सर्वोच्च न्यायालय की दो सदस्य पीठ ने 31 अक्टूबर को एक मामले की सुनवाई के दौरान टू फिंगर टेस्ट को लैंगिकतावादी, प्रतिगामी बताते हुए इसे फिर अनुचित बताया और टिप्पणी की कि दुष्कर्म पीडि़त महिलाओं के लिए यह जाँच दोहरा आघात है। उनका अपमान है और उनकी गरिमा के ख़िलाफ़ है। दरअसल इस बार भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी नौ साल पुरानी स्थिति यानी राय को ही सरकार, चिकित्सिक संस्थाओं, कार्यपालकों व समाज के सामने रखा है। सर्वोच्च न्यायालय इस टू फिंगर टेस्ट को बार-बार अस्वीकार करता है, इस पर रोक लगाता है। लेकिन इसके बावजूद इस अवैज्ञानिक जाँच से यौन-हिंसा या बलात्कार की शिकार महिलाओं को अपमानित किया जाता है। इस नज़रिये के पीछे पुरुष प्रधान समाज एक मज़बूत कारक है।
सवाल यह है कि जब सर्वोच्च न्यायालय इस पर रोक लगा चुका है। स्वास्थ्य मंत्रालय भी इस पर रोक लगाने सम्बन्धी दिशा-निर्देश जारी कर चुका है। फिर जिनके कन्धों पर इसे अमल में लाने की ज़िम्मेदारी है, वे क्या कर रहे हैं? एक बात यह भी है कि चिकित्सा समुदाय से जुड़े पेशेवर इस जाँच की अवैज्ञानिक प्रवत्ति को लेकर कितने जागरूक हैं। सवाल यह भी है कि समय-समय पर महिलाओं के प्रति जो लैंगिकतावादी, प्रतिगामी टिप्पणियाँ सुनायी देती हैं, उन पर रोक कैसे लगेगी? बहरहाल सर्वोच्च न्यायालय ने इसी 31 अक्टूबर को चेतावनी दी थी कि ऐसी जाँच करने वाले व्यक्तियों या डॉक्टरों को दोषी ठहराया जाएगा।
दरअसल न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने 18 साल पुराने एक दुष्कर्म के मामले में निचले न्यायालय की दोषसिद्धि वाले फ़ैसले को बहाल रखा। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा बरी किये गये आरोपी को दोषी क़रार देते हुए फ़ौरन हिरासत में लेने का आदेश दिया। दोषी को हत्या के मामले में उम्र क़ैद व दुष्कर्म के मामले में 10 साल सश्रम कारावास की सज़ा दी। मामले को जानने के लिए 18 साल पीछे लौटना होगा। झारखण्ड के नारंगी गाँव में 7 नवंबर, 2004 को शैलेंद्र कुमार नामक एक युवक ने घर में घुसकर एक नाबालिग़ लड़की से दुष्कर्म किया और फिर उस पर मिट्टी का तेल डालकर जला दिया। उसका अस्पताल मेडिकल बोर्ड के द्वारा टू फिंगर टेस्ट किया गया। युवती ने पुलिस के समक्ष दिये अपने बयान में आरोपी के बारे में बताया। यह बात दीगर है कि मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान देने से पहले ही पीडि़ता की मौत हो गयी।
इस सन्दर्भ में भी सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि मृत्यु पूर्व पीडि़त का बयान अहम है। इसे केवल इस आधार पर ख़ारिज नहीं कर सकते कि बयान पुलिस ने दर्ज किया। बयान साबित करने वाले तथ्य सत्यता दर्शा रहे हैं, तो पुलिस को दिया अन्तिम बयान भी स्वीकार्य और अहम है। देवघर ज़िला न्यायालय ने इस मामले में आरोपी को दोषी बताते हुए सन् 2006 में उसे उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी। आरोपी ने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ उच्च न्यायालय में अपील की और उच्च न्यायालय ने टू फिंगर टेस्ट और सुबूतों के अभाव में आरोपी को बरी कर दिया। राज्य पुलिस ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपी को दोबारा दोषी क़रार दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपी को हत्या के मामले में उम्र क़ैद और दुष्कर्म के मामले में 10 साल सश्रम कारावास की सज़ा दी। इस सज़ा के अलावा सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई के दौरान टू फिंगर टेस्ट जारी रहने पर जो चिन्ता ज़ाहिर की है, वह वाजिब है। पीठ ने फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि इस न्यायालय ने बार-बार दुष्कर्म और यौन उत्पीडऩ के आरोपों के मामलों में टू फिंगर टेस्ट के इस्तेमाल को रोका है।
