अपने कार्यकाल का आधा हिस्सा बिना काम-काज किए बिता देने वाली किसी भी सरकार की छवि में गिरावट आना स्वाभाविक बात है। लेकिन कोई सरकार अगर साढ़े चार साल तक निठल्ली बनी रहे तो यह उसके लिए आत्मघात की स्थिति पैदा कर देती है। राजस्थान की भाजपा सरकार ने इसी राह पर चलते हुए अपने लिए कुआं ही नहीं खाई खोद ली। सन् 2013 में वैजयंती से लकदक भाजपा भले ही इस बार ओंधे मुंह नहीं गिरी लेकिन चुनावी अश्वमेघ के रथ का कुल जमा 73 सीटों पर ही थम जाना तो शर्मनाक ही कहा जाएगा? क्या यह वसुंधरा राजे के बड़बोलेपन का प्रताप नहीं था, जबकि बिना भव्य प्रचार और बड़े लाव लश्कर के कांग्रेस ने सौ सीटें कब्जा ली? भाजपा के लिए 2013 की जीत रिकार्ड जीत थी, जब पार्टी ने 163 सीटें जीत कर एक तिहाई बहुमत का प्रतिमान बनाया था। हालंाकि 7 दिसम्बर को खबरिया चैनलों द्वारा दिखाए गए जनमत सर्वेक्षण में खम ठोककर चुनावी आंकड़ों की नुमाइश कर दी थी, लेकिन मुखौटो की नाटकीयता वाली वसुंधरा राजे और उसके क्षत्रपों का प्रलाप जारी रहा कि, ‘हम बहुमत से सरकार बनाएंगे….।’’ इस बार भाजपा ने उत्तर प्रदेश की तर्ज पर हिन्दूत्व कार्ड खेला और बमुशिकल ही एक मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा किया, लेकिन वो भी अपनी सीट नहीं बचा सका? विश्लेषक कहते हैं कि, ‘तो क्या भाजपा के नजरिए से राजस्थान एक ध्रुवीकृत राज्य बन गया था, जहां अल्पसंख्यकों के मुखर होने पर मुमानियत हो गई थी?’हिन्दूत्व के एजेंडे पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव त्यागी का कहना था, जनता यह समझ चुकी है कि हिन्दु मुस्लिम की बात वास्तविक मुद्दों से भटकाने के लिए की जाती है, जबकि असली मुद्दा हिन्दू-मुस्लिम नहीं रोटी रोजगार का है। त्यागी का कहना था, ‘राजस्थान में बेरोजगारी की दर 13.9 प्रतिशत है। ऐसे में जनता किसी भावना में बहकर अनुचित मुद्दे से क्यों प्रभावित होती? भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह राजस्थान में ‘मिशन-180’ का लक्ष्य लेकर चले थे और चुनावी प्रचार में दिग्गजों का पूरा लाव लश्कर उतार दिया था।’ लेकिन विकास के जाप में ‘जाति और गोत्र’ दरयाफ्त किया जा रहा था। अगर भाजपा के दिग्गजों में कोई करिश्मा था, तो कहां चला गया?
