम के सन्दर्भ में लिखी गई रामायणों से पूरी तरह भिन्न है। इस लिहाज से वे संकेत देती हैं कि जिस युग में स्त्रियों की उपस्थिति को सिरे से दरकिनार कर दिया गया था, उस युग में भी चन्द्रबती ‘रामायण’ की पुनव्र्याख्या करते हुए उसे नए सिरे से रच रही थीं।
नबनिता अपने लेख ‘वूमेंस रीटेलिंग ऑफ द रामा-टेल : नैरेटिव स्ट्रैटजीज एम्प्लॉयड इन द चंद्रबती रामायण’ में इस बात पर बल देती हैं कि सभी विद्वान इस बात से सहमत हैं कि ‘चन्द्रबती रामायण’ में एक अपूर्ण रामायण उपलब्ध है। सभी संग्रहकर्ता, संपादक और बंगाली साहित्य के इतिहासकार इस बात के समर्थक हैं कि इसमें पूर्ण रामायण लिखी हुई प्राप्त नहीं होती। यह सिर्फ खण्डों में ही लिखी गई है। इसके अलावा यह वाल्मीकि और कृतिवास, जो महान और सीमित परम्परा के आदि स्तम्भ हैं, जो संस्कृत की शास्त्रीय भाषा और मानक बांग्ला के रामायणीय पाठ हैं, से कतई भिन्न हैं बल्कि यह अजब रूप से दक्षिण में लिखी रामायण-जैन रामायण तथा अद्भुत रामायण से सम्बद्ध दिखाई देती है–सभी लोक ‘राम कथाओं’ ‘मंगल काव्यों’ तथा व्रत-कथाओं से पाठ एवं भाषा के स्तर पर इसका दूर-दराज का सम्बन्ध ही दिखाई देता है। यह एक दूसरा ही कथा पाठ है-चन्द्रबती रामायण।
चन्द्रबती को इस नाम पर तो सम्मान मिला कि उन्होंने कौमार्य व्रत लिया था पर साहित्य के इतिहासकारों ने उनके महाकाव्य को कभी साहित्य में स्थान ही नहीं दिया। नबनिता संकेत करती हैं कि उन्होंने भी केवल उनका गाथा साहित्य ही पढ़ा है। एक दिन अचानक ही उन्हें के. मौलिक का 7वाँ खण्ड प्राप्त हो गया जिसे यूँ ही देखते हुए उनका ध्यान इस बात की ओर गया कि उनके हाथ में एक विशेष पाठ-एक स्त्री का राम-कथा का पुनर्पाठ आ गया है। यह राम-कथा एक बंगाली हिन्दू ग्रामीण औरत द्वारा पुनर्लिखित है- एक स्त्री जो दर्द जानती है, एक स्त्री जिसने साहस से ग्रामीण पूर्व बंगाल में 16वीं शती में अकेली बौद्धिक कवियित्री के रूप में काव्य रचना की राह चुनी।
सुकुमार सेन अपने साहित्य के इतिहास में न्यायचंद के चन्द्रबती गाथा लेखन के संदर्भ में चन्द्रबती के जीवन का जिक्र करते हैं। गाथा में यह उल्लेख है कि उसने रामायण लिखी तथा अपने जीवन में वह सदैव शिव की भक्त रही। हमारे साहित्य के इतिहासकारों के लिए यह सूचना किसी महत्त्व की नहीं है, वह उसके रामायण लेखन का कोई जिक्र नहीं करते, केवल उसके कौमार्य की सूचना देकर ही बात समाप्त कर देते हैं। क्या हम यह कहने की ज़रूरत है कि इस तरह शान्त रहकर किसी को कितनी सरलता से उपेक्षित और नज़रअंदाज़ किया जा सकता है? इसमें कतई आश्चर्य की बात नहीं कि शहरी शिक्षित पुरुष बिचौलियों द्वारा इतिहासकारों के रूप में इस पाठ को इस सीमा तक उपेक्षित किया गया है कि इसकी जानकारी ही नहीं मिल सकी। उनको भी क्या दोष दिया जाए। इस भिन्न प्रकार की रामायण में, राम को ही एक कोने भर में जगह मिल सकी है जहाँ वह केवल सीता के सम्बन्ध के अतिरिक्त कहीं दिखाई नहीं देते। कथा वाचन स्पष्ट रूप से बिना किसी भ्रम के सीता के जीवन को कथा के रूप में चुन कर किया गया है और यह कथा राम-कथा के परम्परागत आवरण में सीता-कथा बनती है। यहाँ ‘रामायण’ के केवल उन अंशों को चुना गया है जो सीता के जन्म से सम्बन्धित हैं जिनकी शुरुआत सीता के अतिप्राकृतिक रूप से जन्म लेने की घटना से होती है और उसकी पीड़ा की कथाओं से गुजरती है, सीता का बारोमासी उसकी गर्भावस्था, गृहत्याग, पीड़ा और धरती माँ की गोद में समा जाने का वर्णन करता है।
