महान् लेखक, कवि, नाटककार एवं दार्शनिक वाल्तेयर लिखते हैं- ‘हमारे सम्मान का पात्र वह है, जो हमारे मस्तिष्क पर सच्चाई के साथ प्रभाव डालता है; वह नहीं जो हिंसा के माध्यम से प्रभुत्त्व स्थापित करता है।’
हालाँकि भारतीय राजनीति व समाज में ऐसे लोग दुर्लभ हो गये हैं, जो कर्म एवं वचन से सम्मान पाने के उत्तराधिकारी हों। सदैव विवादित तथा कोलाहलपूर्ण वातावरण में अपना आधार खोजना भारतीय राजनीति का एक दुर्गुण रहा है। इसीलिए ज्ञानवापी मामले के बीच ही पैगम्बर के तथाकथित अपमान के मुद्दे पर देश की सियासत गरमायी हुई है। नूपुर शर्मा एवं नवीन जिंदल के निष्कासन के साथ ही अंतत: भाजपा ने इस मामले के पटाक्षेप का प्रयास किया; लेकिन ये विवाद थमता नहीं दिख रहा। 70 के दशक से धार्मिक एकता के नाम पर वोटबैंक की जो राजनीति शुरू हुई, वह 90 के दशक तक धार्मिक ध्रुवीकरण में बदल गयी। वर्तमान विवाद उसी प्रक्रिया का अगला चरण है। छद्म पंथनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टिकरण की जो राजनीति कांग्रेस सपा और राजद जैसे दलों ने की, उसी के प्रतिपक्ष में जनसंघ और उसकी उत्तराधिकारी पार्टी भाजपा ने भी धार्मिक, व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा बुलंद किया।
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भाजपा के इस आश्चर्यजनक उत्कर्ष में विपक्ष का तुष्टिकरण और भाजपा के धार्मिक ध्रुवीकरण का बराबर योगदान है। असल में इस समय हिन्दुत्व का नारा भाजपा के हाथ एक ऐसे ब्रह्मास्त्र की तरह लग गया है, जिसका इस्तेमाल वह अपनी सफलता के साथ-साथ नाकामियों को छिपाने के लिए आसानी से कर रही है। उसी के समानांतर विपक्ष अपनी तुष्टिकरण की नीति को और दृढ़ता के साथ लेकर आगे बढ़ा रहा है। सत्य यही है कि सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, यहाँ कोई भी उचित के साथ नहीं, बल्कि अपनी अनुकूलता के साथ खड़ा है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि पिछले कुछ वर्षों में धर्म एवं पन्थ के मुद्दों ने देश के सभी आवश्यक सामाजिक-राजनीतिक मसलों को नेपथ्य में धकेल दिया है। जबकि अभी हमारे सामने कई ऐसे मूलभूत प्रश्न हैं, जिन पर भारत के भविष्य के राजनीतिक-सामाजिक जीवन को ध्यान में रखते हुए विचार करना आवश्यक है। कई दफ़ा घटनाओं की विकरालता के प्रभाव के कारण उनकी वास्तविकता या उनमें निहित कारणों की अनदेखी कर दी जाती है।
धार्मिक-पंथीय आस्था व मान्यताएँ समाज के लिए आवश्यक होती हैं। लोक संस्कृतियों में उनकी उपयोगिता भी है। किन्तु उन्हें देश व समाज की रक्षा से ऊपर प्राथमिकता देना अनुचित है। डॉ. लोहिया भारतीय राजनीति में जातिवाद को एक बीमा की तरह मानते थे; लेकिन सबसे उत्तम श्रेणी का बीमा तो धर्म हो गया है। देश के राजनीतिक दल धर्म के सुविधाजनक मुद्दे से आगे बढ़ ही नहीं पा रहे हैं। ज्ञानवापी पर चैनल्स की मुर्ग़ा-कुश्ती से उपजे विवाद में अब अरब देशों के कूद पडऩे के बाद यह मामला सुलझने के बजाय और उलझता जा रहा है। इसमें संशय नहीं है कि नूपुर शर्मा का बयान ग़लत था; लेकिन अरब देशों का भारत के आंतरिक मामले में दख़ल देना भी उचित नहीं है। डच सांसद गिर्ट वाइल्डर्स ने नूपुर शर्मा के बयान का समर्थन करके और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने उसका विरोध करके वैश्विक स्तर पर एक लम्बी बहस को जन्म देने का प्रयास किया।
