कांग्रेस पार्टी पर नेहरू-गांधी परिवार के दखल को लगभग एक सदी होने को है. इस दौरान किसी न किसी रूप में परिवार का जुड़ाव कांग्रेस पार्टी से रहा है. 1919 में राहुल गांधी के परनाना जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू पहली बार अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए थे. उसके बाद से अब तक यह परिवार कभी भी पार्टी से अलग नहीं हुआ है. जवाहरलाल नेहरू जब 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष बने थे तब उन्हें यह जिम्मेदारी उनके पिता से ही स्थानांतरित हुई थी. राहुल के हालिया अभिषेक और जवाहरलाल नेहरू के अध्यक्ष चुने जाने की स्थितियों में एक अद्भुत साम्य है. पिता मोतीलाल नेहरू ने जवाहर को अध्यक्ष बनाने के लिए महात्मा गांधीजी को जो पत्र लिखा था उसका मजमून यही था कि अब नेतृत्व पर युवाओं के अधिकार को और ज्यादा समय तक रोका नहीं जाना चाहिए. तब जवाहर 27 वर्ष के थे. गांधीजी ने उनके नाम पर अपनी मुहर लगा दी. आज जब राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी में नंबर दो (यह तथ्य सर्वविदित है कि नंबर एक की कुर्सी भी उनके ही परिवार में है) की उपाधि दी गई है तब उनकी प्रोन्नति के लिए सबसे बड़ा तर्क उनका ‘युवा’ होना ही दिया जा रहा है. यह घटना एक सदी के दौरान कांग्रेसी संस्कृति में आए बदलाव की भी तस्वीर है. तब जवाहरलाल नेहरू बाकायदा लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव जीतकर कांग्रेस अध्यक्ष बने थे जबकि राहुल गांधी की प्रोन्नति शुद्ध रूप से एक नियुक्ति है. उन्हें कोई चुनावी बाधा पार करने की जरूरत नहीं है.
विपक्ष इसे दुर्गुण मानता है, कांग्रेसी प्रकाश पुंज. लेकिन इतना तय है कि इस एक नियुक्ति से कांग्रेसी कैडर में उत्साह का संचार हुआ है. 2009 के आम चुनावों में मिली अविश्वसनीय सफलता के बाद से कांग्रेस का झोला सफलताओं से रिक्त ही रहा है. इस दौरान उसके खाते में जितनी नकारात्मक सुर्खियां आई हैं उतनी सरकारों और सत्ताधारी दलों को दसियों साल में भी मयस्सर नहीं होतीं – 2जी घोटाला, सीडब्ल्यूजी घोटाला, कोल घोटाला, अन्ना आंदोलन, वाड्रा मामला, बलात्कार विरोधी प्रदर्शन आदि ने केंद्र सरकार को लगातार पिछले पांव पर रखा है. इसमें अगर कांग्रेस की चुनावी असफलताओं को भी जोड़ दें तो कांग्रेस पिछले तीन साल को एक दु:स्वप्न की तरह याद रखेगी. ऐसे अंधेरे में राहुल का ‘पुनरोदय’ हतोत्साहित कांग्रेस संगठन में तात्कालिक तौर पर एक नई ऊर्जा का संचार करने में सफल रहा है. उनके उपाध्यक्षीय भाषण ने कुछ महत्वपूर्ण नब्जों को टटोला है, कुछ जरूरी कलपुर्जों की मरम्मत की बात कही है लेकिन वे इनके ऐसा होने के पीछे के कारणों पर बात करने से साफ कन्नी काट गए. उन्होंने और भी कई बेहद जरूरी चर्चाओं को छुआ तक नहीं. ये वे जरूरी चर्चाएं हैं जिनसे निकट भविष्य में पार्टी का और उपाध्यक्ष होने के नाते राहुल का सामना होना बिल्कुल तय है.