चन्द्रबती बने बनाए तरीके का उल्लंघन करके अपना महाकाव्य सीता के जन्म से आरम्भ करती है। नबनिता जिक्र करती हैं कि चन्द्रबती अपने महाकाव्य की शुरुआत हमें सीता की जन्म कथा विस्तार से सुनाकर करती हैं। शुरुआत के छह लम्बे भाग सीता के जन्म व उसके गर्भ में आने की जटिल कथा वर्णित करते हैं। सीता का जन्म पीड़ा के माध्यम से होता है।
एक त्रस्त साधु के रक्त और उपेक्षित मंदोदरी की मृत्यु कामना मिलकर सीता का निर्माण करते हैं और वह रावण तथा उसके वंश का विनाश करने के लिए जन्म लेती है। दुष्ट रावण ने ब्रह्मा का आशीर्वाद प्राप्त करके शक्तिशाली बनकर तीनों दुनिया के साधुओं का न केवल विनाश किया बल्कि साधुओं का रक्त एक बक्से में बंद करके रखा जिसे विष के रूप में प्रयोग करके वह देवताओं के अमरत्व का नाश कर सके। अब चन्द्रबती हमे बताती है कि उसकी पत्नी मंदोदरी कितना उपेक्षित, दुखी, अपमानित और आहत अनुभव करती है जब रावण स्वर्ग से अपहृत की गई अप्सराओं के साथ विलास में पूरा समय व्यतीत करता है। इसलिए वह उस शक्तिशाली विष का प्रयोग करने का निर्णय लेती है जो अमरत्व प्राप्त कबीले को समाप्त करने में समर्थ है। वह विष ले लेती है। पर रुको, ये क्या हुआ! उसे क्या होता है? औरत होने में ही न जाने कितने रहस्य छिपे हुए हैं। मरने की जगह वह जन्म देती है। सीता का जन्म एक अण्डे के रूप में होता है। लंका में पंडित (ज्योतिष) यह पूर्वानुमान लगाते हैं कि इस अण्डे से एक खतरनाक पुत्री का जन्म होगा जो राक्षसों के वंश का पूर्ण विनाश कर देगी। यह सुनकर रावण उस अण्डे का नाश करना चाहता है पर माता मंदोदरी इसकी अनुमति नहीं देती। वह कोशिश करके एक सोने के बक्से में उसकी रक्षा करके उसे समुद्र में बहाने के लिए रावण को तैयार कर लेती है। यह बंगाल की खाड़ी से गुजरती है और एक गरीब मछुआरे माधव जालिया को मिल जाती है। वह उस अण्डे को घर लाता है और अपनी गरीब व ईमानदार पत्नी ‘सता’ को देता है जिसके पास कुछ खाने को नहीं, पहनने के लिए नहीं पर जिसे कोई शिकायत नहीं। वह समस्त धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते हुए अण्डे की पूजा करती है। इसलिए अण्डे में छिपी लक्ष्मी सीता के रूप में उसे आशीर्वाद देती है। गरीब मछुआरा धनी हो जाता है।
