मुसीबतें जीवन का एक हिस्सा हैं। लेकिन अपने लिए कोई जानबूझकर मुसीबत मोल नहीं लेता। पर लेते हैं; भारतीय जानबूझकर मुसीबत मोल लेते हैं। सदियों से मुसीबतें मोल लेते आये हैं। हैरत यह है कि भारतीय मुसीबतों का समाधान भी नहीं खोजते। क्योंकि वे बँटे हुए हैं। किसी एक तबक़े पर मुसीबत आती है, तो दूसरा तबक़ा सोचता है कि यह उसकी अपनी मुसीबत नहीं है। सब पर मुसीबत आती है, तो सोचते हैं कि क्या कर सकते हैं, परेशानी तो सभी को है।
कुछ लोग अपने फ़ायदे की सोचते हैं। इसी तरह सब कुछ चल रहा है और एक-एक करके मुसीबतें भारतीयों के सिर पर बढ़ती जा रही हैं। हैरत है कि इन मुसीबतों से निपटने का रास्ता निकालने की चिन्ता न भारत सरकार को है और न लोगों को। कोरोना महामारी एक बार फिर बढ़ रही है। उस पर यूएन की रिपोर्ट द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वल्र्ड 2022 ने उस भारतीय अन्न भण्डार की पोल को खोलकर रख दिया, जिसका दम भरते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से कहा था कि भारत के पास एक अरब 40 करोड़ लोगों के लिए पर्याप्त भोजन है। द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वल्र्ड 2022 की रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् 2019 के बाद से लोगों का भूख से संघर्ष बढ़ा है। दुनिया भर में सन् 2021 में 76.8 करोड़ कुपोषण का शिकार हुए, जिसमें बड़ी संख्या में भारतीय हैं। रिपोर्ट बताती है कि भारत में 22.4 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं। शर्म की बात है कि यह आँकड़ा पूरी दुनिया के एक-चौथाई से अधिक लगभग 29 फ़ीसदी है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2021 की रिपोर्ट भी भारतीयों को शर्मसार करती है। यह रिपोर्ट कहती है कि भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खाद्य उत्पादक देश है। दूध, दाल, गेहूँ, चावल, मछली और सब्ज़ी उत्पादन में दुनिया में पहले स्थान पर है। फिर भी यहाँ एक बड़ी आबादी कुपोषण की शिकार है।
चलिए अब भारत में भुखमरी के पिछले 15 साल के ग्राफ को जाँचते हैं। 15 साल पहले भारत की आबादी जब लगभग 118.32 करोड़ थी, तब भारत में कुल 25.557 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार थे। यह संख्या उस समय की आबादी का 21.6 फ़ीसदी थी। अब भारत की जनसंख्या 1,39,44,20,224 है। (यूनाइटेड नेशन के आँकड़ों के अनुसार, 26 जुलाई 2021 तक), तब भारत में 22.4 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार हैं।
यह संख्या भारत की कुल वर्तमान आबादी का लगभग 16.4 फ़ीसदी हैं। इसका मतलब अगर कोरोना वायरस की आफ़त नहीं आती, तो भारत मे कुपोषण का स्तर कम होता। फिर भी आबादी के लिहाज़ से पहले से कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या कम हुई है। फिर भी कुपोषण की दोनों ही रिपोर्ट भारतीयों के लिए शर्मनाक हैं। शर्मनाक इसलिए भी, क्योंकि दुनिया के दूसरे देशों में कुपोषित लोगों का फ़ीसदी कम हुआ है, जबकि भारत में दुनिया के मुक़ाबले बढ़ा है। कृषि प्रधान देश में यह स्थिति बताती है कि लोगों को भरपेट भोजन मिलने के मामले में कोई समानता नहीं है। भारत में 15 से 49 की उम्र तक के 3.4 करोड़ लोग अधिक वज़न के शिकार हैं। चार साल अधिक वज़न के शिकार लोगों की संख्या 2.5 करोड़ थी। यूएन की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में भूख से लड़ाई के मोर्चे पर सफलता बहुत धीमी गति से हासिल हुई है।
भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं कुपोषण की शिकार अधिक हुई हैं। सन् 2019 में भारत में एनिमिया की शिकार महिलाओं की संख्या लगभग 17.2 करोड़ थी। सन् 2021 में यह संख्या बढ़कर 18.7 करोड़ हो गयी। इस तरह भारत में कुपोषित महिलाओं की संख्या दो साल में डेढ़ करोड़ बढ़ी। 18 जनवरी, 2022 को देश की सर्वोच्च अदालत के सामने जब भारत सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने कहा था- ‘भारत में एक भी मौत भुखमरी से नहीं हुई है।’ उसी वक़्त मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना के साथ पीठ में शामिल न्यायमूर्ति एस. बोपन्ना और न्यायमूर्ति हिमा कोहली ने कहा- ‘क्या हम इस बात का पूरी तरह से यक़ीन कर लें कि भारत में एक भी मौत भुखमरी से नहीं हुई है? क्या इस कथन को रिकॉर्ड में लिया जाए?’
