बनारस, वाराणसी और काशी के नाम से विख्यात नगरी शताब्दियों से तोड़-फोड़, दंगा-फसाद के बावजूद सामाजिक समरसता और अलबेली संस्कृति का केंद्र रही है। आज फिर वह तोड़-फोड़ और ध्वंस के दौर से गुजऱ रही हैं इसके लिए प्रदेश की भाजपा सरकार जिम्मेदार है। जो अपनी संकरी गलियों के लिए सारी दुनिया में चर्चा में रही काशी को जापान के क्योटो की तरह बनाने में जुटे हैं।
नगर प्रशासन और उत्तरप्रदेश सरकार काशी की संस्कृति को बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मदद से इस नगरी की प्राचीन संस्कृति के साथ खिलवाड़ कर रही है। काशी की जिन गलियों में वाराणसी और बनारस की आत्मा थी उसे देश और विदेश के अति महत्वपूर्ण सैलानियों की खातिर नष्ट किया जा रहा है। यह सब हो रहा है शहर सुंदरीकरण के नाम पर। इसे वे लोग नष्ट कर रहे हैं जो न धार्मिक हैं और न पढ़े-लिखे। वे यह नहीं बताते कि किस ग्रंथ या शस्त्र या वेद में यह लिखा है कि हनुमान दलित थे। क्या दलितों के साथ यह मजाक नहीं है। जबकि हनुमान एक प्रतीक है मानव-पशु संबंधों के जो मानव के प्रति अगाध श्रद्धा ने असंभव को संभव कर देते हैं।
आज जिस भक्ति और श्रद्धा की आड़ में काशी की सुंदरता को बढ़ाने के नाम पर जो विनाश किया जा रहा उसे देख कर इतिहासवेत्ता, बुद्धिजीवी, प्राध्यापक, छात्र और तीर्थयात्री बेहद अचंभित हैं। उत्तरप्रदेश सरकार प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी योजना के तहत 25 हजार वर्ग मीटर में मर्णिकार्णिका घाट और ललिता घाट से काशी विश्वनाथ मंदिर तक 40-40 फीट के दो कॉरिडोर बना रही है। 600 करोड़ रुपए मात्र के इस खर्च से फिर प्रदेश और देश के अति महत्वपूर्ण विशिष्ट जन अपनी गाडिय़ों के काफिले के साथ बाबा काशी विश्वनाथ की ड्योढी तक जा सकेंगे। फिर उसके दर्शन कर वे गंगा का दर्शन और भव्य आरती का आनंद ले सकेंगे।
उत्तरप्रदेश की भाजपा सरकार ने नगर प्रशासन के जरिए अपनी इस महत्वाकांशी योजना को अमल में लाने के लिए काशी के प्राचीन इतिहास धार्मिक महत्व, संस्कृति को ध्वंस करने की मुहिम तेज कर दी है। जिन संकरी गलियों से कभी आजादी के रणबांकुरे ब्रिटिश सेना से बचते-बचाते भाग निकलते थे, इन्ही संकरी गलियों में रहने वाले रईसों से विदेशी आक्रमणकारियों ने खुद को भी बचाया और अपनी आस्था केंद्रों को भी। इतिहासकारों के अनुसार जब मुगलिया सल्तनत कमजोर हुई तो प्रभावशाली हिंदुओं ने कई मंदिरों का निर्माण किया बल्कि अपने घरों में उन्हें स्थान दिया। लेकिन वाराणसी सुंदरीकरण प्रशासन और उनकी सहयोगी कंपनियां इस धार्मिक-आस्था के केंद्रों को मटिया मेट करने में जुटी है।
उत्तरप्रदेश सरकार की सहमति पर वाराणसी प्रशासन ने प्राचीन काशी के पक्का मोहाल में जो ध्वंस कार्यक्रम चलाया है उसने मुगलों और अंग्रेज सल्तनत तक को पीछे छोड़ दिया है। यदि बात करें काशी के पक्के मोहाल की तो वहां हुए ध्वंस आयोजन के शिकार 17वीं, 18वीं और 19वीं सदी के भव्य मंदिर और मूर्तियां भी हुई ।
कुछ इतिहासकार जो ध्वंसीकरण के बाद इन गलियों की ओर गए उन्होंने बताया कि ध्वंस में छोटे-बड़े 43 प्राचीन मंदिर भी ध्वंस की चपेट में आए। मलबे में कई दुर्लभ विग्रह मिले हैं। पक्के मोहाल में मकान नंबर सीके 34/267 में एक विश्वनाथ मंदिर मिला है जो वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना था। इस मंदिर में शिवलिंग है और नंदी भी। मंदिर के नीचे रथ बने हैं और सभी खंभों पर कीचक।
औरंगजेब की सल्तनत जब परवान थी तो उसने काशी विश्वनाथ मंदिर नष्ट करने की सोची। उसकी सल्तनत के पतन के बाद कई नए मंदिर घरों में बने। इन्ही में है काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसका पुनरूद्धार रानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1717 में कराया था।
