इन दिनों उत्तर प्रदेश में धर्म-परिवर्तन का मामला काफ़ी तूल पकड़े हुए है। इस मामले में कुछ लोगों को गिरफ़्तार भी किया गया है और कुछ की तलाश में पुलिस बतायी जा रही है। ख़ैर, पहले भी उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश में लाखों लोगों ने धर्म-परिवर्तन किया है। लेकिन किसी का जबरन धर्म-परिवर्तन कराना गुनाह है। स्वार्थवश भी धर्म-परिवर्तन अनुचित और अधर्म का कार्य है। लेकिन स्वेच्छा से न यह गुनाह है और न ही अनुचित। ऐसा विद्वतजनों का कहना है।
लेकिन मेरे कुछ सवाल हैं। पहला यह कि धर्म किसने बनाये हैं? दूसरा धर्म का अर्थ क्या है? धर्म कहता क्या है? धर्म का उपयोग किसके लिए और क्यों किया जाता है? क्या कोई धर्म किसी को ख़ुद से बँधे रहने के लिए बाध्य करता है? क्या धर्म का ढिंढोरा पीटने वाले लोग वास्तव में धर्म पर चलते हैं? क्या धर्म किसी को जबरन अपनाने की अपील करता है? या किसी को जबरन अपनी शिक्षाएँ मनवाने के लिए बाध्य करता है? क्या दुनिया में कोई ऐसा पवित्र व्यक्ति है, जो यह सिद्ध कर सके कि वह उन्हीं पूर्वजों की सन्तान है, जिनका न तो कभी धर्म बदला गया, न धर्म डिगा और न किसी अन्य धर्म अथवा जाति के किसी स्त्री / पुरुष का उसके कुल में संसर्ग हुआ है? मेरी नज़र में तो एक भी नहीं है। यानी खुले तौर पर कहना पड़ रहा है कि दुनिया में कोई भी विशुद्ध धर्म या विशुद्ध जाति का नहीं है। अगर किसी का धर्म उसके पूर्वजों के समय से एक है, तो उसकी जाति विशुद्ध नहीं है।
इसीलिए मैं धर्म-जाति के पचड़े में नहीं फँसा। क्योंकि मैं जानता हूँ कि ईश्वर एक है। जीवात्मा एक है। प्रकृति एक है। वायु एकमेव है। जल एकमेव है। ब्रह्माण्ड एक है। यानी सब कुछ अद्वैत है। अगर कुछ द्वैत है, तो वो हैं हमारे अलग-अलग विचार, हमारी अपनी-अपनी समझ। अगर धर्म की बात करें, तो मेरी नज़र में वही व्यक्ति धर्म के मार्ग पर है, जो किसी का नुक़सान किये बिना, किसी का बुरा सोचे बिना, किसी को दु:ख पहुँचाये बिना, किसी को आहत किये बिना, किसी की हत्या किये बिना, किसी के प्रति द्वैष रखे बिना, ईश्वर और उसकी सृष्टि तथा सृष्टि के प्राणियों से किसी भी तरह की शिकायत किये बिना अपनी मेहनत के दम पर जीवनयापन कर रहा है। कौन है ऐसा? यहाँ तो सब स्वार्थ के वश में हैं और स्वार्थ साधने के लिए कुछ भी कर बैठते हैं। यहाँ तक कि उन माँ-बाप को भी दु:ख पहुँचाने से नहीं चूकते, जिन्होंने जीवन दिया है। मेरी नज़र में माँ-बाप को दु:ख पहुँचाने वाले लोग ईश्वर की शरण में भी चले जाएँ, तो भी धर्म और उनका कर्म उन्हें क्षमा नहीं करेगा। ऐसे लोग दिन-रात पूजा, नमाज़, प्रार्थना में भी बैठे रहें, तो भी अधर्मी ही कहे जाएँगे। इसी तरह बाक़ी धर्म कार्यों में से एक में भी ख़रा न उतरने पर भी कोई व्यक्ति धर्म के मार्ग पर नहीं माना जा सकता।
विडम्बना यह है कि हम सबने किताबों को धर्म मान लिया है। और इस क़दर मान लिया है कि अब उनमें दी गयी शिक्षाओं पर भी किसी बिरले को छोड़कर पूरी तरह कोई भी अमल नहीं करता। यानी कह सकते हैं कि दुनिया के 99.99 फ़ीसदी तक लोगों को अपने उस किताबी धर्म पर ही पूरा भरोसा नहीं है, जिसके लिए वे लडऩे-मरने तक पर आमादा हो जाते हैं। शायद इसीलिए ईश्वर पर भी उन्हें भरोसा नहीं है। यही कारण है कि कोई भी अपने द्वारा स्वीकार किये गये किताबी धर्म से इतर दिये गये ईश्वर के नाम को स्वीकार नहीं करता। दूसरे धर्म में पुकारे गये ईश्वर के नाम को गाली देता है। और अपने किताबी धर्म पर विश्वास इतना कम कि कई बार उसे अपना धर्म बदलना पड़ता है। लेकिन ईश्वर को फिर भी नहीं समझ पाता। क्योंकि उसने कभी ख़ुद को ही नहीं समझा। शायद बाहरी आडम्बरों से मोहवश वह ऐसा नहीं कर पाता। अंतर्मुखी होने से वह डरता है। क्योंकि उसके पापकर्म, उसके अधर्म का मार्ग उसे पीछे नहीं लौटने देते। वह डरता है कि कहीं उसकी सुख-सुविधाएँ न छिन जाएँ। कहीं ईश्वर उसकी परीक्षा न लेने लगे। कहीं सत्य उसके रास्ते में परेशानियों के काँटे न बो दे। इसीलिए वह पैसे की तरफ़ भागता है और पैसा कमाने के लिए तमाम तरह के आडम्बर करता है।
क्योंकि वह सोचता है कि अगर पैसा नहीं होगा, तो लोग उस पर हावी हो जाएँगे। उसकी हर अच्छी-बुरी गतिविधि पर नज़र रखेंगे। उसे दबाव में लेंगे। उस पर अत्याचार करेंगे। यह सच भी है। क्योंकि जब किसी के पास अथाह पैसा होता है, तो उस पर धर्म और जाति की कोई मर्यादा, कोई सीमा काम नहीं करती। ऐसा आदमी धर्म बदल ले या दूसरे धर्म में शादी कर ले, तो चलेगा। उसे आदर्श मान लिया जाएगा, लेकिन सि$र्फ अपनेफ़ायदे के लिए। फिर धर्म-परिवर्तन पर इतनी हाय-तौबा क्यों? क्योंकि इसमें भी स्वार्थ-सिद्धि है। स्वार्थ सधे तो गोबर खाने में भी कोई दोष नहीं और अगर न सधे, तो किसी के हाथ का अमृत भी दूषित हो जाता है; धर्म भ्रष्ट कर देता है।
उत्तर प्रदेश में जो हुआ वह सनातन धर्म के लोगों के धर्म-परिवर्तन का मामला है। लेकिन क्या इस मसले पर शोर करने वालोंके पास इस बात का जबाव है कि वे अपने धर्म-बन्धुओं से ही इतनी घृणा क्यों करते आये हैं कि उन्हें अपना धर्म बदलने या एक नया धर्म बनाने के लिए सदियों से मजबूर होना पड़ रहा है। अगर ये दक़ियानूसी लोग ऐसा नहीं करते, तो आज सनातन धर्म के अनुयायी सिकुड़कर मुट्ठी भर नहीं रह गये होते।