उत्तराखंड में शहरी निकाय चुनावों में कांग्रेस के चारों खाने चित होने के बाद आ रही प्रतिक्रियाएं बता रही हैं कि कांग्रेसी अपनी ही पार्टी के नेताओं और नौकरशाही को इस बुरी गत का जिम्मेदार मान रहे हैं. राज्य में छह नगर निगम, 28 नगर पालिकाएं और 35 नगर पंचायतें हैं. नतीजे आने के बाद भाजपा खुश है. हालांकि इन नतीजों का विश्लेषण किया जाए तो उसके लिए बहुत खुश होने वाली बात भी नहीं है.
राज्य में पिछली बार तक केवल देहरादून शहर को नगर निगम का दर्जा प्राप्त था. इस बार राज्य की पांच बड़ी नगर पालिकाओं को भी नगर निगम का दर्जा दे दिया गया था. इनमें पहली बार मेयर के चुनाव हुए. कुल छह नगर निगमों में से चार भाजपा के खाते में गए और दो पर निर्दलीय जीते. इस तरह राज्य के छह बड़े शहरों में कांग्रेस अपना एक भी मेयर नहीं जिता पाई. भाजपा ने राजधानी देहरादून सहित कुमाऊं के बड़े शहर हल्द्वानी, धर्मनगरी हरिद्वार और मैदान के महत्वपूर्ण जिले उधमसिंह नगर के जिला मुख्यालय रुद्रपुर में भी अपने मेयर जिता कर शहरी जनसंख्या के बीच भाजपा की मजबूत पकड़ साबित की है. रुड़की और काशीपुर में मेयर पद पर निर्दलीय प्रत्याशी जीते. भाजपा ने राज्य के कुल 22 निकायों में जीत दर्ज की. इतने ही स्थानों पर निर्दलीय प्रत्याशी भी अध्यक्ष के रूप में चुनाव जीते. कांग्रेस को केवल 20 सीटों पर सफलता मिली. पार्टी उम्मीदवार राज्य के महत्वपूर्ण स्थानों में हार गए. राज्य के 13 जिला मुख्यालयों में भाजपा ने पांच सीटें जीतीं तो कांग्रेस को केवल तीन से संतोष करना पड़ा. पांच जिला मुख्यालयों के निकायों के अध्यक्ष स्वतंत्र उम्मीदवार बने. राज्य के एक कर्मचारी- अध्यापक संगठन के अध्यक्ष बताते हैं, ‘जिला मुख्यालयों और कस्बों में मतदाताओं का बड़ा प्रतिशत कर्मचारी वर्ग का होता है. इन जगहों पर कांग्रेस के पिछड़ने का मतलब यह है कि कर्मचारी कांग्रेस की नीतियों से खुश नहीं हैं.’
इन चुनावों में दिलचस्प यह भी रहा कि पक्ष और विपक्ष के बड़े नेता अपने-अपने संसदीय या विधानसभा क्षेत्रों में अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को जिता नहीं पाए. केंद्रीय मंत्री और हरिद्वार के सांसद हरीश रावत के संसदीय क्षेत्र हरिद्वार में कांग्रेस एक भी शहरी निकाय की सीट नहीं जीत पाई. गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज के संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस केवल दो नगर पालिकाएं व दो नगर पंचायतें ही जीत सकी. जिस गैरसैंण की प्रस्तावित विधानसभा को कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव में गढ़वाल संसदीय क्षेत्र को जीतने का मंत्र मान रही थी वहीं कांग्रेस चौथे स्थान पर खिसक गई. मुख्यमंत्री के पुत्र की टिहरी लोकसभा सीट के तहत आने वाले देहरादून नगर निगम, टिहरी और उत्तरकाशी के जिला मुख्यालय पर कांग्रेस का प्रर्दशन फीका ही रहा. नैनीताल लोकसभा के तीनों नगर निगम कांग्रेस के हाथ नहीं आए तो इस लोकसभा में पड़ने वाली नगर पालिकाओं और पंचायतों में भी पार्टी कुछ खास नहीं कर पाई. अधिकांश मंत्रियों के विधानसभा क्षेत्रों में पड़ने वाली ज्यादातर नगरपालिकाएं कांग्रेस हार गई.
