नक्शे के बिना एक मुसाफिर

जटिल से जटिल विषय को भी सरल शब्दों में सजीवता से पाठकों तक कैसे पहुंचाया जाता है इसकी मिसाल हैं  वीएस नायपॉल. नोबेल पुरस्कार विजेता नायपॉल 30 साल की उम्र तक चार उपन्यास लिख चुके थे. इनमें अ हाउस फॉर मिस्टर बिश्वास भी शामिल है जिसे 20वीं सदी की सबसे उत्कृष्ट रचनाओं में गिना जाता है. हाल ही में तहलका के चर्चित आयोजन थिंकफेस्ट में शामिल होने वे भारत आए. इस दौरान तहलका के संपादक  तरुण तेजपाल ने उनसे लेखन की दुनिया और उनके रचनाकर्म पर विस्तृत बातचीत की. प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के मुख्य अंश :

1950 के दशक में जब आपने लेखन शुरू किया तब अंग्रेजी साहित्य में औपनिवेशिक लेखन जैसी कोई चीज नहीं थी. आपको अपने लेखन के लिए सामग्री कैसे मिली?

इसकी एक वजह तो यही है कि मुझे इस बात के बारे में पता ही नहीं था. मैं तो बस किताबें लिखना चाहता था. सामग्री की समझ किताबें लिखने के बाद आई. इसके बाद बड़ी समस्या यह थी कि आगे कैसे बढ़ा जाए. कई लेखक हैं जो एक-दो किताबें लिखने के बाद शांत हो जाते हैं. मुझे बड़ी चिंता होती थी कि कहीं मेरे साथ भी ऐसा न हो. मुझे याद है कि 1960-61 में एक बड़ी किताब लिखने के बाद जब मैं पहली बार भारत आ रहा था तो मैं इसी समस्या को लेकर बड़ा परेशान था. सोच रहा था कि अब आगे कैसे बढ़ा जाए. मुझे लग रहा था जैसे मेरी आवाज चली गई है. यह बड़ी भयावह स्थिति होती है. अगर आप लेखक हैं तो एक किताब खत्म करने के बाद आपको दूसरी शुरू करनी होती है और उसके बाद तीसरी. यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होता. आज मैं 80 साल का हो चुका हूं, लेकिन मुझे आज भी लगता है कि थोड़ा और आगे बढ़ा जाए. तो शायद कह सकते हैं कि लेखन की प्रकृति के मामले में बहुत-सी नई चीजें इसीलिए मेरे खाते में आईं कि मुझे हमेशा चलते रहने की जरूरत महसूस होती रही.

कभी आपने कहा था कि आप लेखन के क्षेत्र में इसलिए आए कि आपको यह एक कुलीन पेशा लगता था. क्या यह सच है?

चीजें बदलती रहती हैं. अब मुझे लगता है कि ऐसा इसलिए हुआ कि मुझे हमेशा चलते रहने की जरूरत महसूस होती थी.

आपकी ज्यादातर सामग्री, कम से कम नॉन-फिक्शन के मामले में तो, उस जगह से आती है जिसकी पड़ताल आप खुद करते हैं. उसमें विचारधारा का बोझ नहीं दिखता बल्कि आपका नजरिया पूरी तरह से वैज्ञानिक नजर आता है. यह आपका सहज गुण था या फिर यह अभ्यास से आया?