यहां वरिष्ठ पत्रकार अनुराधा प्रसाद की टिप्पणी बहुत कुछ कह जाती है कि ‘कांग्रेस के पास इस रण में, बेरोजगारी,नोटबंदी,जीएसटी अहम मुद्दे थे तो भाजपा के पास मुद्दा और चेहरा सिर्फ मोदी थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजस्थान में अपनी 20 से अधिक चुनावी सभाओं में ‘केसरिया जादूगर’ का बाना पहनते हुए राफेल के जवाब में अगस्ता, वेस्टलैंड का मुद्दा जमकर उछाला। लेकिन यह पहेली वोटरों को रिझा नहीं सकी। इन मुद्दों के अंधेरे साये मध्यमवर्गीय मानस में न जाने कहां गुम हो गए? विश्लेषक कहते हैं कि, ‘प्रादेशिक फलक पर लोगों को रिझाने के लिए वसुंधरा राजे, मोदी या अमित शाह के पास क्या था? वसुंधरा सरकार की झोली में लोक कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर बताने के लिए कुछ भी नहीं था? विधायकों से दस हाथ दूरी बनाए रखने वाली राजे की बेपरवाही घाटोल क्षेत्र के विधायक नवनीत लाल निमामा की आप बीती से ही हो जाती है कि, ‘मैं आदिवासी था, इसलिए मुख्यमंत्री से मिलने के लिए मुझे बाहर बैठना पड़ता था। बड़े लोग और ठाकुर विधायक सीधे मिल लेते थे।’’
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी का यह तंज गहरी खलिश पैदा करता है कि, ‘मोदी और शाह ने इन चुनावों में हार-जीत को भले ही नाक का सवाल बना लिया,, लेकिन सभाओं में गिनाने के लिए राज्य की उपलब्धियां उनके पास थी ही कहां? थानवी कहते हैं, ”नागोर की सभा में मोदी ने कहा आप और हम सोने की चम्मच लेकर पैदा नहीं हुए। लेकिन वे शायद भूल गए कि, वे राजस्थान की चुनाव सभा में है और जहां वसुंधरा राजे खुद राज परिवार से आती हैं? सूत्रों की मानें तो अमित शाह के दखल के बाद भले ही आरएसएस चुनाव प्रचार में जुटा, लेकिन यह नजारा दो दिन ही नजर आया। असल में शाह के आग्रह के बावजूद राजे के तेवरों से बेचैन आरएसएस के लोग दो दिन ही नजर आए वो भी गिने-चुने क्षेत्रों में? विश्लेषक कहते हेैं, ‘सच तो यह है कि, इस बार भाजपा को न वसुंधरा के काम का आसरा था और न ही मोदी के नाम का? नतीजतन मोदी की सभाओं में सुनने वालों की नहीं देखने वालों की ही भीड़ थी और वेा भी गिनती की।
दिलचस्प बात है कि, ‘चुनावी सभाओं में भाजपा के दिग्गजों ने जाति और धर्म पर क्या कुछ नहीं कहा होगा? यहंा तक कि एंटी इंकबेंसी से इंकार के साथ ‘ऐसी कई एंटी इंकबेंसी घोट कर पी जाने के तल्ख दावे करने वाले अमित शाह ने क्या कम दावे किए होंगे? केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी एक प्रादेशिक दैनिक को दिए गए साक्षात्कार में एंटी इंकंबेंसी से इंकार के साथ पुन: और स्पष्ट बहुमत का दावा किया! क्या इसे लफ्फाजी में शुमार नहीं किया जाना चाहिए? राजस्थान में भाजपा दिग्गजों की सबसे ज्य़ादा चुनावी सभाओं की असलियत की कोई कैफियत देने की बजाय उनका टालू जवाब था, ‘चुनाव में लोग स्वाभाविक तौर पर कार्यक्रम मांगते हैं, इसलिए सभाएं होती है।’ जबकि इसकी तलहटी को खंगालें तो, असल में एंटी इंकंबेसी से वसुंधरा सरकार के हौंसले पस्त थे। यह स्थिति तब थी जब प्रचार तंत्र में भाजपा कांग्रेस से इक्कीस नजर आ रही थी?
नीति विश्लेषक मोहन गुरूस्वामी कहते हैं, ‘राजस्थान में भाजपा की जड़ें बहुत गहरी है। फिर भी यह हाल? मौजूदा चुनाव का नेतृत्व भले ही अशोक गहलोत ओर सचिन पायलट के हाथों में रहा। लेकिन गौर से देखा जाए तो चुनाव पूरी तरह मोदी और राहुल गांधी के बीच की प्रतिद्धंदिता में ही बदलता नजर आया। अब जबकि कांग्रेस राजस्थान समेत तीन राज्यों में जीती है तो मोदी के लिए सबसे बड़ा झटका साबित होगा। फिलहाल चुनावी नतीजों को वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी के नजरिए से देखें तो, ‘इन चुनावों में पहली बार धर्म और धर्म गुरू फेल हुए। नई पीढ़ी इनसे अपना भविष्य जोडऩे से पीछे हट जाएगी जाहिर है यही हुआ भी….।’ अब इसे मोदी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि, राज्यों में एन चुनावी शिकस्त से पहले उन्हें दो भारी झटके भी लगे। पहला झटका आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल का इस्तीफा और दूसरा-रामविलास पासवान का गठबंधन से अलग होना। विश्लेषक कहते हैं, ‘भाजपा के डावांडोल होने की यह शुरुआत है!