काशी विश्वनाथ मंदिर के मुख्यकार्यकारी अधिकारी विशाल सिंह बताते हैं कि काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर को विकसित करने के लिए 296 मकानों को गिराने की पहचान की गई थी। इनका अधिग्रहण किया गया। इन्हें खरीदा गया फिर ध्वस्त किया गया। अब फिर 42 मकानों के खरीदने और ध्वंस करने की प्रक्रिया चल रही है। अब तक तीर्थयात्री गंदी, बदबूदार, अंधेरे वाली गलियों से जाते थे। अब वे साफ सुथरे रोशनीदार कॉरिडोर से विश्वनाथ मंदिर पहुंच सकेंगे। वे सीधे मणिकर्णिका घाट, ललिता घाट पंहुच सकेंगे।
सिंह का कहना है कि ध्वंस के बाद जो भी महत्वपूर्ण मंदिर, वास्तुकला के नमूने, विग्रह और कीचक आदि मिले हैं। उनकी कार्बन ड्राईंग करवा कर पुरात्व विभाग कॉरिडोर में उन्हें शीशे में सज़ा दे। पास ही परिचय भी लिखा जाए। इस तरह प्राचीन गलियों में मिली धरोहरों का संरक्षण भावी संग्रहालय में किया जाएगा।
उन्होंने बताया कि उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने दिसंबर 2017 में इस पूरी परियोजना के लिए 600 करोड़ रुपए मात्र की मंजूरी ली थी। काशी विश्वनाथ मंदिर ने भी प्रशासन को 183 करोड़ रुपए मात्र आबंटित किए हैं। इस पूरी परियोजना की चपेट में जो दुकानदार और किराएदार आ रहे हैं उनके पुनर्वास की योजना भी बनी हुई है।
वाराणसी में दशकों अध्ययन, अध्यापन करने वाले और भारतीय जनता पार्टी में ‘थिंक टैंकÓ माने जाने वाले गोविंदाचार्य ने चार दिसंबर को काशी का दौरा किया। वे वहां पं. कमलापति त्रिपाठी की पुरानी कोठी और रमन जी का आवास ढूंढते रहे। अपने अतीत के बनारस वर्तमान बनारस और भविष्य के बनारस की कल्पना में वे कहीं अंदर तक हिल गए। ठिठके हुए देखते रहे, पुराने भवनों के अवशेष, गलियों की जगह उबड़-खाबड़ मैदान। गोविदाचार्य से स्थानीय लोगों ने भी भेंट -मुलाकात की बातचीत की। गोविंदाचार्य ने कहा,’काशी के लोगों ने तीन-चार सौ साल पहले से अभी हाल तक देवी-देंवताओं की मूर्तियों को अपने घरों में पूरे भक्ति भाव से रखा था। अब उन्हें मंदिरों से मूर्ति कब्जा करने का अपराधी बताया जा रहा है।Ó वे इस बात पर विस्मित थे कि कैसे एक सरकार अपनी जनता को चोर और अपराधी करार दे सकती है। आखिर में उन्होंने काशी विश्वनाथ बाबा के दरबार में जाकर बाबा को प्रणाम किया और गलियों से निकल गए।
बनारस का पक्का मोहाल अब बाहरी दुनिया के लिए एक तिलिस्म की तरह बन गया है। वहां घर और मंदिरों को जितनी तेजी से तोड़ा जा रहा है उतनी ही तेजी से प्राचीन धरोहरों को चुरा कर उससे कमाई करने वालों की सक्रियता भी बढ़ी है। वह नही मालूम कि पुलिस पहरे में ध्वंस पर अमल करने वाले प्रशासन ने क्यों इन सफेदपोश तस्करों के खिलाफ सजगता बरती या नहीं। पुरानी धरोहरों पर कब्जा जमाने वाले अधिकारियों, नेताओं,
बुद्धिजीवियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई या नहीं।
यह सवाल काशी की जनता का है। इसलिए क्योंकि विकास और सुंदरीकरण का हथौड़ा सबसे पहले गणेश के सिर पड़ा। फिर भारत माता के मंदिर, सरस्वती की प्रतिमा, राधाकृष्ण की मूर्ति, कई शिवलिंग, नवग्रह, आदि विकास की चपेट में आ गए। एक ध्वंस 1992 में अयोध्या में हुआ। दूसरा ध्वंस काशी में अब भी जारी है। दोनों ही ध्वंस
आज़ाद भारत में हुए। अपनी ही चुनी सरकारों के राज में।
‘काशी का इतिहासÓ में डा. मोतीचंद्र ने लिखा है। जो प्रमाणित भी है कि प्राचीन काशी जो थी वह आधुनिक काल में राजपुर गाँव, आशापुर, तिलमापुर, सारनाथ के पास के तिलमापुर गाँव, काशी रेलवे स्टेशन और राजघाट के पास बसी थी। प्रोफेसर डा. विदुला जायसवाल भी अपनी पुस्तक ‘आदिकाशी से वाराणसी तकÓ में यही कहती है।
इसके पहले सत्र में पक्का महाल में मंदिर तोडऩे के मुद्दे पर बहस हुई। प्रस्ताव पास हुए। दूसरे सत्र में गंगा पर बने बांधों को तोडऩे का प्रस्ताव पास हुआ। लेकिन मीडिया और प्रशासन को धर्म संसद के पास प्रस्ताव ज़रूरी लगे। यहां राममंदिर निर्माण का ही बुखार छाया रहा। क्या मजबूरी थी?
