आजकल जेनेरिक दवाओं का प्रचार-प्रसार तेज़ी से हो रहा है। तक़रीबन तीन-चार साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने की पहल की थी। इसकी वजह ग़रीबों को सस्ती दवाएँ उपलब्ध कराना है। इसके लिए केंद्र की मोदी सरकार ने जन औषधि केंद्र भी खोले। लेकिन अब कुछ शिकायतें आ रही हैं कि जेनेरिक दवाओं से जल्दी फ़ायदा नहीं हो रहा है। जेनेरिक दवाओं पर मूल्य पूरे पड़े हैं; लेकिन इनमें असली दवाओं की अपेक्षा क्षमता कम होती है और इनके दाम सामान्य दवाओं की तरह ही होते हैं, जिन पर छूट देकर उन्हें बेचा जाता है। इससे लोगों को लगता है कि उन्हें दवा सस्ती मिल गयी।
यह तो सामान्य-सी जानकारी है, जो लगभग सभी के पास है। असल मामला नक़ली और घटिया दवाओं का है। भारत में कई मेडिकल स्टोर वाले इन्हीं जेनेरिक दवाओं को असली दवाओं के रेट से बेच रहे हैं। दवा ख़रीदने वालों को पता ही नहीं चल पाता कि उनके साथ क्या धोखा हो रहा है। दरअसल सामान्य दवाओं पर ही मेडिकल स्टोर वालों को 15 से 45 प्रतिशत का फ़ायदा होता है। लेकिन और ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लालची कुछ मेडिकल वाले असली यानी ब्रांडेड दवाओं के नाम पर जेनेरिक या फिर दूसरी कम्पनियों की दवाएँ मरीज़ों को थमा रहे हैं, जिसके चलते मरीज़ों को फ़ायदा नहीं होता और मेडिकल स्टोर चलाने वाले चाँदी कूट रहे हैं।
इस तरह की मेडिकल वाले की हरकत को लेकर डॉक्टर सुधांशु ने अपने एक ताज़ा अनुभव को साझा किया। डॉक्टर सुधांशु ने बताया कि मैंने एक खाँसी-जुकाम से पीडि़त मरीज़ को, जो कि पहले से ही अस्थमा का मरीज़ था मोंट एयर टेबलेट लिखी। लेकिन मेडिकल वाले ने उसे जेनेरिक मोंट एयर थमा दी और उससे सिप्ला की मोंट एयर के दाम वसूल कर लिये। मरीज़ ने पाँच दिन वो दवा खायी; लेकिन उसे कोई आराम नहीं मिला। जब वो दोबारा मेरे पास आया, तो उसने बताया कि उसे कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हो रहा है। मुझे हैरानी हुई कि ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने उसकी बीमारी का सही पता लगाने के लिए उसके चेकअप कराये; लेकिन उनमें कुछ ऐसा ख़ास नहीं था। फिर मैंने उससे कहा कि दवा लेकर मुझे दिखा देना। मरीज़ जब मेरे पास दवा लेकर आया, तो मैं हैरान था। उसके पास सारी दवाएँ जेनेरिक थीं। मैंने उससे कहा कि मेडिकल वाले के पास जाकर दवा वापस कर दो और मेरी बात करा देना। जब मरीज़ मेडिकल वाले के पास पहुँचा, तो वह मरीज़ को समझाने लगा कि दवा बिलकुल ठीक है, बस कम्पनी का फ़र्क़ है। जब मरीज़ ने कहा कि मेरे डॉक्टर से बात कीजिए, तो वह बात करने को राज़ी नहीं हो रहा था। जैसे-तैसे उसने मुझसे बात की, जब मैंने उससे कहा कि आप ओरिजनल कम्पनियों की दवा दीजिए, तो वह थोड़ी-बहुत आनाकानी करते हुए बोला ठीक है। मरीज़ मेरे पास दवा लेकर आया, मैंने दवा देखी और ठीक है कहकर मरीज़ को घर भेज दिया। तीन दिन में मरीज़ को 80 प्रतिशत फ़ायदा हो गया।