पांच बातें जो उन्होंने कहीं
1. उन्होंने कहा, ‘ताकत का विकेंद्रीकरण करने की जरूरत है. आम लोगों के हित-अहित का फैसला कुछ मुट्ठी भर और गैरजवाबदेह लोगों के हाथ में नहीं दिया जा सकता. हमारी प्रशासनिक व्यवस्था अतीत में कहीं अटकी हुई है. लोगों की अपेक्षाएं बढ़ गई हैं. यह व्यवस्था आम लोगों को ताकत देने के बजाय उन्हें दबाती है.’ गैरजवाबदेही की सबसे बड़ी मिसाल क्या स्वयं राहुल गांधी और सोनिया गांधी को ही नहीं कहा जा सकता है? यह तथ्य सर्वविदित है कि सत्ता में कोई सीधी भागीदारी न होने के बावजूद सरकार में सिर्फ उन्हीं की चलती है और बदले में उनकी कोई सीधी जवाबदेही नहीं है. दूसरा मुद्दा सत्ता के विकेंद्रीकरण का है. पिछले आठ साल से राहुल राजनीति में हैं. इस दौरान वे युवा कांग्रेस और एनएसयूआई का कामकाज देखते रहे हैं. लेकिन इन दोनों संगठनों की दशा में अब तक कोई बड़ा लोकतांत्रिक सुधार नहीं दिखाई देता. यहां अब भी सारे निर्णय पहले की तरह ऊपर से थोपे जाने या कुछ चुनिंदा लोगों द्वारा लिए जाने का चलन है. राहुल गांधी की कोशिशों के बावजूद एनएसयूआई अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने में असफल रही है. युवा कांग्रेस में उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव की प्रणाली विकसित की थी पर उनके जाने के बाद से ही स्थितियां बेहद खराब हुई हैं. हाल ही में हरियाणा में यूथ कांग्रेस के चुनावों में भयंकर गड़बड़ी सामने आई थी. साल 2009 में उत्तराखंड के राज्य कांग्रेस सदस्यता अभियान के दौरान नेताओं ने अपने रिश्तेदारों को प्रदेश और जिला कांग्रेस समितियों में पहुंचाने के लिए सदस्यता फॉर्मों में जमकर हेरफेर की. राहुल लोगों की बढ़ी हुई अपेक्षाओं की बात तो करते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि जब-जब दलितों औऱ युवाओं ने उनसे कोई अपेक्षा की तो उन्होंने उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए उनके घर सोने या सिरे से गायब होने के अलावा और क्या किया. अगर पिछले विधानसभा चुनाव की बात की जाए तो वे अपने क्षेत्र अमेठी की ही जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरते ही नहीं दिखते.
2. उन्होंने कहा, ‘हम आज नेतृत्व के विकास पर ध्यान नहीं देते. आज से पांच-छह साल बाद ऐसी बात होनी चाहिए. पहले फोटो हुआ करती थी कांग्रेस पार्टी की. नेहरू, पटेल, आजाद जैसे बड़े कद के नेता हुआ करते थे. उनमें से कोई भी देश का पीएम बन सकता था. हमें हर प्रदेश में ऐसे 40-50 नेता तैयार करने हैं. हर जिले, हर ब्लॉक में ऐसे नेता होने चाहिए. ‘समस्या यह है कि जो बात वे कह रहे हैं उनकी पार्टी बार-बार इसके विपरीत आचरण करती रही है. जब तक पार्टी में जरूरी लोकतंत्र स्थापित नहीं होगा इतने सारे नेता कैसे पैदा हो सकते हैं? मौजूदा राजनीति की सच्चाई यह है कि राज्यों में कोई भी ऐसा कद्दावर नेता दिल्ली में बैठे नेतृत्व को स्वीकार्य नहीं है जो बाद में उनके लिए ही खतरा बन जाए. आंध्र प्रदेश में हमने देखा कि पार्टी ने किस तरह से जगन मोहन को किनारे लगा दिया. ज्यादा पीछे न जाकर हाल के उत्तराखंड विधानसभा के नतीजों पर नजर डालें तो इसी कांग्रेस पार्टी ने राज्य के कद्दावर नेता हरीश रावत को किनारे लगा कर राजनीति के नौनिहाल विजय बहुगुणा को राज्य की कमान थमा दी. जबकि वे राज्य की राजनीति में कहीं से भी स्टेकहोल्डर नहीं थे. लिहाजा इस मुद्दे पर राहुल को जुबानी जमाखर्च से आगे बढ़ना बड़ी चुनौती होगी.