इसी बीच, उसकी पत्नी सता को सपना आता है कि लक्ष्मी चाहती है कि वह अण्डा राजा जनक की पत्नी को दे दिया जाए। वह दैवीय निर्देश का पालन करती है। उसे सिर्फ यह इनाम चाहिए कि जब रानी की बेटी का जन्म हो तो उसका नाम ‘सता’ के नाम पर ‘सीता’ रखा जाए। व्यंजन और आखिरी स्वर समान है बस पहला स्वर भिन्न है। तो उस गरीब मछुआरे की पत्नी के रूप में उसे नाम प्राप्त होता है और सीता अण्डे में से जन्म लेती है। वह शास्त्रीय महाकाव्य की घटना के रूप में राजा को खेत में हल चलाते हुए प्राप्त नहीं होती। असल में राजा जनक की यहाँ कोई भूमिका नहीं है। यहाँ उसकी पत्नी ही अण्डे का ध्यान रखती है जिसमें से सीता का जन्म होता है। यह नायिका का अति प्राकृतिक रूप है जिससे बुराई का अन्त होता है। सीता का जन्म रावण और उसके वंश के पूर्ण विनाश के लिए होता है। नबनिता देब सेन इस कथा को ‘अद्भुत रामायण’ तथा ‘जैन रामायण’ और इडिपस की कथा से जोडक़र दिखाती हैं।
नबनिता अपने लेख में बताती हैं कि अगले अंश में दूसरी पुस्तक में कथा वाचक बदल जाता है और मुख्य कथा के साथ एक उप-कथा भी आती है। सीता स्वयं अब कथावाचक का रूप लेती है। वह राम के महल के आंतरिक भाग में बैठी अपनी सखियों से बात कर रही है जो उनके व्यक्तिगत अनुभवों से जुड़े हर तरह के प्रश्न करती हैं। लंका से लौटने के बाद सीता अब प्रसन्न है और मुक्त रूप से अपने बचपन, विवाह, राम की पत्नी के रूप में अपने जीवन,निर्वासन की स्थिति और अपहृत युवती के रूप में लंका में अपने जीवन का वर्णन करती है। राम का नायकत्व सीता के संदर्भ में ही निर्मित होता है। अलग से राम का नायकत्व और पुरुषत्व दोनों ही यहाँ स्थापित नहीं होते।
राम के महायशपूर्ण कार्य संक्षेप में और बेरंग रूप में थोड़े बहुत सीता के माध्यम से उनकी सखियों तक प्रेषित हुए हैं। राम का आरम्भिक जीवन यहाँ वर्णित नहीं है क्योंकि यह सीता के अनुभव के अंग नहीं हैं- इसलिए हम ताडक़ा, मारीच और सुबाहु के बारे में नहीं सुनते। हरधनुर्भंग, अवतार, निर्वासन, सोने का हिरन…. रावण की मृत्यु, इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण आदि प्रसंग बहुत हल्के रूप से छुए गये हैं। अधिकांश रंग व स्थान सीता और राम के जंगल में रोमानी प्रसंगों पर दिया गया है। जैसे वे जंगल में भ्रमण के लिए गये हों। नबनिता मानती हैं कि सीता और चन्द्रबती दोनों ने निर्वासन को खास बना दिया है।
‘चन्द्रबती रामायण’ सीता की मृत्यु के साथ अर्थात् धरती में समाने के प्रसंग के साथ समाप्त हो जाती है- और यहीं से नबनिता उसे एक नया पाठ मानती हैं- हम सब की कथा के रूप में। उनके द्वारा खोज की गई इस कृति के बारे में सुनकर हम दंग रह जाते हैं और हैरानी होती है कि साहित्य के इतिहास की किस परम्परा का हम अनुकरण कर रहे हैं जहाँ किसी रचनाकार को सरलता से उपेक्षित और नज़रअंदाज़ ही नहीं किया जाता बल्कि उसके अस्तित्व को ही नकार दिया जाता है। कहाँ सुनते हैं हम चन्द्रबती का जिक्र! शायद मुख्यधारा के साहित्य में तो कहीं ही नहीं। इस कथा में सीता सारी कथा अपनी सखियों को सुना रही है, इसीलिए ‘सुनो सखिजना’ और सुनो सर्बजना कहकर ही बात करती हैं। राम राज्य की अवधारण यहाँ टूट जाती है और राम राज्य के विपरीत सीता की सर्व-जन की अवधारणा यहाँ प्रतिष्ठित होती है7 इसे क्या माना जाए? सीता के भीतर की लोकतांत्रिक व्यवस्था या पितृसत्ता का वह विरोध जिसे स्वीकृत करने का साहस आलोचक भी नहीं दिखा सके!