उधर, निगमों की जीत के बाद ‘निकाय में बाजी मारी है – अब लोकसभा की तैयारी है’ जैसे नारे लगाने वाले भाजपा की उपलब्धियां भी तुलनात्मक रूप में खास नहीं रहीं. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष तीरथ सिंह रावत के गृह जनपद पौड़ी में एक छोटी नगर पंचायत को छोड़ दें तो भाजपा का सफाया हो गया. पौड़ी पूर्व मुख्यमंत्री खंडूड़ी और निशंक का भी गृह जनपद है. खंडूड़ी ने पिछला विधानसभा चुनाव इसी जिले में पड़ने वाली कोटद्वार सीट से गंवाया था. तभी से भाजपा राग अलाप रही थी कि पौड़ी की जनता हार का प्रायश्चित करने को आतुर है. लेकिन यहां नगर पालिका चुनाव में पार्टी तीसरे स्थान पर खिसक गई. कोटद्वार की यह सीट बसपा की अनाम सी महिला प्रत्याशी ले उड़ी. इस युवा और अनुसूचित जाति की महिला प्रत्याशी की योग्यता कांग्रेस और भाजपा के सिफारिशी प्रत्याशियों पर भारी पड़ी. यहां कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही. गढ़वाल लोकसभा के श्रीनगर, पौड़ी, कर्णप्रयाग व गोपेश्वर जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण कस्बों में भाजपा का प्रदर्शन फिसड्डी रहा. उत्तराखंड में भाजपा की एकमात्र सांसद मालाराज्यलक्ष्मी हैं. उनके टिहरी संसदीय क्षेत्र के पर्वतीय जिलों टिहरी और उत्तरकाशी में भाजपा साफ हो गई.
[box]कांग्रेस में टिकट वितरण के समय राहुल गांधी द्वारा दिए दो महीने पहले के कड़े निर्देश कहने को ही रह गए. टिकट वितरण देहरादून के स्तर पर ही हुआ[/box]
कांग्रेस में टिकट वितरण के समय राहुल गांधी द्वारा दिए दो महीने पहले के कड़े निर्देश कहने तक ही रह गए. इस बार टिकट बांटने में आलाकमान ने भी हस्तक्षेप नहीं किया फिर भी प्रत्याशियों की योग्यता पर स्थानीय क्षत्रपों और विधायकों की गणेश परिक्रमा भारी पड़ी. चुनावों के दौरान मतभेदों के बावजूद भी भाजपा के दिग्गज एक दिखे तो कांग्रेसी चुनाव से पहले और बाद में अनर्गल बयानबाजी करते और बंटे हुए. चुनाव हारने के बाद कांग्रेसी क्षत्रप हार का कारण एक- दूसरे को बताते रहे. नगर निगमों में हारते ही कांग्रेस के प्रवक्ता धीरेंद्र प्रताप ने इस हार का एकमात्र कारण हरीश रावत के उस ‘लेटर बम’ को बताया जो निकाय चुनावों से पहले उन्होंने मुख्यमंत्री को लिखा था और कहा था कि राज्य सरकार केंद्र द्वारा स्वीकृत महत्वपूर्ण परियोजनाओं के लिए भूमि आवंटित नहीं कर रही है. इस पत्र के सार्वजनिक होने का भी समय वही था जब भाजपा सहित सभी विपक्षी दल और संगठन राज्य सरकार पर प्रदेश की औद्योगिक भूमि को औने-पौने दामों में ठिकाने लगाने का आरोप रहे थे. आरोपों के जवाब में रावत ने सार्वजनिक बयान देकर कहा कि उनके क्षेत्र के टिकट उनसे पूछकर दिए ही नहीं गए थे.