एक सिरे से देखने पर यह बहुत साहसिक लगता है कि कोई नेता अपनी कमियों को स्वीकार करके बदलाव की बात कर रहा है. मगर कुछ लोग राजनीति की शब्दावली में इसे ‘विरोध की भावना पर सवारी करना’ कहते हैं.
3. उन्होंने कहा, ‘जमीन पर हमारा कार्यकर्ता काम करता है. यहां हमारे जिलाध्यक्ष, ब्लॉक अध्यक्ष बैठे हैं. टिकट देते समय उनसे पूछा नहीं जाता. ऊपर से निर्णय ले लिया जाता है. होता क्या है कि दूसरे दल के लोग आखिरी समय में पार्टी में आ जाते हैं, टिकट पा जाते हैं, चुनाव हार जाते है और वापस चले जाते हैं. कांग्रेस कार्यकर्ता की इज्जत होनी चाहिए.’ यह समझना बहुत मुश्किल है कि राहुल किस ‘ऊपर’ की बात कर रहे हैं. उनके अलावा ऊपर कौन है? इस विरोधाभास को हाल के एक उदाहरण से समझना आसान है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश कांग्रेस कमेटी का पुनर्गठन किया गया. निर्मल खत्री प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए. एक तो निर्मल खत्री राज्य के तीन प्रमुख जातिगत समीकरणों (ब्राह्मण, यादव ठाकुर) में से किसी में भी फिट नहीं बैठते लिहाजा इस नियुक्ति से सबके साथ स्वयं खत्रीजी को भी आश्चर्य हुआ होगा. ऊपर से पहली बार पार्टी ने जिला और प्रदेश कांग्रेस कमेटियों के इतर एक नई जोनल व्यवस्था लागू कर दी है. पूरे प्रदेश को आठ जोन में बांटकर उनके जोनल इंचार्ज दिल्ली से नियुक्त कर दिए गए हैं. यह विचित्र विरोधाभास है, एक तरफ वे कह रहे हैं कि ऊपर से आने वाले का सम्मान नहीं होगा दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में दिल्ली से भेजे गए जोनल इंचार्ज 2014 के लोकसभा उम्मीदवारों का फैसला करेंगे. फलस्वरूप प्रदेश कमेटी शोभामात्र बनकर रह गई है. इस नई व्यवस्था से पैदा हुई दुविधा को दूर करने के लिए निर्मल खत्री को बयान देना पड़ा कि जोन प्रमुख अलग इकाई के रूप में काम नहीं करेंगे बल्कि उन्हें भी एक टीम के रूप में काम करना होगा. राहुल कह रहे थे कि दूसरी पार्टियों से आए लोगों को टिकट दे दिया जाता है. सच यह है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया था और पार्टी ने 25 फीसदी टिकट सपा-बसपा कार्यकर्ताओं को दिया था.
