पुबाली और सुनती सैकिया के चेहरे की खुशी आज देखते ही बनती है. 13 साल की पुबाली टमाटर तोड़ रही है और लगभग उसकी ही उम्र की सुनती बींस की फलियां इकट्ठा करने में लगी है. एक ही क्लास में पढ़ने वाली इन दोनों सहेलियों का उत्साह स्वाभाविक भी है. आखिर यह उनकी जिंदगी की पहली उपज जो है. ऊपरी असम मेंे जोरहाट जिले के तिताबोर उपखंड में इन दिनों ऐसे कई उदाहरण देखने को मिल जाएंगे. दरअसल इस इलाके के कई प्राथमिक विद्यालयों में ऑर्गेनिक खेती (रसायनों के इस्तेमाल से रहित जैविक खेती) की एक अनूठी पहल शुरू हुई है. इसके तहत बच्चों को औपचारिक शिक्षा के साथ खेती-किसानी से सफल उद्यमी बनने का पाठ भी पढ़ाया जाता है. फार्मप्रेन्योर नाम से शुरू हुई यह पहल ग्रामीण इलाकों के खेतिहर परिवारों के बच्चों पर केंद्रित है.
पुबाली और सुनती एक 20 सदस्यीय युवा किसान समूह की सदस्य हैं. यह समूह तिताबोर के रायदंगजुरी नागाबात प्राथमिक विद्यालय में बना है. सभी बच्चे अपने स्कूल में ही बने और 2,500 वर्ग फुट में फैले किचन गार्डन में सब्जियां उगाते हैं. इन बच्चों ने जैविक खेती के सबक का इस्तेमाल करके गाजर, मूली, टमाटर, सेम, मिर्च और पालक जैसी सब्जियां सफलता से उगाई हैं. इन सब्जियों का इस्तेमाल स्कूल में मध्याह्न भोजन पकाने के लिए किया जाता है. पुबाली कहती है, ‘हमारा किसान क्लब हमें बहुत अच्छा लगता है. मैं बचपन से ही सब्जियां उगाने में अपने पिता की मदद करती आई हूं. लेकिन वे खेत में कैमिकल खाद का इस्तेमाल करते हैं. जब मैंने अपने स्कूल के किसान क्लब के साथ काम करना शुरू किया तब मुझे पता चला कि ऑर्गेनिक खेती क्या होती है. अब हमें पता है कि वर्मीकंपोस्ट खाद (कूड़े-कचरे और कीड़ों से बनने वाली खाद) कैसे बनाई जाती है. हमें सिखाया जा रहा है कि खेती को एक कारोबार के रूप में भी अपनाया जा सकता है और यह भी कि हम खेती को बैंकिंग से जोड़ सकते हैं. बैंक में हम सबके बचत खाते खुले हुए हैं.’
पुबाली के पिता लीलाकांत सैकिया (47) ने सारी जिंदगी खेती ही की है. वे बहुत उत्सुकता से अपनी बेटी के स्कूल से वापस आने की प्रतीक्षा करते हैं. लीलाकांत कहते हैं, ‘मैं चौथी पीढ़ी का किसान हूं. हमारा पूरा गांव खेती से ही अपना पेट पालता है. खेती के बारे में जो भी जानकारी है वह हमें अपने पुरखों से मिली है, लेकिन हम रासायनिक खाद के बुरे असर से अब तक अनजान थे. मेरी बेटी ने मुझे जैविक खेती करना सिखाया, उसने मुझे वर्मीकंपोस्ट बनाना भी सिखाया. बच्चों के इस किसान क्लब ने सारे गांव को जैविक खेती करने के लिए प्रेरित किया है.’