बनारस के पक्का माहाल के ललिता घाट की जादुई गली पर कभी मशहूर फोटोग्राफर रधुराय भी खासे फिदा रहे। वे भोर से सांझ ढले तक गलियों में ही धूमते दिखते। संस्कृति की इस गली की यह खूबसूरती है कि इसके अंतिम सिरे से पूर्व में मुडने पर आप ललिता घाट पहुंचेंगे जबकि दूसरे सिरे से पश्चिम में मुडऩे पर विश्वनाथ मंदिर।
यह पूरा मंदिर लकड़ी का बना है। इसमें लकडी पर ही स्त्री-पुरुष की विभिन्न मुद्राओं में आकर्षक आकृतियां उकेरी गई हैं। शारीरिक संबंधों को लेकर पहले जो भारतीयों का खुलापन था वह बाद में संकीर्ण सोच बन गया। यहां रहने वाले भी अब अपना सब कुछ बेच कर भागने की तैयारी में हैं।
नष्ट करके ही कुछ नया करना चाहते हैं।
तकरीबन 100 साल पहले तक सिल्क व्यापार का प्रमुख केंद्र बनारस था। तब ढाका, लाहौर, काबुल तक के व्यापारी काशी आते और लाला अनंत राम के यहां पहुंच कर सिल्क ले जाते । लाला जी मूलत: पंजाबी थे। उन्होंने काशी में भव्य कोठी बनवाई थी। इसे बनाने में 20 साल लगे। इस कोठी में नक्काशी का जो काम है वह निर्माण के 84 साल बाद भी बुलंद है। बाबा काशी विश्वनाथ मंदिर से यह लगभग तीन सौ मीटर दूर है। इस कोठी से ललिता घाट और गंगा का किनारा महज चार सौ मीटर दूर है। यहां से काशी का प्रतिष्ठित व्यापारिक केंद्र लगभग एक फरलांग की दूरी पर है।
आज़ादी के बाद लाला अनंत राम लाहौर से अपना व्यापार समेट कर बनारस आ गए और यहीं रहे। उनकी कोठी में आज भी उनके वंशज है। पक्का महाल क्षेत्र के समाजसेवी मुन्ना मारवाड़ी बताते हैं कि इस इलाके में अनेक ऐसे घर हैं जो वास्तुकला और ऐतिहासिकता के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं। लेकिन आज वे विश्वनाथ कॉरिडोर और गंगा पाथवे की चपेट में आ गए।
काशी की गली संस्कृति के रक्षक
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद
बनारसी संस्कृति और जीवन शैली बनाए रखने की लड़ाई को धार दी स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने। उन्होंने नवंबर में 25 से 27 नवंबर 2018 में गोवर्धन गाँव में धर्म संसद आयोजित की। देश के विभिन्न प्रदेशों के साधु-संत-विद्वान इसमें आए। स्वामी स्वरूपानंद ने इस तीन दिवसीय बैठक को संबोधित किया। जल पुरूष राजेंद्र सिंह भी इसमें थे। उन्होंने कहा,’कुछ लोग सुनियोजित तरीके से सत्यमेव जयते को झूठमेव जयते बनाने के लिए सक्रिय हैं।
काशी के पक्का महाल में विकास और सुंदरीकरण के बहाले से हो ध्वंस चल रहा है उसके पीछे बाजारवादी सोच है। स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का कहना है कि हमारे धार्मिक स्थलों को पर्यटन स्थलों में तबदील करने की यह चाल है। आप आज 300 रुपए का टिकट खरीद कर मंदिर में बाबा का दर्शन कर सकते हैं। अन्यथा घंटों लाइन में खडे रहिए। यह है धर्म को बाजार में ढालना।
इसी साल फरवरी- मार्च में क्षेत्रीय नागरिकों ने ‘धरोहर बचाओं संघर्ष समितिÓ बना कर शासन को तोड-फोड से विरक्त करने की चुनौती दी थी। विश्वनाथ मंदिर व्यापार मंडल ने भी इसे समर्थन दिया। दुकानें बंद हुई। लेकिन मीडिया इन गतिविधियों पर चुप्पी साधे रहा। मीडिया यह ज़रूर गिनता रह कि विश्वनाथ कॉरिडोर से क्या-क्या फायदे होंगे। हालांकि तोड़-फोड़ करने वालों के पास कॉरिडोर का कोई नक्शा या ले आउट प्लान तक नहीं था। अभी एक महीने पहले गुजरात में अहमदाबाद की एक कंपनी को टेंडर के जरिए नक्शा बनाने का काम सौंपा गया है।
