अगर किसी के स्वास्थ्य में थोड़ी भी गड़बड़ी हो और वह अपना इलाज न कराये, तो धीरे-धीरे शरीर में और भी कई रोग जाते हैं, जिसके कारण शरीर जर्जर, क्षीण होकर अंतत: उम्र से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। धर्मों की भी यही दशा है। धर्मों में रोग तो उसी दिन लग गया था, जब उनके वाहकों ने उनमें मनगढ़ंत कहानियाँ, कपोल कथाएँ, नयी-नयी रीतियाँ, संस्कारों के नाम पर ढोंग और स्वयं को सिद्ध पुरुष और धर्म का ठेकेदार साबित करने के लिए अपनी विवेचनाएँ जोडऩी शुरू कर दी थीं। धीरे-धीरे धर्म लोप हो गये और ये चीज़ें धर्मों पर हावी हो गयीं। अब धर्म केवल कुछ लोगों के लिए पैसा कमाने के माध्यम बनकर रह गये हैं। और विडम्बना यह है कि लोग ईश्वर की तरह ही इन लोगों को पूजते हैं। इनके एक इशारे पर सब कुछ क़ुर्बान करने को तैयार रहते हैं।
लोगों को सोचना होगा कि क्या पैसा, पद और प्रतिष्ठा की चाहत रखने वाले, अपनी चरण वन्दना के शौक़ीन लोग कभी धर्म के वाहक नहीं हो सकते? इसलिए अगर धर्मगुरु अयोग्य है और धर्म के सही अनुपालन को छोडक़र तमाम लिप्साओं में लिप्त रहता है, तो उन्हें धर्मों से निकालकर फेंक देना चाहिए। किसी भी धर्म में अधर्मी और तथाकथित लोगों को धर्मगुरुओं के पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है। एक ही धर्म के मानने वालों को अलग-अलग जातियों में बाँटकर, उनके साथ अलग-अलग व्यवहार करने वालों को धर्म ध्वजा को फहराने का अधिकार नहीं है। एक ही धर्म के विभिन्न लोगों में भेदभाव फैलाने वालों को धर्म का अग्रणी होने का अधिकार नहीं है। धर्मों के नाम पर पाखण्ड, अशान्ति, वैमनस्य, झूठ, अराजकता, भ्रान्ति और कुरीतियाँ फैलाने वालों को किसी धर्म की आख़िरी पंक्ति में भी बैठने का अधिकार नहीं है। लोभी, कामी, क्रोधी लोगों को भी धर्म का परचम लेकर चलकर अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
जिस तरह ईश्वर का विधान सबके लिए एक होता है, उसी प्रकार धर्म का विधान भी सबके लिए एक ही होता है और एक ही होना चाहिए। किसी भी धर्म में उस धर्म को मानने वाला कोई व्यक्ति भेदभाव का पात्र नहीं है। अगर धर्म भेदभाव या अलग-अलग व्यवहार की अनुमति देता है, तो उस धर्म का वहिष्कार करना कोई गुनाह नहीं है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति किसी सही धर्म के विरुद्ध काम करता है, तो उसे दण्डित तो किया जा सकता है; लेकिन उसे मृत्युदण्ड देने का अधिकार किसी धर्माचार्य या धर्म के लोगों को नहीं है। अगर कोई किसी अपराध में लिप्त पाया जाता है और उस पर आरोप तय होता है, तो उसे न्यायालय क़ानूनी प्रक्रिया के तहत दण्डित कर सकता है। लेकिन यह तभी सम्भव है, जब न्यायालय निष्पक्ष होंगे।
अगर धर्म नैतिक नहीं हैं, निष्पक्ष नहीं हैं, स्पष्टट नहीं हैं, सबके भले के लिए नहीं हैं, सबका सम्मान नहीं करते, उनमें झूठ और पाखण्ड हो, तो उन्हें धर्म नहीं कहा जा सकता। धर्म धारण करने योग्य, सत्य का मार्ग दिखाने वाला और ईश्वर पर निर्विवाद होना चाहिए। अन्यथा सिवाय लोगों को बहकाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों के उसका किसी को कोई फ़ायदा नहीं होने वाला।
अपराधियों को न धर्मों की सत्ता में शरण दी जानी चाहिए और न ही अन्य प्रकार की सत्ताओं में। लेकिन देखने में आता है कि अब धर्मों में अनेक अपराधी, पापी शरण लिये हुए हैं। इनमें से कई अपराधी और पापी तो स्वयं को धर्माचार्य घोषित कर चुके हैं। पाखण्डवाद इनका सबसे मज़बूत सुरक्षा कवच बना हुआ है। सदियों से इसी पाखण्डवाद के अँधे कुएँ में पड़ी जनता धर्म के प्रकाश से ईश्वर का दर्शन करना चाहती है। लेकिन उसे यही पाखण्डी, पापी और अपराधी धर्म के नाम पर पाखण्डवाद की ऐसी अफ़ीम खिला रहे हैं, जिसका नशा इतना चढ़ चुका है कि कोई भी दंगा करने, किसी की हत्या करने के लिए पलों में तैयार हो सकता है। दुर्भाग्य से सभी धर्मों के लोग ऐसे पाखण्डियों, पापियों और अपराधियों को सिर पर पैठाकर पूज रहे हैं। और इन पाखण्यिों का दुस्साहस देखिये कि ये किसी की भी गर्दन काटने, ज़ुबान काटने पर खुलेआम एक स्वघोषित इनआम की घोषणा करते हैं। यह इनआम एक प्रकार की सुपारी है, जो किसी की हत्या के लिए दी जाती है। और यह हर हाल में अधर्म है, $गैर-क़ानूनी है। मकड़ी के तरह जाल बुनते जा रहे ये पाखण्डी अपने बुने जाल में भोले-भाले लोगों को फँसाकर उनसे पाप कराने का उपक्रम इस तरह करते हैं कि कोई उसे धार्मिक समझकर विरोध न कर सके। हो भी यही रहा है। अब किसी धर्म का तथाकथित धर्मगुरु कुछ ग़लत भी करे, तो भी लोग उसके चरण धोकर पीने को तैयार रहते हैं। राजनीतिक लोग ऐसे पापियों को बचाने के लिए आगे आ जाते हैं। उनके साथ हर जगह सम्मानजनक तरीक़े से पेश आया जाता है। एक सामान्य आदमी की तरह नहीं। अगर कभी किसी को कोई सज़ा मिल भी जाती है, तो उसमें रियायत और सुविधाएँ शामिल होती हैं।