4. उन्होंने कहा, ‘हम ज्ञान का सम्मान नहीं करते, हम सिर्फ पद का सम्मान करते हैं. आप कितने विद्वान हैं यह मायने नहीं रखता, अगर आपके पास कोई पद नहीं है तो आप किसी लायक नहीं है.’ राहुल गांधी ने यहां एक गंभीर नब्ज पर हाथ रखा है. स्वयं उनकी माता सोनिया गांधी ने पद ठुकराने के मामले में एक मिसाल कायम की है. राहुल ने भी इस मामले में जल्दबाजी नहीं दिखाई है. लेकिन पद पर ज्ञान की सत्ता वे कैसे स्थापित करेंगे इसका कोई रास्ता उन्होंने नहीं दिखाया है. मणिशंकर अय्यर जैसा नेता सरकार से बाहर है. जयपाल रेड्डी जैसों का मंत्रालय पूंजीपतियों के दबाव में बदल दिया जाता है. दूसरी बात यह कि वे किस ज्ञान की बात कर रहे हैं- किताबी ज्ञान जिससे मनमोहन सिंह ताल्लुक रखते हैं या फिर व्यावहारिक ज्ञान जिसका सरोकार भारत से हो. विरोधाभास यहां भी है.
5. उन्होंने कहा, ‘मैं सब कुछ नहीं जानता हूं. दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो सब कुछ जानता है. मैं कहना चाहता हूं कि जहां से भी जानकारी मिलेगी मैं उसे ढंूढ़ूंगा. मैं आपसे पूछूंगा आपसे सीखूंगा.’ राहुल की नियुक्ति युवा राजनीति के हल्ले में हुई है. ऐसे में एक खतरा यह भी है कि बदलाव की तेज चाल पुराने कांग्रेसियों में बेचैनी का भाव भर सकती है. साथ ही यह दिखाना भी जरूरी है कि उनमें सीखने की प्रवृत्ति है. लिहाजा राहुल ने बिल्कुल सही बिंदु पर अपनी बात समाप्त की है.
उपर्युक्त बातों का क्या निष्कर्ष है? एक तो यह कि राहुल ने आत्ममंथन की प्रवृत्ति दिखाई है. एक सिरे से देखने पर यह बहुत साहसिक लगता है कि कोई नेता अपनी कमियों को स्वीकार करके बदलाव की बात कर रहा है. मगर कुछ लोग राजनीति की शब्दावली में इसे ‘विरोध की भावना पर सवारी करना’ कहते हैं. यानी सामने वाला सवाल उठाए उससे पहले अपनी कमियों को स्वीकार कर अपने खिलाफ बनी हवा को अपने प्रति सहानुभूति में बदलने की कोशिश करना. राहुल गांधी और उनके प्रबंधकों को पता है कि देश का मिजाज उनके विरुद्ध है. वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक योगेंद्र यादव के शब्दों में, ‘अतीत में राजनेता एंटी इन्कमबेंसी की सवारी करते रहे हैं. कई बार यह सफल भी रहा है. पर इसके लिए काल, समय और दशाएं बहुत विशिष्ट होनी चाहिए. दुर्भाग्य से राहुल गांधी के लिए स्थितियां फिलहाल विशिष्ट नहीं हैं. हालांकि अवसर उनके पास कई बार थे पर तब वे पूरी तरह असफल रहे. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समय वे जंतर मंतर या रामलीला मैदान जाकर ऐसा कर सकते थे. रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ जब भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे तब वो एक पहल कर सकते थे. पर वे चूक गए.’
पांच मुद्दे जो उन्होंने छुए ही नहीं
1. सिर्फ एक महीने पहले दिल्ली की सड़कों पर युवाओं का एक रेला निकल पड़ा था. 23 वर्षीया एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना ने दिल्ली समेत पूरे देश में विरोध की हवा चला दी थी. दस दिन तक लोग राजपथ पर विरोध प्रदर्शन करते रहे थे. मनमोहन सिंह सरकार के सामने अन्ना आंदोलन के शांत होने के बाद यह सबसे बड़ी चुनौती पेश आई थी. इस आंदोलन के दबाव में सरकार ने कई कदम भी उठाए हैं. लेकिन राहुल गांधी ने इतनी बड़ी घटना का अपने पहले उपाध्यक्षीय भाषण में जिक्र करना तक मुनासिब नहीं समझा. इससे उस आशंका को बल मिलता है जिसके मुताबिक राहुल गांधी जटिल मसलों पर चुप्पी साध लेते हैं.