नबनिता इसे आज पूर्व काल का उपेक्षित पाठ भी कहती हैं। ‘रामायण’ शब्द हमारे इस कथा वाचन/ गीत के लिए अनुपयुक्त होगा। इसे वे सीतायन कहना प्रस्तावित करती हैं- सीता की यात्रा के विविध पड़ाव। राम को वे इस कथा का केन्द्र नहीं मानती। वह सिर्फ एक उपादान हैं जिसके गलत कदमों के विरोध में सीता के कार्य-क्रियाएँ व चरित्र दिखाए गये हैं। चन्द्रबती पाठ के बीच में कभी-कभी दिखाई देती है और अपने चरित्र को स्वयं सम्बोधित करती है। वह चेतावनी देती है, उन्हें डाँटती है, उनसे संवेदना प्रकट करती है, उनके लिए खड़ी होती है और अंतत: राम को कहती है कि वह अपना मस्तिष्क खो चुके हैं और पूरे देश को उनकी बुद्धि की कमी के कारण भुगतान करना पड़ा (‘पारेर कथा काने लो एले गो निजरे सर्वोनाश/ चन्द्रबती कहे राम गो तोमार बुद्धि होइलो नाश’)सीता उन लाखों स्त्रियों का जिक्र करती हैं जिन्होंने इस युद्ध में अपने पति व संतानों को खो दिया ‘आमि तो शुइनयाचि गो लखा नारीर हाहाकार/पतिहरा पुत्रहरा गो लखा-लखा नारी/ अभिशाप दियचे मोराए गो बोरो दुखे पारी।’
नबनिता देब सेन मानती हैं कि एक तरह से स्त्री के सन्दर्भ में चली आ रही मान्यताओं का प्रतिरोध भी यहा दिखाई देता है। स्त्री को यदि दु:ख का कारण माना गया है तो संसार की रचना और परिवर्तन का कारण भी वही है। ‘चन्द्रबती रामायण’ उन्हें दो और कारणों से महत्त्वपूर्ण लगती है। चन्द्रबती बांग्ला के दो विशिष्ट कवियों माइकेल मधुसूदनदत्त तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर के महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण की पूर्वपीठिका प्रस्तुत करती हैं। सरामा को रावण के अशोक कानन की एकमात्र सखी घोषित करके (सांत्वना कोरिया राखे एक सरामा सुन्दरी) वह माइकेल के मेघनाद काव्य की कथा को ही व्यक्त करके स्त्रियों के बहनापे को स्थापित करती हैं। वह लक्ष्मण से भी अपनी उपेक्षित पत्नी उर्मिला के दुख दूर करने की प्रार्थना करती है: ‘उर्मिला दुखो तमि गो कोहरो समाधान’। इसी विषय पर टैगोर ने अपना प्रसिद्ध निबन्ध ‘काव्य उपेक्षिता’ लिखा और मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत में उर्मिला की पीड़ा का जिक्र विस्तार से किया परन्तु वह 20 वीं शती की घटना है पर 16वीं शती की बंगाल की स्त्री-वाचकों द्वारा उसे उपेक्षित नहीं किया गया।
इसी प्रकार चन्द्रबती रामायण एक अपूर्ण कार्य के रूप में साहित्य के पुरुष आलोचकों द्वारा वर्षों तक अस्वीकृत व बहिष्कृत की गई। इसे ही हम एक उपेक्षित पाठ कर सकते हैं। सम्पादकों ने इसे एक साधारण स्तर का साहित्यिक कार्य माना क्योंकि यह एक ऐसी रामायण है जो राम के गीत नहीं गाती। इसे एक अपूर्ण पाठ का दर्जा दे दिया गया। आज इसका पुन-र्पाठ एक निश्चित असफलता का पर्दाफाश करता है। यह किसी स्त्री द्वारा किया गया गलत पाठ नहीं बल्कि मिथकों को देखने की एक नई दृष्टि है। साहित्य और जेंडर को लेकर विकसित आज नई दृष्टियों के पैमाने पर जब हम इस रचना को देखते हैं तो पता चलता है कि किसी भी पाठ की कोई निश्चित दिशा नहीं हो सकती—उसकी अंतर्धाराएँ सदैव अपनी दिशाओं को खोलती और पुनर्सृजित करती हैं।
नबनिता देव सेन अब नहीं हैं पर चन्द्रबती रामायण पर लिखे उनके लेख ने मुझे भीतर तक प्रभावित किया और यह सोचने पर बाध्य किया कि साहित्य के इतिहास को लिखने की दिशाएँ ठीक वैसी ही हो सकती हैं जैसी वह हैं अथवा उसे पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है! जरूरी है कि ऐसे पाठों को देखा और खोजा जाए जो अपने काल में हस्तक्षेप तो करते हैं पर किसी न किसी कारण से भुला दिए गये हैं। क्या पता इतिहास में छुपे इन रत्नों से कोई नई दिशा और दशा प्रस्तावित हो जाए- इस दृष्टि से नबनिता देव सेन हमारे लिए कई नए संकेत निर्मित करती हैं। आँख खोलकर देखा जाए.. बहुत कुछ है, जो हमारा रास्ता देख रहा है।
(आलेख की समस्त सूचनाएँ और सामग्री के लिए नबनिता देब सेन के लेख A Woman’s Retelling of the Rama-Tale: Narrative Strategies Employed in the Chandrabati Ramayana के हम आभारी हैं जिसे Cultural Diversity, Linguistic Plurality and Literary Traditions in India(Chief Editor Dr. Sukrita Paul Kumar) में शामिल किया गया है)