हर राज्य में शहरी निकाय चुनाव के परिणाम भविष्य में होने वाले लोकसभा या विधानसभा चुनावों में मतदाता के रुझान का हल्का प्रदर्शन होते हैं. कर्नाटक में एक साल पहले हुए शहरी निकाय चुनावों में भाजपा चारों खाने चित रही थी. हाल के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में वहां पार्टी की बुरी गत हो गई. शहरी निकाय चुनावों में इस बार उत्तराखंड में संख्या के आधार पर सबसे अधिक सीटें निर्दलीय जीते हैं. निर्दलीय जीते पार्षदों की कुल संख्या भाजपा और कांग्रेस के टिकट पर जीते पार्षदों से ज्यादा है. नतीजों पर टिप्पणी करते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व प्रदेश महासचिव व वर्तमान में राष्ट्रीय परिषद के सदस्य समर भंडारी बताते हैं , ‘उत्तराखंड में प्रमुख राष्ट्रीय दलों कांग्रेस व भाजपा की सरकारों में नित नए भ्रष्टाचार के कारनामे सामने आने से इन दोनों दलों से मतदाताओं का मोहभंग हो गया है , लेकिन राज्य में तीसरा सशक्त विकल्प मौजूद न होने से मतदाताओं ने निर्दलीय उम्मीदवारों को जिताया है.’ अब सवाल उठता है कि क्या लोकसभा चुनावों में ऐसे नतीजे देखने को मिल सकते हैं. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत इससे इनकार करते हुए कहते हैं , ‘उत्तराखंड के मतदाता लोकसभा और विधानसभा चुनावों में हमेशा बड़े चेहरों और राष्ट्रीय पार्टियों को महत्व देते हैं. यानी मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही सिमटा रहेगा.’
चुनावों के निराशाजनक प्रर्दशन के बाद पहली गाज राज्य के मुख्य सचिव आलोक जैन पर पड़ी. जैन नियम-कायदे से काम करने वाले नौकरशाह माने जाते हैं. उनकी जगह उनके वरिष्ठ बैच के सुभाष कुमार को एक बार फिर से राज्य का मुख्य सचिव बनाया गया. लचीली छवि वाले सुभाष कुमार को मुख्यमंत्री बनते ही बहुगुणा ने मुख्य सचिव पद से हटा दिया था. वे भाजपा नेताओं के करीबी माने जाते थे. चुनाव के बाद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने भ्रष्ट अधिकारियों पर गाज गिराने की बात कही. एक आईएएस, दो पीसीएस और राज्य सचिवालय के दो कनिष्ठ अधिकारियों पर निलंबन की गाज गिरी भी है. मुख्यमंत्री ने इसी बीच मंत्रियों के विभागों में भी फेर-बदल करने की संभावनाओं वाला बयान भी दिया है. इस पर पूर्व मुख्यमंत्री व राज्यसभा सदस्य भगत सिंह कोश्यारी कहते हैं ,‘जनता समझती है कि भ्रष्टाचार की गंगोत्री कहां है. कुछ छोटी मछलियों को पकड़ने की कागजी घोषणा से वह कांग्रेस के झांसे में नहीं आने वाली.’ एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता बताते हैं कि जिलों में तैनात प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी स्थानीय नेताओं के बजाय उन्हें मलाईदार नियुक्ति दिलाने वाले देहरादून में बैठे अपने राजनीतिक आकाओं की अधिक सुनते हैं. वे कहते हैं, ‘कुछ प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी तो अपनी राजनीतिक छवि बना रहे हैं. ऐसे में स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व का उभरना मुश्किल है. ‘
जानकारों की मानें तो निकाय चुनावों में फीके प्रदर्शन के बाद राज्य में कांग्रेस संगठन में परिवर्तन होने की पूरी गुंजाइश है. हिमाचल में मुख्यमंत्री के रूप में कागजी नेताओं के बजाय लोकप्रिय बीरभद्र सिंह के चयन ओर कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद पर सिद्धरमैया के चयन का फैसला गुप्त मतदान के बाद होने से इस संभावना को बल मिलता भी दिखता है. पैराशूटी मुख्यमंत्री भेजने के निर्णयों को यदि कांग्रेस में बीते दिनों की गलतियां समझा जाए तो प्रतिष्ठा और प्रदर्शन के मामले में दिन-ब-दिन प्रभावहीन होती उत्तराखंड सरकार में भी मुखिया पद पर परिवर्तन की गुंजाइश बन सकती है.