2. इसी साल के अंत में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं. ये राज्य हैं-मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम. ये चुनाव एकदम लोकसभा चुनावों की देहरी पर होने हैं. आम चुनावों की दिशा बहुत कुछ इन राज्यों के चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगी. इनमें से दो कांग्रेस के पास हैं, दो भाजपा के पास. लेकिन इतनी महत्वपूर्ण राजनीतिक चुनौती का उन्होंने कोई जिक्र तक करना मुनासिब नहीं समझा. उपाध्यक्ष के तौर पर राहुल की पहली राजनीतिक परीक्षा यही चुनाव होगी.
3.2009 में यूपीए-2 अगर सत्ता में वापस लौटा तो इसके पीछे आंध्र प्रदेश की भूमिका सबसे बड़ी थी. इस सूबे ने कांग्रेस को 30 से ज्यादा लोकसभा सांसद दिए थे. दुर्भाग्य से कांग्रेस का यह दिव्य पुंज फिलहाल ध्वस्त नजर आ रहा है. जगन मोहन के रूप में एक ताकतवर हिस्सा पार्टी से अलग हो चुका है. तेलंगाना का मुद्दा पार्टी में 2009 से ही लटका है. लोकसभा चुनाव से पहले इस पर कोई निर्णय लेना ही पड़ेगा. लेकिन राहुल गांधी ने इतने महत्वपूर्ण मसले पर भी अपने विचार दर्ज नहीं करवाए.
2009 में यूपीए-2 अगर सत्ता में वापस लौटा तो इसके पीछे आंध्र प्रदेश की भूमिका सबसे बड़ी थी.4. राजनीति में जुमला है: दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश और बिहार से होकर जाता है. लोकसभा की 545 में से 120 सीटें इन्हीं दो राज्यों से आती हैं. यानी लगभग 22 फीसदी सीटें. 2009 में कांग्रेस की सत्ता वापसी की एक वजह उत्तर प्रदेश में मिली अविश्वसनीय सफलता भी थी. पर आज इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की हालत पतली है. दोनों राज्यों की सत्ता से कांग्रेस को बाहर हुए अब दो दशक से ज्यादा बीत चुके हैं. राहुल गांधी यहां भी चूक गए. इन दोनों राज्यों की बैसाखी के बगैर कांग्रेस 2014 का संग्राम फतह नहीं कर सकती. लेकिन राहुल के भाषण में इस स्थिति को सुधारने या कोई वैकल्पिक रास्ता तलाशने का विचार लुप्त है.
5. इस वर्ष में आर्थिक विकास की दर पिछले एक दशक के दौरान सबसे कम रही है. संस्थागत विदेशी निवेश औंधे मुंह गिर पड़ा है. आर्थिक मोर्चे पर मंदी का प्रभाव है. बीते एक दशक से जगमगा रही भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले दो साल के दौरान गर्तोन्मुखी रही है. लेकिन राहुल गांधी ने अपने बयान में इस विषय को पूरी तरह से अछूत माना है.
निष्कर्ष यह है कि राहुल गांधी का भाषण भावनात्मक बुनियाद पर खड़ा किया गया था, इसमें राजनीतिक बयान का सर्वथा अभाव है. इसके अभाव में राहुल नेता तो बन सकते हैं, ‘राजनेता’ (स्टेट्समैन) नहीं.
अपने उपाध्यक्षीय भाषण में राहुल ने कुछ महत्वपूर्ण नब्जों को टटोला है, कुछ जरूरी कलपुर्जों की मरम्मत की बात कही है लेकिन साथ ही कुछ बहुत जरूरी चर्चाओं को वे गोल कर गए हैं
राहुल एंटी इंकमबेंसी की लहर पर आगे बढ़ना चाहते हैं. लेकिन राहुल के लिए समय और दशाएं ठीक नहीं हैं. अन्ना आंदोलन या फिर रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ लगे आरोप के समय वे ऐसा कर सकते थे