भाजपा और शिवसेना गठबंधन ने महाराष्ट्र में अपनी सत्ता बरकरार रखी है और भगवा पार्टी हरियाणा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है, लेकिन वह अपने बड़े-बड़े किए गए दावों से कम रह गई है। इस साल के लोकसभा चुनाव में अर्थव्यवस्था और आजीविका के मुद्दों पर गंभीर चर्चा से बचने के लिए भाजपा ने पुलवामा आतंकी हमले और बालाकोट हवाई हमले के सहारे राष्ट्रीय सुरक्षा की चाल चली थी। परिणाम बताते हैं कि राष्ट्रीय चुनावों में कश्मीर और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दे अधिक प्रभावी होते हैं। 2019 के आम चुनाव में अपनी जबरदस्त जीत पर जश्न मनाते हुए, भाजपा ने विपक्ष को पूरी तरह से खत्म ही समझ लिया था। इस तरह उसे एक सरल जीत की उम्मीद थी। इन दोनों राज्यों में विपक्ष की उम्मीदें बढ़ी हंै, जबकि सत्तारूढ़ पार्टी की संख्या कम हो गई है। यह भाजपा के लिए एक चेतावनी है जो यह सोच कर सुस्त हो गई थी कि विधानसभा के नतीजे लोकसभा के नतीजों की तर्ज पर ही आंएगे। हरियाणा में भाजपा को बहुमत के लिए जोड़-तोड़ करना पड़ा है। तीन नेता जो नजऱ में हैं उनमें महाराष्ट्र में नेशनल कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के संरक्षक शरद पवार, कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा और हरियाणा में जननायक जनता पार्टी के युवा नेता दुष्यंत चैटाला हैं। भाजपा को साधारण बहुमत के लिए कम से कम छह विधायकों के समर्थन की जरूरत है। दो राज्यों के परिणाम अलग-अलग मापदंडों के आधार पर बताते हैं कि लोग एक विकल्प के लिए तरस रहे थे और यही कारण है कि पहले हताश, बेजान विपक्ष को भी एक जीवन रेखा मिल गई है।, कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन ने महाराष्ट्र में 98 सीटें जीतीं और हरियाणा में, सभी को चैकाते हुए कांग्रेस 31 सीटें ले गई, जोकि 2014 में जीती 15 सीटों से दोगुनी हैं।
परिणामों में कुछ स्पष्ट संदेश हैं। सबसे बड़ा संदेश यह है कि भारतीय लोकतंत्र फिर से जीवित हो रहा है और विपक्ष के लिए अभी भी राजनीति में स्थान है। तथाकथित एक्जिट पोल, विश्लेषणों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मतदाता किसी को भी अपना दिमाग नहीं देते हैं और राजनेताओं की तुलना में अधिक चालाक होते हैं। नरेंद्र मोदी, अमित शाह और भाजपा की तिकड़ी राष्ट्रीय स्तर पर अजेय हो सकती हैं, लेकिन राज्य के स्तर पर, स्थानीय मुद्दे और स्थानीय नेता मायने रखते हैं। हालांकि, दो राज्य विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद, मोदी की रणनीति को गलत कहना और विजेता की प्रशंसा करना शायद समझदारी नहीं होगी। हरियाणा के अधिकांश मंत्री हार गए, जिसने फिर से साबित कर दिया कि अति-राष्ट्रवाद के लिए शासन में कोई जगह नहीं है। कांग्रेस और बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी यदि यहां राहुल के नेतृत्व की जगह कोई और होता क्योंकि राहलु गांधी कोई ऐसे नए विचार लोगों तक नहीं पहुंचा पाए जो उन्हें स्वीकार्य हो और अपनी ओर आकर्षित करे।