इस पूरे विवाद के मूल दोषी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के मंच हैं, जो बहुत आसानी से आग लगाकर बच जाते हैं। इस मामले में मीडिया को भी वादी बनाया जाना चाहिए। पिछले एक दशक से भारतीय न्यूज चैनल्स पर होने वाले वाद-विवाद (डिबेट) दुनिया के सबसे ग़ैर-ज़रूरी कार्यक्रम बन गये हैं। इनसे सिर्फ़ उन्मादी भीड़ पैदा होती है। किसी भी टीवी डिबेट को देखिए, आपको एक भी संतुलित बयान नहीं मिलेगा और न ही कोई सार्थक बात सुनने को मिलेगी। आख़िर तक आप नहीं समझ पाएँगे कि इस बहस का निष्कर्ष क्या निकला? कई दफ़ा डिबेट के मसले ही अनौचित्यपूर्ण होते हैं। विभिन्न न्यूज चैनल्स पर में बुलाये जाने वाले लोगों के व्यक्तित्व, योग्यता, कार्यानुभव से दर्शक बहुत हद तक अनभिज्ञ होते हैं। यहाँ तक कि वे किस संस्था और किस समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं; इसका भी समुचित ज्ञान नहीं होता। ऐसे लोगों को न्यूज चैनल्स द्वारा उकसाया जाता है, जो ग़ैर-ज़िम्मेदाराना तथा उत्तेजक बयान देते रहते हैं। कभी-कभी तो इनकी भाषा इतनी अभद्र होती है कि चैनल बदलना पड़ जाता है। ऐसा सिर्फ़ अपरिचित चेहरों के साथ नहीं है, बल्कि राजनीति के परिचित चेहरे भी इससे अलग नहीं हैं। चैनल्स पर चलने वाली बहसें देश की राजनीति का विद्रूप चेहरा दिखा रही हैं।
कुछ समय पूर्व एक टीवी डिबेट के दौरान अति-उत्तेजना में कांग्रेस के प्रवक्ता राजीव त्यागी की हृदय गति रुक जाने से मृत्यु ही गयी थी। एक अन्य बहस में भाजपा एवं सपा के प्रवक्ता आपस में मारपीट करते नज़र आये। ऐसे और भी अभद्र व्यवहार वाले दृश्यों को यह न्यूज चैनल्स बड़ी ही रुचि के साथ प्रसारित करते हैं। यह समझ पाना कठिन है कि न्यूज चैनल्स का इन कार्यक्रमों के पीछे वास्तविक मंतव्य क्या है? ये आख़िर देश के राजनीतिक विमर्श को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? ऐसा लगता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस देश को हिंसा की आग में झोंककर ही रहेगा।
याद कीजिए, जब राम मन्दिर विवाद मामले में उच्चतम न्यायालय का निर्णय आने वाला था, तब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ऐसा माहौल बना रखा था, मानो सड़कों पर दोनों समुदायों के लोग हिंसा करने को तैयार बैठे हैं और निर्णय आते ही देश में गृह युद्ध छिड़ जाएगा। लेकिन वास्तविकता में सामान्य जनजीवन बिलकुल शान्तिपूर्ण था। हाँ, एक उत्सुकता ज़रूर थी। लेकिन ऐसा कोई अशान्ति का माहौल नहीं था, जैसा मीडिया ने बना रखा रखा था। रूस-युक्रेन युद्ध को ही लें, तो इस दौरान भारतीय मीडिया के उग्र एवं ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये की विश्व भर में काफ़ी आलोचना हुई थी। अगर कभी यह देश हिंसा की आग में झुलसा, तो उसकी पूरी ज़िम्मेदारी आज की घटिया राजनीति और भोंपू मीडिया पर ही पड़ेगी। स्पष्ट शब्दों में कहें तो आज जिस तरह से पत्रकारिता का स्तर गिरा है, उसके लिए सबसे ज़्यादा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ज़िम्मेदार है। किसी भी व्यवसाय के अपने आंतरिक द्वंद्व होते हैं; लेकिन एक व्यवसाय के रूप में मीडिया ने नैतिकता के सारे प्रतिमान ध्वस्त कर दिये हैं। व्यावसायिक लाभ के लिए पत्रकारिता जैसे सम्मानित और ज़िम्मेदार पेशे को किस तरह कलंकित एवं अपमानित किया जा सकता है, इसका सबसे पुख़्ता उदाहरण आज के दौर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रस्तुत कर रहा है।