मैं कहूंगा कि यह अभ्यास से आया. मैं काफी पहले ही नॉनफिक्शन की तरफ मुड़ चुका था. इस दिशा में सबसे पहले मुझे मुझे त्रिनिदाद के प्रधानमंत्री ने धकेला जिन्होंने कैरेबियाई द्वीपों और ब्रिटिश साउथ अमेरिका की यात्रा करके यह देखने को कहा था कि दास समाजों में किस तरह के बदलाव आए हैं. मैं मुफ्त यात्रा के इस विचार से रोमांचित था और मैंने हामी भर दी. लेखन में गहरे डूबने के बाद ही मैं समझ सका कि नॉनफिक्शन लिखना फिक्शन लिखने से काफी अलग होता है. मेरा मानना है कि एक अच्छा यात्री होने के लिए जरूरी है कि आप जब किसी जगह पर जाएं तो उसके बारे में पहले से पढ़कर न जाएं. वहां बिल्कुल खाली होकर जाएं और धीरे-धीरे उस जगह का असर अपने पर पड़ने दें. फिर उस प्रभाव से अलग-अलग विषय तलाशें.

मैं आसानी से कह सकता हूं कि जिन भी लोगों को मैंने अब तक देखा है आप उन सबमें सबसे अच्छे श्रोता हैं. आप लोगों से कैसे मिलते हैं और उनसे वह सामग्री कैसे निकालते हैं जिसकी आपको जरूरत होती है?

मिलना संयोग होता है. आपके संपर्क होने चाहिए, मगर जब आप विदेश जा रहे हों तो आपको उन संपर्कों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. मेरे पास दो छोटी नोटबुकें होती थीं. एक कमीज की जेब में और दूसरी बगल की जेब में. मैं पहले लोगों से बात शुरू करता था. उस समय मैं नोट्स नहीं लेता था. अगर मुझे कुछ दिलचस्प लगता तो मैं उस व्यक्ति से कहता कि आप जो कह रहे हैं वह मुझे काफी दिलचस्प लग रहा है मगर मैंने कोई नोट्स नहीं बनाए हैं. मैं वापस आकर एक बार फिर आपसे बतियाना चाहूंगा. फिर क्या होता था कि दूसरी मुलाकात में मैं विस्तार से लिखता. मुझे शॉर्टहैंड नहीं आती थी और न ही मेरे पास टेपरिकॉर्डर होता था. ऐसे में सामने वाला व्यक्ति बहुत धीरे-धीरे बात करना शुरू करता. दिलचस्प बात यह थी कि उस समय भले ही यह बहुत कृत्रिम होता था मगर बाद में उस मुलाकात में हुई हर बात में वास्तविकता का पुट होता. ऐसा लगता जैसे वह व्यक्ति वास्तव में पहली बार उस चीज के बारे में बता रहा हो. यह एक चीज है जो मैंने सीखी. 
एक बात और, आपको यह महसूस करना चाहिए कि जो आप लिख रहे हैं वह 20 साल बाद दिलचस्प होगा. आप अपने दिमाग में यह बात बिठा लीजिए. इससे आपको यह जानने में मदद मिलती है कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या नहीं. दरअसल टिप्स देना आसान नहीं है. आपको अपने सहज ज्ञान पर भरोसा करना पड़ता है.

फिक्शन से नॉनफिक्शन की तरफ आप कैसे मुड़े?

बहुत शुरुआत में ही मुझे महसूस हो गया था कि सामग्री के संदर्भ में जो कुछ भी मेरे अपने भीतर है, उसके मैं आखिर तक पहुंचने वाला हूं. मेरा मतलब है बचपन की बातें, जिस परिदृश्य में मैं पैदा हुआ वगैरह वगैरह. बतौर लेखक मैं सिर्फ एक किताब नहीं लिखना चाहता था. मैं चाहता था कि मेरा नाम बहुत सी किताबों पर लिखा हो. यह इच्छा चलते रहने के उस पुराने विचार से आई. अगर मैं चलता नहीं रहता तो मैं लेखक नहीं होता.

आपने भारत पर भी तीन किताबें लिखी हैं. 1964 में एन एरिया ऑफ डार्कनेस, 1977 में इंडिया :अ वुंडेड सिविलाइजेशन और 1989 में आई इंडिया : अ मिलियन म्यूटिनीज. हर किताब का अनुभव कैसा था?