इस सवाल पर सफाई देते हुए अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल बोले- ‘राज्यों ने भुखमरी से होने वाली मौत के आँकड़े नहीं दिये हैं, लिहाज़ा उन्हें इसके लिए जानकारी लेनी होगी।’ सरकार का इस तरह भुखमरी और उससे होने वाली मौतों को छुपाने का प्रयास बताता है कि बदनामी से बचने के लिए वह बड़ी ख़ामोशी के साथ लोगों को भूखों मरते देख सकती है। राइट टू फूड कैंपेन की रिपोर्ट बताती है कि सन् 2015 से सन् 2020 तक 13 राज्यों में भुखमरी से कुल 108 मौतें हुईं। विशेषज्ञ कहते हैं भुखमरी से मौत के आँकड़ों में स्पष्टता नहीं है। इन मौतों की अलग स्पष्ट पहचान के मानक भी नहीं हैं। इन सबके बीच अब दुनिया में आर्थिक संकट का ख़तरा मँडराने की चर्चा ज़ोरों पर है। कहा जा रहा है कि मुद्रास्फीति उस मुकाम पर पहुँच गयी है, जो बीते कई दशकों में नहीं देखी गयी थी। हैरत की बात है कि भारत में दो साल के कोरोना के दौरान भारत में 30 से ज़्यादा अमीरों की सम्पत्ति दोगुनी हो गयी। वहीं आम भारतीय की औसत सम्पत्ति सात फ़ीसदी कम हुई है। दुनिया में भी यही स्थिति है। कोरोना के इन दो वर्षों में 11 फ़ीसदी अमीर दुनिया में बढ़े हैं। इस समय दुनिया के कुल अमीरों की संख्या 13,637 है।
याद रहे अमीरों की इस सूची में 10, 20, 50 करोड़ वाले लोगों की गिनती नहीं है। आर्थिक मंदी रोकने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरें बढ़ाने जैसा क़दम उठाया है। समझ नहीं आता कि आख़िर लोगों को निचोडऩे से आर्थिक संकट कैसे ख़त्म होगा? वह भी तब, जब भारत में रोज़गार के अवसर घट रहे हैं और ग़रीबी बढ़ रही है। अमेरिकी सूचकांक में लम्बे समय से गिरावट का सिलसिला जारी है। विशेषज्ञों की आर्थिक मंदी की आशंका अगर सच साबित होती है, तो इससे भारतीय जीडीपी पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा। भारत की अर्थ-व्यवस्था पहले ही चरमराती दिख रही है। आर्थिक जानकार कह रहे हैं कि आर्थिक मंदी अगले ही महीनों में आने वाली है। वहीं कुछ आर्थिक विशेषज्ञ 2023 में आर्थिक मंदी की सम्भावना जता रहे हैं।
ऐसे समय में जब आर्थिक मंदी की चिन्ता की जानी चाहिए भारतीय धर्म के झगड़े में पड़े हुए हैं। धर्म की आड़ में देश को सुलगाने की एक साज़िश हो रही है। देश को सुलगाने की कोशिश करने वालों की अति यह है कि अगर कोई एक धार्मिक चिंगारी लोगों की एकता के चलते बुझ भी जाती है, तो तत्काल दूसरी चिंगारी उनके बीच फेंक दी जाती है। आजकल तो हिन्दू और मुस्लिम खुलकर आमने-सामने हैं। धार्मिक विवाद के बाद गले काटे जा रहे हैं। उसका वीडियो बनाया जा रहा है। जिन्हें इस सबसे लाभ हो रहा है, वो यही चाहते हैं।
हैरत की बात यह है कि इन साज़िशों पर कोई अख़बार लिखता नहीं है, कोई चैनल डिबेट नहीं करता है। अब तो ख़बरों को तय करने का सम्पादकों का स्तर भी समझ से परे है। अभी हाल ही में जब हिन्दू-मुस्लिम विवाद चरम पर रहा, तब नूपुर शर्मा के बयान की फ़िज़ूल चर्चा और उसके बाद कन्हैया की हत्या पर हंगामे की ख़बरें प्रमुखता से सुर्ख़ियों में थीं। लेकिन कुपोषण की ख़बर को प्रमुखता से उठाने की हिम्मत किसी ने नहीं की। उदयपुर और अमरावती की घटनाएँ बेशक शर्मनाक हैं, लेकिन रोज़ाना भूख से मरते हुए लोगों की हत्याएँ भी तो शर्मनाक हैं। माना जा रहा है कि भारत में भूख से रोज़ाना हज़ारों बच्चे, बड़े और बुज़ुर्ग मर रहे हैं। धर्म के नाम पर भड़कने वालों को इसकी चिन्ता क्यों नहीं है? आख़िर यह भी एक प्रकार की हत्या है। फिर इससे निपटने के लिए क्यों न रोज़गार दिये जाएं? धार्मिक झगड़े के बजाय मेहनत क्यों नहीं की जाए? जिससे असहाय लोगों की भूख मिटायी जा सके। अब भारत को खाद्यान्न और ज़्यादा चाहिए, क्योंकि यह दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश होने जा रहा है।