अकेले इस सीजन में ही इस छोटे-से क्लब ने 32 किलो सब्जियां उगाई हैं. इसका अधिकांश हिस्सा स्कूल में दिन का भोजन बनाने में इस्तेमाल हुआ. बची सब्जियों को उन्होंने स्थानीय बाजार में बेचकर 320 रुपये भी कमाए. वर्मीकंपोस्ट खाद की पहले ही स्थानीय किसानों के बीच अच्छी-खासी मांग हो चुकी है. बच्चों के क्लब ने इस खाद की बिक्री करके भी 650 रुपये कमाए. इस पैसे को सबमें बराबर-बराबर बांट कर नए खुले बैंक खातों में जमा कर दिया गया.
सुनती कहती है, ‘मैंने देखा है कि मेरे पिता खेत में बहुत मेहनत करते हैं, लेकिन उसके हिसाब से पैदावार नहीं होती. मुझे नहीं लगता था कि मैं खेती से जुड़ी रहूंगी. लेकिन फार्मप्रेन्योर ने सब कुछ बदल दिया. अब हम उद्यमी किसान बनना चाहते हैं.’
इस पहल की नींव मार्च, 2013 में पड़ी थी. तब फार्म2फूड फाउंडेशन और धरित्री नामक दो स्वयंसेवी संगठनों ने एक मंच पर आकर इस पहल की शुरुआत की. फार्म2फूड फाउंडेशन के संस्थापक गौरव गोगोई कहते हैं, ‘फार्मप्रेन्योर के विचार के पीछे दरअसल खेती की प्रतिष्ठा को स्थापित करने की भावना है. इसके अलावा ग्रामीण इलाके के युवाओं को यह दिखाना है कि कैसे उनके पुरखों का पेशा आज भी कमाल कर सकता है. हमारा ध्यान इस बात पर केंद्रित है कि युवाओं के मन से यह धारणा निकाल दी जाए कि किसान गरीब और अशिक्षित होते हैं. हम उनको यह सिखाना चाहते हैं कि खेती के काम में विज्ञान, वाणिज्य और तकनीक के ज्ञान की जरूरत होती है. हमें लगता है कि यही रास्ता भारत की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है.’
फार्मप्रेन्योर योजना की शुरुआत तिताबोर उपखंड के 10 प्राथमिक विद्यालयों के साथ हुई. हर स्कूल में 20 बच्चों का एक क्लब बनाया गया. चुन गए छात्रों को ऑर्गेनिक खेती के तौर-तरीके सिखाए गए. परियोजना के निदेशक दीपज्योति सोनू ब्रह्मा कहते हैं, ‘हमने स्कूलों के चयन में सर्व शिक्षा अभियान की मदद ली. हमने बच्चों को ऑर्गेनिक खेती के बारे में जानकारी दी. हर बच्चे को एक डिब्बा दिया ताकि वे उसमें अपना वर्मीकंपोस्ट रखें. हमने उन्हें विशेषज्ञों तथा उन मॉडल किसानों से भी मिलवाया जिन्होंने जैविक खेती का इस्तेमाल करके कामयाबी पाई है.’
बच्चों के लिए इसी बात को ध्यान में रखते हुए किताबें भी तैयार की गईं. बच्चों द्वारा उपजाई गई चीजों की प्रदर्शनी लगाई जा रही है और इसके जरिए उन्हें सिखाया जा रहा है कि फसलों की कीमत कैसे तय की जाए. ब्रह्मा कहते हैं, ‘इससे कई मकसद पूरे हुए. पहला, बच्चे खेती में अपना भविष्य देख सकते हैं. अब तक रासायनिक खाद पर निर्भर रहे इस इलाके में वे जैविक खेती के अगुआ बन गए हैं. उन्हें यह भी समझ में आ गया है कि अपने बचत के पैसे को बैंक में कैसे रखा जाता है. इसके अलावा उन्हें कृषि ऋण और अपने उत्पाद की मार्केटिंग जैसी चीजों का भी ज्ञान हो रहा है.’
