धर्म सत्य, अहिंसा, और परहित के लिए बने हैं, जो मानव उत्थान का मार्ग हैं। परन्तु अब यही धर्म पाखण्ड, हिंसा और स्वहित का संसाधन बनते जा हैं, जिसके चलते आज के मानव का पतन हो रहा है। इतिहास गवाह है कि आज दुनिया का एक भी ऐसा धर्म नहीं है, जिसके कट्टर अनुयायियों के हाथ कभी-न-कभी ख़ून से न रंगे हों। आज के दौर में यह कट्टरता और भी बढ़ती जा रही है। आश्चर्य होता है कि जो धर्म लोगों को पाप कर्म और पतन से बचाने के लिए बने थे, आज उन्हीं धर्मों को बचाने के लिए उनके कट्टर अनुयायी पाप कर्म करके पतन का रास्ता चुन रहे हैं। सीधे-सीधे कहें, तो कट्टरपंथियों के लिए अब हिंसा ही धर्म का पर्याय बन चुकी है। उन्हें लगता है कि धर्म को बचाने के लिए हिंसा ज़रूरी है। लेकिन ये लोग भूल चुके हैं कि किसी भी धर्म में हिंसा और हिंसकों के लिए कोई जगह नहीं है।
असल में लोगों को वास्तविक धर्म की पहचान करनी होगी। हालाँकि संसार में एक ऐसा वर्ग है, जो वास्तविक धर्म पर है। वास्तविक धर्म से तात्पर्य उस धर्म से है, जो बिना भेदभाव के प्राणी मात्र के हित में काम करने के लिए प्रेरित करता है। यह धर्म सनातन, इस्लाम, ईसाई, पारसी, सिख, जैन, बौद्ध, यहूदी, वहाबी, पेगन, वूडू और शिंतो आदि के नाम से नहीं, बल्कि मानव धर्म के नाम से जाना जाता है। ये प्राणी मात्र का हित करने वाले वास्तविक धर्मावलंबी संसार के इन सभी एक दर्ज़न धर्मों में हैं और सदैव पैदा होते रहेंगे। परन्तु इन धर्मों के अधिकतर अनुयायी अपने ही प्रिय धर्म से ही भटके हुए हैं। क्योंकि हर धर्म मानवता सिखाता है। इसलिए अगर कोई मानवता पर नहीं है, तो फिर वह धर्म के रास्ते पर कहाँ हुआ?
सोचिए, अगर कोई अमानवीय है। किसी से भेदभाव करते हुए व्यवहार करता है। किसी को दु:ख पहुँचाता है; तो उसे धर्मपरायण कैसे कहा जा सकता है? यह धर्म का रास्ता तो नहीं हो सकता। इस तरह किसी धर्म पद्धति के अनुरूप होकर दिखावे और ढोंग को धर्म कहना अथवा मानना भी नहीं चाहिए। इसलिए धर्म की परिभाषा किताबों में नहीं, बल्कि प्राणियों के हित वाले संस्कारों में तलाशनी चाहिए। परन्तु आजकल के तथाकथित धार्मिक लोग स्वहित के लिए तथाकथित कर्मकाण्डी धर्मांधता में फँसे हुए हैं। उन्हें ढोंग और पाखण्ड में धर्म दिखता है। इसीलिए वे अमानवीय होते जा रहे हैं। इसीलिए हर धर्म में अनेक तथाकथित धर्माचार्य पनपते जा रहे हैं, जो अपने-अपने धर्मों में एक कट्टरपंथी भीड़ बढ़ाने के सिवाय और कुछ नहीं कर रहे हैं। आजकल ये आसान और ऐश-ओ-आराम का धन्धा है। ये तथाकथित धर्माचार्य चाहते हैं कि सब लोग इनके पाखण्ड के चंगुल में ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी फँसे रहें। लोग उन पर विश्वास ही नहीं, बल्कि अंधविश्वास करें। क्योंकि लोगों द्वारा इन पर किये गये इसी अंधविश्वास के कारण इनका धन्धा-पानी चलेगा। पापकर्म करने पर भी इनकी सुरक्षा के लिए असंख्यों मूर्खों की फ़ौज हमेशा मरने-मारने के लिए इनके इर्द-गिर्द खड़ी रहेगी। इस फ़ौज को, इस भीड़ को अन्धभक्तों की भीड़ कहना अनुचित नहीं है। क्योंकि यह अन्धी भीड़ इतनी भ्रमित रहती है कि धर्म और ईश्वर की रक्षा के जुनून में पलों में हिंसक हो जाती है। धर्म के नाम पर कपोल कथाएँ सुनाकर इसे भटकाये रखना तथाकथित धर्माचार्यों के लिए बहुत आसान होता है।
असल में धर्म और ईश्वर के वास्तविक स्वरूप से लोग परिचित नहीं है। जो थोड़े-बहुत भी इनसे परिचित हैं, उन्हें परमार्थ में आन्नद आता है। उन्हें परहित, परसेवा में सुख मिलता है। उन्हें पाखण्ड करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उन्हें किसी तथाकथित धर्माचार्य की बातों पर एक अन्धे के तरह अन्धविश्वास करना भी नहीं आता। वे अपनी बुद्धि से विचार करते हैं और अपने अंतर्मन से निर्णय लेते हैं। इन धर्मपरायण लोगों की अंतरात्मा सदैव जागरूक रहती है। ऐसे लोग कुटिल, कपटी नहीं, बल्कि सरल और सौम्य होते हैं। ऐसे लोग किसी की मेहनत से कमाये हुए की लालसा नहीं करते हैं। किसी को नुक़सान नहीं पहुँचाते। किसी पर अत्याचार नहीं करते। किसी और को चोट लगे, तो उसका दर्द महसूस करते हैं। दूसरों के दु:ख से उनका हृदय द्रवित होता है। उनके लिए सभी प्राणी एक ही ईश्वर की संतानें हैं। ये लोग जानते हैं कि ईश्वर की उपासना अहंकार, भ्रम, ढोंग और पाखण्ड को त्यागकर निर्मल मन से होती है। इसके लिए किसी विशेष व्यवस्था, तामझाम की आवश्यकता नहीं होती। सही मायने में यही लोग तो धर्म पर हैं।
इसके विपरीत जो तथाकथित धर्माचार्य अपनी दुकान चलाने के लिए धर्मों के नाम पर पाखण्ड, ढोंग और अन्धविश्वास को बढ़ावा देते हैं, वे वास्तविक धर्म को न तो समझते हैं और न ही समझ सकते हैं। उनके बौद्धिक चक्षु खुले नहीं, बल्कि बन्द हैं। ऐसे ही लोगों के लिए मैंने लिखा है :-
‘मुल्ला, पण्डित, पादरी, सबके अपने स्वार्थ।
कोई भी समझा नहीं, धर्म अर्थ, परमार्थ।’