राजनीतिक दल मसलन समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और वामपंथी संगठनों ने ज़रूर नागरिकों के ‘धरोहर बचाओÓ आंदोलन को समर्थन दिया लेकिन धीरे-धीरे वे अलग होते गए। आखिर में पक्का महाल की ‘धरोहर बचाओÓ सबघर्ष समिति के न्यौते पर स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जुड़े। उन्होंने कई दिन तीन-चार घंटे पदयात्रा कर हकीकत समझी। फिर लड़ाई में शामिल हुए। उन्होंने पदयात्रा की , जनजागरण, किया ओर उपवास पर भी बैठे। फिर धर्म संसद का तीन दिनी आयोजन किया।
का राजा ऐसे होई बनारस का विकास
भारतीय शिक्षा – के विकास संस्कृति और सभ्यता में काशी की गलियों का खासा महत्वपूर्ण स्थान है। काशी में बिना गाली निकाले बातचीत करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह लड़ाई का हथियार भी है। जीतने और हारने वाली दोनों ताकतें एक दूसरे को गुरियाते हुए अपनी बहादुरी का प्रदर्शन करती हैं। अगर यहां की गलियां और गरियाने की कला जाननी समझनी है तो चाय-पान की फड़ी पर कुछ देर बैठ कर आप जान-समझ सकते हैं।
काशी के कथाकार काशाी नाथ सिंह का उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पढ़े या उस पर बनी फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ देखें लीजिए। उपन्यासकार राही मासूम रजा ने ‘यह भारत’ की पटकथा लिखी थी। उन्होंने अपने उपन्यास ‘आधा गांव’ में गालियों का इस्तेमाल किया। हालांकि यह उपन्यास बनारस के पड़ोसी जिला गाजीपुर में आज़ादी के दौर के एक पिछड़े गांव को केंद्र में रख कर लिखा गया। आज़ादी के बाद साठ के दशक में जब कुछ विकास होता दिखा ओर राजनीति भी अपनी विदू्रपता के साथ गहराने लगी तो श्रीलाल शुल्क का उपन्यास ‘राग दरबारी’ आया। यह लखनऊ के पास के एक गांव को केंद्र में रख कर लिखा गया। तब भी आज की ही तरह स्कूल-कालेज खोलना पीढिय़ों तक पारिवारिक कमाई का जरिया था। ‘राग दरबार’ के पात्र भी गालियों का खूब आदान-प्रदान करते दिखते हैं।?
भारतीय खासकर पूर्वांचल के गांवों-कस्बों में शादी -विवाह पर गाली गीत गाने की प्रथा रही है। यह प्रथा अब धीरे-धीरे गांवों में भी खत्म हो रही है।
बनारस में ‘हर हर महादेव’ का प्रयोग खासतौर पर शंकर के लिए होता है लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में जब नरेंद्र मोदी बतौर प्रत्याशी बनारस संसदीय क्षेत्र से चुनाव क्षेत्र में आए तो उनके स्वागत में ‘हर हर मोदी’ और ‘घर-घर मोदी’ की नारेबाजी होती। इसी पक्का महाल के लोग तब उछल-उछल कर यह नारा लगा रहे थे। अब ‘गुजरात का विकास माडल’ उनके घरों पर दस्तक दे रहा है। वे हतप्रभ उसे चुपचाप निहार रहे हैं। बोल भी नहीं पा रहे हैं।
पक्का महाल में विकास हथौड़ा चला रहा है। आना-जाना मुश्किल है। रात में मलबे ढोते गधे और खच्चरों की आवाज लोगों को जगाए रखती है। विकास की इस विद्रूपता से यहां के लोग अब अचंभित हैं।