लोगों को लगता है कि किताबें किसी देश की यात्रा के चरण हैं जबकि वास्तव में वे एक लेखक की जीवनयात्रा के चरण थे. अगर आप एक किताब लिखते हैं तो आप उस जगह पर फिर से जाते हैं जहां लगभग वही सामग्री होती है. फिर दोहराव का लालच काफी मजबूत होता है. मगर मुझे खुद को दोहराना कभी पसंद नहीं था. इसलिए मैंने हमेशा कोशिश की कि चलता रहूं और कुछ और करूं. इसलिए कुछ समीक्षक कहते कि पहली किताब वाले भारत का क्या हुआ. वह सारी कड़वाहट कहां गई? मैं कहता कि मैं बार-बार वही नहीं कर सकता. मैं सौभाग्यशाली रहा हूं कि इन किताबों के बारे में अब भी बात हो रही है. भारत के बारे में पहली किताब जल्द ही 50 साल पुरानी हो जाएगी.

हमें इंडिया : अ मिलियन म्यूटिनीज के बारे में बताएं. उस अनुभव के बारे में जब आप भांप गए थे कि भारत में बड़ा बदलाव आने वाला है. इतना साफ आपको कैसे लगा था?

छोटी-छोटी चीजें थीं. जैसे यह देखना कि मेरे परिचितों के यहां जो नौकर थे उनके बच्चे पढ़-लिख रहे थे. शिक्षा का एक संचयी प्रभाव होता है. यह तुरंत घटित नहीं होता मगर यह बूंद-बूंद कर इकट्ठा होता रहता है और फिर एक दिन बाढ़ आ जाती है. मैंने इसे देख लिया था.

जहां तक मुझे याद आता है 30 साल पहले आपने कहा था कि भविष्य में श्रेष्ठ प्रतिभाएं लेखन नहीं बल्कि सिनेमा के क्षेत्र में जाएंगी.

हां, मैं उस समय बहुत नाखुश महसूस कर रहा था क्योंकि मैं तब गोवा नहीं जा पाया था और इसकी बजाय उन लोगों से जल रहा था जो फिल्में बनाने के इस अपेक्षाकृत ज्यादा रोमांचकारी धंधे में थे. मुझे लगता है कि ऐसा संभव है. संभव है कि कागज पर शब्द उतारकर उन्हें छपवाना अब उतना अहम नहीं है जितना फिल्में बनाने का समकालीन चलन.

क्या आप इसे एक बड़े नुकसान के तौर पर देखते हैं? मेरा मतलब लंबे-लंबे आख्यानों के खत्म होते जाने को. सभ्यता के संदर्भ में देखें तो क्या यह एक बड़ा नुकसान है?

नहीं, नहीं. साहित्य और कला की सभी विधाओं की बात करें तो यह विकास की प्रक्रिया का ही हिस्सा है. उपन्यास के लंबे आख्यानों की आप बात कर रहे हैं तो इसकी शुरुआत 1836 में डिकेंस के साथ हुई थी. 100 साल बाद आप डिंकेस की तरह नहीं लिख सकते थे. आपको दूसरी चीजें करनी होती थीं और मुझे नहीं लगता कि भारत में भी कोई डिकेंस की तरह कुछ लिखना चाहेगा.

आपकी उन लोगों में बहुत दिलचस्पी रहती है जो हाथों से काम करते हैं. मैंने खुद अपने घर में आपको ऐसे लोगों के साथ बातचीत में मशगूल देखा है. इस पर क्या कहेंगे?

मैं लेखक हूं. मेरी दिलचस्पी हर आदमी और हर चीज में रहती है. और मुझे दूसरे लोगों के जरिए दुनिया देखना और उसे महसूस करना पसंद है. यह मैं तब से करता रहा हूं जब मैं बच्चा था. मैंने दुनिया को उस आदमी या औरत की आंखों के जरिये देखने की कोशिश की है जिसके साथ मैं होता था.