अभी प्रयोग के तौर पर चल रही इस परियोजना को सर्व शिक्षा अभियान आर्थिक मदद मुहैया करा रहा है. उसकी तरफ से फाउंडेशन को किताबें और कुछ और शैक्षिक सहायता दी जा रही है. तिताबोर के ही निवासी 70 वर्षीय तंकेश्वर बोरा कहते हैं, ‘सरकार को इससे सीखना चाहिए. यह सबक है कि कैसे बहुत कम खर्च वाले किसी विचार पर भी अगर ईमानदारी और गंभीरता से काम किया जाए तो वह नई पीढ़ी के मन में खेती के बीज बो सकता है. और अगर मार्केटिंग और बैंकिंग को भी इसमें जोड़ दिया जाए तो भविष्य के लिए उम्मीदों का एक भंडार बन सकता है. ये बच्चे यह भी सीख रहे हैं कि वे कैसे बिचौलियों और जमाखोरों से बच सकते हैं.’
यह परियोजना कई मायनों में सफल की जा सकती है. किताबी पढ़ाई के अलावा बच्चे नियमित कार्यशालाओं में भाग लेते हैं. दिलचस्प बात यह भी है कि इस पूरे कार्यक्रम को बेहद सावधानी के साथ बच्चों के पाठ्यक्रम से भी जोड़ा गया है. उदाहरण के लिए, परियोजना से जुड़े एक अधिकारी समीर बोरदोलोई कहते हैं, ‘कक्षा आठ में विज्ञान विषय का पहला ही अध्याय कृषि उत्पादन और उसके प्रबंधन से जुड़ा है. इसी तरह गणित में बच्चे यह हिसाब लगाते हैं कि जमीन के एक खास माप के हिस्से में कितनी उपज पैदा की जा सकती है. वे यह भी सीखते हैं कि पौधों के बढ़ने का चार्ट कैसे बनाया जाए. इसी तरह वित्तीय साक्षरता के क्रम में उनको मूल्य तय करना, बेचना, ऋण लेना और बचत खातों में पैसा जमा करना आदि सिखाया जाता है. यानी उद्यमिता की मूलभूत तैयारी.’
माना जा रहा है कि यह योजना युवाओं में कृषि को बढ़ावा देने के लिहाज से आगे एक लंबा सफर तय कर सकती है. अगली पीढ़ी के लिए यह एक शुभ संकेत है. दूसरी तरफ, यह देश के खाद्य सुरक्षा लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में भी एक छोटा-सा कदम साबित हो सकता है. राज्य की 2.52 करोड़ की आबादी यानी 52 लाख परिवार इसके दायरे में आएंगे. राज्य के नागरिक आपूर्ति मंत्री नजरुल इस्लाम कहते हैं, ‘हम ग्रामीण इलाकों की 84 और शहरी इलाकों की 60 फीसदी आबादी को इस योजना के दायरे में लाने की सोच रहे हैं.’
2013 में इस परियोजना में 17 स्कूलों के 340 छात्र शामिल थे. इस साल लक्ष्य 63 स्कूलों में 1,260 फार्मप्रेन्योर तैयार करने का है. तिताबोर के इस स्कूल के प्राध्यापक रवींद्रनाथ गोगोई कहते हैं, ‘हालांकि यंग फार्मर्स क्लब के लिए केवल 20 छात्रों का ही चयन किया जा सकता है, लेकिन समूचा स्कूल इससे जुड़ा रहता है. इसने मध्याह्न भोजना योजना के तहत बच्चों को ताजा और अच्छी गुणवत्ता वाला भोजन उपलब्ध कराने की हमारी समस्या दूर कर दी है. सबसे अच्छी बात यह है कि बच्चे खुद सब्जी उगा रहे हैं और उसे बेचकर लाभ भी कमा रहे हैं.’
पुबाली कहती है, ‘पहले मैं डॉक्टर बनना चाहती थी, लेकिन अब किसान बनना चाहती हूं. अपने पिता जैसी छोटी किसान नहीं. मेरा सपना है कि मैं बैंक से लोन लूं, और ज्यादा खेत खरीदूं और उस पर ऐसी जैविक खेती करूं कि ज्यादा से ज्यादा फसल हो.’
साफ है कि यह पहल सही दिशा में जा रही है.