यह टेस्ट अवैज्ञानिक है और पीडि़त महिलाओं की गरिमा को चोट पहुँचाता है। यह जाँच यौन उत्पीडऩ व दुष्कर्म पीडि़ता के बारे में यह जानने के लिए किया जाता है कि पीडि़त यौन रूप से सक्रिय है या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में कहा कि एक महिला की गवाही का सम्भावित मूल्य उसके यौन इतिहास पर निर्भर नहीं करता। न्यायालय ने कहा कि वह पहले भी कह चुका है कि किसी व्यक्ति के साथ यौन सम्बन्धों का पूर्व इतिहास और चरित्र उसे दुष्कर्म करने की मंज़ूरी के रूप में नहीं देखा जाएगा। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह कहना संकुचित सोच को दर्शाता है कि किसी महिला के साथ दुष्कर्म होने की बात पर इसलिए विश्वास नहीं किया जा सकता कि क्योंकि वह यौन रूप से सक्रिय रही है। सन् 2012 में निर्भया सामूहिक दुष्कर्म के बाद गठित सेवानिवृत्त न्यायाधीश जे. एस. वर्मा समिति ने भी अपनी सिफ़ारिशों में इस जाँच को बन्द करने के लिए कहा था।
ग़ौरतलब है कि इन्हीं सिफ़ारिशों के मद्देनज़र सन् 2013 में आपराधिक क़ानून में संशोधन किया गया था। धारा-53(ए) को साक्ष्य क़ानून में जोड़ा गया था कि पीडि़ता का पूर्व यौन अनुभव यौन अपराध सिद्ध करने के लिए प्रासगिंक नहीं होगा। सन् 2013 में ही सर्वोच्च न्यायालय ने लिलु राजेश बनाम हरियाणा सरकार के मामले में कड़ा रुख़ अपनाते हुए इस पर रोक लगाने सम्बन्धी आदेश जारी किये थे। सन् 2014 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने यौन उत्पीडऩ की शिकार महिलाओं की जाँच के लिए कुछ अहम दिशा-निर्देश जारी किये थे। इनमें एक यह भी था कि यौन हिंसा या दुष्कर्म को स्थापित करने के लिए टू फिंगर टेस्ट नहीं होना चाहिए। लेकिन ध्यान देने वाला बिन्दु यह है कि यह महज़ एक दिशा-निर्देश है, इसका पालन करना क़ानूनी रूप से बाध्य नहीं है। सन् 2019 में ही क़रीब 1,500 दुष्कर्म पीडि़त महिलाओं और उनके परिजनों ने सर्वोच्च न्यायालय में शिकायत की थी कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद यह टेस्ट हो रहा है। याचिका में यह जाँच करने वाले डॉक्टरों का लाइसेंस रद्द करने की माँग की गयी थी। यह जाँच महिलाओं की निजता, सम्मान और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े अधिकारों का उल्लघंन है। बीते एक साल में देश की संवैधानिक पीठों यानी न्यायालयों में इस जाँच की आलोचना कर चुकी है।
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सन् 2013 के बहुचर्चित शक्ति मिल दुष्कर्म के मामले में ऐसी ही राय से अवगत कराया। फिर मद्रास उच्च न्यायालय ने इस साल अप्रैल में यही रुख़ अपनाया और राज्य सरकार को इस जाँच पर प्रतिबंध लगाने के आदेश दिये। तीसरा सर्वोच्च न्यायालय का 31 अक्टूबर वाला आदेश है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस फ़ैसले में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को इस जाँच को रोकने के लिए कुछ अहम निर्देश दिये हैं कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा सन् 2014 में बनाये गये दिशा-निर्देश सभी सरकारी व निजी अस्पतालों में वितरित हो, यह सुनिश्चित करना। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए कार्यशालाओं का आयोजन करना, ताकि उन्हें यह बताया जा सके कि यौन हिंसा व दुष्कर्म पीडि़ताओं की जाँच के लिए उचित प्रक्रिया अपनायी जाए। मेडिकल स्कूलों के पाठ्यक्रम की समीक्षा की जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि यौन हिंसा और दुष्कर्म पीडि़त महिलाओं की जाँच के लिए निर्धारित प्रणाली में टू फिंगर टेस्ट न हो। न्यायालय ने यह भी कहा कि उसके फ़ैसले की प्रतियाँ राज्य के स्वास्थ्य सचिवों और डीजीपी के साथ साझा की जाएँ।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि क़ानून की अपनी अहमियत होती है। लेकिन सवाल यह है कि टू फिंगर टेस्ट पर रोक पहले भी सर्वोच्च न्यायालय लगा चुका है, तो भी उस पर ठीक तरह से अमल क्यों नहीं हो रहा है? इस दिशा में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को अधिक गम्भीर क़दम उठाने चाहिए। केंद्र सरकार को इस दिशा में एक केंद्रीय क़ानून बनाने की पहल करनी चाहिए। ऐसा क़ानून बनने से राज्य सरकारें इसे लागू करेंगी। हो सकता है कि इससे ज़मीनी हालात में कुछ सुधार देखने को मिले। वैसे यह कहना भी सही है कि महज़ क़ानून बनाने से क्या होगा? इसके लिए समाज, आर्थिक संस्थाओं, शैक्षणिक संस्थाओं, राजनीति और रोज़गार के अवसरों में महिलाओं को बराबरी के मौक़े देने के साथ-साथ उनके प्रति भेदभाव को दूर करने की दिशा में ठोस प्रयास करने होंगे। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारों से अधिक हासिल नहीं हो रहा।