डॉक्टर सुधांशु ने बताया कि दरअसल जेनेरिक दवाओं को सरकार ने 40 प्रतिशत रेट पर बेचने की बात कही थी। इसके लिए सरकार ने अलग से जन औषधि केंद्र भी खोले। अब वही दवाएँ कई छोटी दवा कम्पनियाँ बनाने लगी हैं और मेडिकल वालों को ये जेनेरिक दवाएँ 15 से 22 प्रतिशत रेट पर मिलती हैं। इस तरह मेडिकल वालों को इन दवाओं को पूरे रेट पर बेचने पर 85 से 78 प्रतिशत तक का फ़ायदा दिखता है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि वे अपने लालच में मरीज़ों से खिलवाड़ कर रहे होते हैं।
आज पूरी दुनिया के मरीज़ नक़ली और घटिया स्तर की दवाओं के शिकार हैं, जिसके कारण हर साल 20 प्रतिशत लोगों को डॉक्टर नहीं बचा पा रहे हैं। 55 प्रतिशत मरीज़ों की बीमारियाँ आसानी से ठीक नहीं हो रही हैं। एक अनुमान के मुताबिक, दवा बाज़ार में 85 प्रतिशत खपत जेनेरिक दवाओं के अलावा नक़ली और घटिया दवाओं की हो चुकी है। नक़ली और घटिया दवाओं के चलते दुनिया में हर साल क़रीब पाँच लाख लोग जान गँवा देते हैं। इस हालत में भारत में जेनेरिक दवाओं का प्रचार-प्रसार लोगों को सस्ती दवा उपलब्ध कराने के चक्कर में किया गया, ताकि लोगों को सस्ते इलाज से ख़ुशी मिल सके; लेकिन सवाल यह है कि इसका मरीज़ों को क्या फ़ायदा मिल रहा है? इलाज तो वैसे भी सस्ता होना ही चाहिए। अगर कम पॉवर की दवाएँ सस्ते में बेची जा रही हैं, तो इसमें मरीज़ों को कौन-सी राहत मिल गयी?
एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की 40 प्रतिशत आबादी तक अच्छी कम्पनियों की दवाओं की पहुँच नहीं है। इसकी वजह इनका बेहद महँगा होना है। जिस 40 प्रतिशत की बात यहाँ हो रही है, वह ग़रीब वर्ग है और उसकी प्रति व्यक्ति औसत आय 100 रुपये प्रतिदिन से भी कम है। जब भी इस वर्ग को कोई सामान्य बीमारी होती है, तो वह उस बीमारी की गोली या तो मेडिकल स्टोर से ख़रीदता है या फिर अपने क़रीब के झोलाछाप डॉक्टर से दवा लेता है, जिसके पास सैकड़े वाली छोटी कम्पनियों की दवाएँ होती हैं। एक बार में मरीज़ से 20 से 40-50 रुपये लेने वाला यह डॉक्टर भी क्या करे? अगर वह प्रामाणिक कम्पनियों की दवाएँ मरीज़ों को देगा, तो ग़रीब मरीज़ दवाओं के पैसे ही नहीं दे सकेंगे। यह ग़रीब और गाँवों के रहने वाले मरीज़ों की ही बात नहीं है, बल्कि क़रीब 15 प्रतिशत मरीज़ शहरों में भी इसी तरह मेडिकल स्टोर से दवा लेकर या छोटे या झोलाछाप डॉक्टरों से दवा लेकर अपनी बीमारियाँ ठीक करने की कोशिश करते हैं।
हालाँकि नक़ली और घटिया दवाएँ बेचने वालों को यह मालूम होना चाहिए कि भारत में ड्रग एंड कॉस्मेटिक (डी एंड सी) अधिनियम, 1940 की धारा-17, 17(ए) और 17(बी) के तहत ख़राब गुणवत्ता वाली दवाएँ बेचना दंडनीय अपराध है। ख़राब गुणवत्ता वाली दवाओं में ग़लत ब्रांड की दवाएँ, नक़ली दवाएँ और मिलावटी दवाएँ शामिल हैं। सन् 2008 के ड्रग एंड कॉस्मेटिक अधिनियम में संशोधन किया गया और भारतीय दवा नियामक प्राधिकरण, जो केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन है; ने नक़ली, अत्यधिक घटिया और छोटे-छोटे दोषों वाली नक़ली दवाओं को क्रमश: ए, बी और सी जैसी तीन कैटेगरी में रखा है। इसमें मानक गुणवत्ता वाले यानी एनएसक्यू उत्पादों को वर्गीकृत नहीं किया है। ए कैटेगरी में नक़ली और मिलावटी दवाएँ शामिल की गयी हैं। इसमें वो नक़ली दवाएँ शामिल की गयी हैं, जिन दवाओं पर दवा बनाने में इस्तेमाल किये गये घटकों को छिपाकर किसी प्रसिद्ध ब्रांड के समान घटक लिखे होते हैं, जिससे मरीज़ों के साथ धोखा होता है। बी कैटेगरी में अत्यधिक घटिया दवाएँ शामिल हैं।