एक दौर था, जब किसी व्यक्ति द्वारा ख़ुद का परिचय एक पत्रकार के रूप में देने पर लोग उसे सम्मान की नज़र से देखते थे। आज पत्रकार होने का अर्थ अविश्वास व शंका हो गया है, जो हास्यास्पद है। कई बार तो बहुत गम्भीर पत्रकार अपना परिचय इस रूप में देना भी पसन्द नहीं करते। आज पत्रकारिता कई ख़ेमों में बँटी हुई है। कोई सत्ता के साथ है, तो कोई विपक्ष के। किन्तु कोई भी भारत के लोकतंत्र के साथ खड़ा नहीं दिख रहा है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। यह प्रजातंत्र में जनता की आवाज़ होता है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि भारत का मीडिया तो ख़ुद ही सत्ता एवं पूँजीवाद के सामने नतमस्तक है। इसके साथ ही मुस्लिम पक्ष की उग्रतापूर्ण प्रतिक्रिया की भी आलोचना होनी चाहिए। इस मामले में मिली सहानुभूति को उन्होंने अपनी जाहिलियत और स्तरहीन विरोध के कारण गँवा दिया। किसी व्यक्ति का दोष तय करना, उसे दण्ड देना न्यायालय व क़ानून का काम है। मुस्लिम पक्ष द्वारा जिस प्रकार की अभद्र भाषा में नूपुर शर्मा एवं नवीन जिंदल को मारने, घर जलाने, सिर क़लम करने और हाथ काटने जैसी धमकियाँ जिस तरह से सोशल मीडिया पर दी जा रही हैं, वो नितांत ही असभ्य, अशोभनीय एवं ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हैं।
इसके अतिरिक्त अपने पंथीय सम्मान को लेकर व्यग्र रहने वाले मुसलमानों का एक समूह टीवी डिबेट ही नहीं, बल्कि ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्स ऐप और इंस्टाग्राम जैसी सोशल मीडिया साइट्स पर भी सनातन समाज के विरुद्ध उकसावेपूर्ण और अनर्गल बयानबाज़ी करता रहता है। शिवलिंग को लेकर की जाने वाली अभद्र टिप्पणियाँ इसका प्रमाण हैं, जिसके उत्तर में सनातन पक्ष द्वारा भी इसी तरह की बयानबाज़ी की गयी। इसमें भी अपुष्ट एवं भ्रामक ख़बरों का प्रयोग होता रहता है, जिससे समाज में उत्तेजना और अराजकता फैलती है। इस पर भी लगाम कसना ज़रूरी है। क़ुरआन की सूरह अल कहफ़ की आयत संख्या-6 के अनुसार, ‘ऐ ईमान वालो! अगर कोई बिन-भरोसे की तबीयत वाला आदमी तुम्हारे पास कोई ख़बर ले आवे, तो उस बात की जाँच कर लिया करो। कहीं ऐसा न हो कि बेख़बरी, नादानी में किसी क़ौम पर जा पड़ो, फिर तुमको अपने किये पर पछताना पड़े।’
यह सीख सभी के लिए उपयोगी है। किसी भी लोकतंत्र के लिए धर्म, संस्कृति, राजनीति, समाज इत्यादि से जुड़े विभिन्न विषयों पर बहस-मुबाहिसे से चलना आवश्यक है। लेकिन भारत में समस्या यह है कि इन दिनों बहस के सारे मुद्दे सिर्फ़-और-सिर्फ़ धर्म पर केंद्रित हो गये हैं। ऐसी सोच विघटनकारी साबित होगी। स्वधर्म के प्रति आग्रह में कोई बुराई नहीं, किन्तु जब यह भावना अन्य धर्म, समाज या उनसे जुड़े लोगों के प्रति दुराग्रह रूप ले लेती है, तब यह विखंडनवाद को धार देते हुए राष्ट्र तथा समाज के लिए अनिष्टकारी सिद्ध होने लगती है। दुर्भाग्य यही है कि हमारा देश अब तेज़ी से धार्मिक टकराव की तरफ़ बढ़ रहा है, जिसमें सभी पक्ष बराबर के दोषी हैं। उचित हो कि हम सब त्वरित प्रयास से नियति से किये गये अपने वादे पर क़ायम रहें और सभी धर्मों में पढ़ाये गये अहिंसा के पाठ को याद रखे।