इन दवाओं में टैबलेट या कैप्सूल के लिए सक्रिय संघटक थर्मोलेबल और थर्मोस्टेबल उत्पाद के लिए क्रमश: 70 प्रतिशत और 5 प्रतिशत अनुमत सीमा से नीचे मिलता है। सी कैटेगरी में इमल्शन क्रैकिंग, फॉर्मूलेशन के रंग में बदलाव, शुद्ध सामग्री में छोटे बदलाव, अवसादन, दवा के वज़न में गड़बड़ी, परीक्षण फेल होना, दवा में मलिनकिरण और असमान कोटिंग, ग़लत लेबलिंग वाले मामूली दोषों वाली दवाओं को शामिल किया गया है। इतने पर भी नक़ली और घटिया दवाओं की बिक्री में भारत का$फी आगे है। इसकी वजह यह है कि भारत में दवाओं की सही पहचान मेडिकल सम्बन्धी पढ़ाई तो करायी जाती है; लेकिन आम लोग दवाओं की कोई ख़ास जानकारी नहीं रखते। इसके साथ-साथ कई डॉक्टर भी कमीशन और ज़्यादा कमायी के चक्कर में नक़ली और घटिया दवाएँ मरीज़ों को देने से नहीं हिचकते।
भारत जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्माता है। वहीं दुनिया में क़रीब 25 प्रतिशत तक नक़ली, घटिया और दूषित दवाएँ आज बिक रही हैं। हालाँकि एक रिपोर्ट तो यहाँ तक दावा करती है कि आज दुनिया के मेडिकल बाज़ार में 30 से 40 प्रतिशत नक़ली, घटिया और दूषित दवाएँ बेची जा रही हैं। भारत में नक़ली और घटिया दवाओं से मौत के आँकड़े नहीं मिलते हैं; लेकिन चीन में हर साल 30 से 40 हज़ार लोग नक़ली और घटिया दवाओं के कारण जान गँवा देते हैं।
जनरल फिजिशियन डॉक्टर मनीष ने बताया कि ब्रांडेड दवाओं की पहचान की कमी और चंद लालची दवा विक्रेताओं, कुछ लालची डॉक्टरों की हरकत की वजह से मरीज़ों को घटिया या नक़ली दवाएँ उपलब्ध होती हैं, जिससे उनको लाभ न होने या कम लाभ होने के अलावा ख़तरा भी बना रहता है। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए और नक़ली या घटिया दवाओं के धंधे में लगे हुए लोगों को प्रतिबंधित करना चाहिए। यह डॉक्टरों की भी ज़िम्मेदारी है कि वो अपने मरीज़ों को ब्रांडेड और सही दवाएँ ही लेने को कहें। मरीज़ों को कुछ पता नहीं होता और वो अपने डॉक्टर पर भरोसा भी करते हैं, इसलिए उन्हें धोखे से बचाना डॉक्टर की ज़िम्मेदारी बनती है।
नक़ली दवाओं के बाज़ार को कम करने के लिए ही फार्मास्युटिकल विभाग, रसायन और उर्वरक मंत्रालय ने राज्य सरकारों के सहयोग से देश भर में जन औषधि अभियान शुरू किया था। लेकिन अब उन दवाओं की पहुँच सामान्य दवा विक्रेताओं तक भी होती जा रही है। जैसा कि डॉक्टर सुधांशु ने बताया कि उनके एक मरीज़ को मेडिकल स्टोर वाले ने जेनेरिक दवा ब्रांडेड दवा के रेट में बेच दी, जिससे मरीज़ को कोई आराम नहीं मिला। इसलिए केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों के ड्रग्स कंट्रोल विभागों को मेडिकल स्टोर वालों की जांच करने की ज़रूरत है। इसके साथ ही केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को भी नक़ली और घटिया दवाएँ बेचने और बनाने वालों के ख़िलाफ़ कड़े नियम बनाने की ज़रूरत है।