अधिकार मिलने की बेइंतहा खुशी के बारे में किसी वंचित से बेहतर भला कौन जानता होगा? यह ठीक वैसे ही है, जैसे बंदिश से आज़ादी। इसी वर्ष 24 मई को केंद्र सरकार की अधिसूचना के बाद जम्मू सम्भाग के दो लाख से ज़्यादा लोग जैसे निहाल हो गये। अब ये लोग न केवल राज्य के विधानसभा, बल्कि स्थानीय निकाय और अन्य चुनावों में भी मतदान कर सकेंगे और चुनाव लड़ भी सकेंगे। यह इनके लिए पहला अनुभव होगा। अभी तक इनको केवल लोकसभा चुनाव लडऩे और उसी में मतदान करने का अधिकार था। लाभान्वित लोगों में तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरशार्थी, गोरखा और पंजाब से आये वाल्मीकि-दलित आदि हैं। जम्मू-कश्मीर में धारा-370 और 35-ए के खत्म होने के बाद इनकी नागरिकता का मार्ग प्रशस्त हो गया था। प्रभावित लोगों को पूरी उम्मीद थी कि जल्द ही उन्हें राज्य की नागरिकता मिल जाएगी, जिसके लिए वे लगभग 70 साल से इंतज़ार कर रहे थे। इन लोगों के पास देश की नागरिकता तो थी, लेकिन राज्य सरकार की नहीं। इससे राज्य सरकार की योजनाओं के लाभ से ये वंचित थे। पीडि़त लोग इससे बड़ी दुश्वारी और ज़िल्लत महसूस करते थे कि वे जिस राज्य में वर्षों से रह रहे हैं, वहाँ की सरकार उन्हें अपना नागरिक नहीं समझती। आज़ादी के बाद भी अब तक ऐसा न होना विडम्बना की बात रही; लेकिन अब जैसे कोहरा छँट गया है।
जम्मू सम्भाग के गाँव हीरानगर निवासी सुरेश कुमार कहते हैं कि हमारे लिए तो मानो देश अब आज़ाद हुआ है। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के बाद हम निराश्रित लोग साँस भले ही आज़ादी की फिज़ा में ले रहे थे; लेकिन हम उस राज्य के नागरिक नहीं थे, जहाँ हमारे पुरखे आज़ादी के बाद जान बचाकर सिर छिपाने के लिए सुरक्षित ठिकाने पर आ गये थे। नहीं आते तो मारे जाते। घर, ज़मीन-ज़ायदाद, भाईचारा, संस्कृति सब कुछ पीछे छूट गया। एक शून्य रह गया। उसी में रहने की मजबूरी। एक दंश जो दशकों से रहा, पर शायद अब नहीं रहेगा।
पीडि़त लोगों से बाचतीत के आधार पर यह यकीनी तौर पर कहना सम्भव लगता है कि काफी उम्मीद है कि दिन बहुरेंगे और इनकी ज़िन्दगी खुशहाल होगी। पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर रिफ्यूजी एसोसिएशन के लाखों लोग भी अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। आज़ादी के सात दशक बाद भी बड़ी तादाद में काफी लोग कैम्पों में रहने को मजबूर हैं। इनकी बस्तियों के नाम अब कैम्पों के नामों पर ही हैं। आज़ादी से पहले सियालकोट-जम्मू रेल मार्ग था; अब यह नहीं रहा। लिहाज़ा पुराने रेलमार्ग पर लोगों को अस्थायी तौर पर बसा दिया गया। दस्तावेज़ में अब भी उनका पता पुरानी रेल पटरी ही दर्ज है। क्वार्टर और कैम्प अब कुछ पक्के मकानों में तब्दील हो गये हैं। लेकिन ज़मीन अब भी यहाँ रहने वाले लोगों के नाम नहीं है।
संगठन के अध्यक्ष राजीव चुन्नी कहते हैं कि हमें तो सरकार शरणार्थी नहीं, बल्कि विस्थापित मानती है। चूँकि हम देश आज़ाद होने से पहले महाराजा हरिसिंह के समय से राज्य के नागरिक हैं। हम जिस मुज़फ्फराबाद (अब पाकिस्तान) में रहते थे, उसका बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्ज़े में है। हमें भी अपना सब कुछ छोडऩा पड़ा। अच्छी-खासी ज़मीन-ज़ायदाद वाले बेघर हो गये। आज़ादी के सात दशक बाद अब भी हमारे लोग कैम्पों में रहने को मजबूर हैं। ऐसे 39 कैम्पों में लोग बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं।
इनमें भौर कैम्प, सिंबल कैम्प, चट्ठा कैम्प और गोल गुजराल कैम्प सरीखे नाम हैं। सरकारी दस्तावेज़ों में पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के 31,619 परिवार पंजीकृत हैं। इनमें 26,319 परिवार पुराने जम्मू-कश्मीर में, जबकि बाकी देश के अन्य हिस्सों में रहते हैं। एसोसिएशन राजनीतिक प्रतिनिधित्व चाहती है। राज्य विधानसभा में पाक अधिकृत कश्मीर की 24 सीटें प्रस्तावित हैं। एसोसिएशन इनमें से एक-तिहाई सीटें चाहती है; ताकि वह अपने लोगों के हितों की रक्षा कर सके। चुन्नी कहते हैं कि सीटों के आरक्षण लिए उन्होंने तत्कालीन केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला से बात की। लेकिन उन्होंने ऐसा किया, तो एक विशेष समुदाय के लोग उनका जीना मुहाल कर देंगे।
ऐसी ही मंशा राज्य सरकारों की रही। नतीजतन हमारे लोग हर क्षेत्र में पिछड़ते ही चले गये। आज भी हमारे वर्ग के ज़्यादातर लोग मेहनत मज़दूरी करके घर चला रहे हैं। सभी के पास रोज़ कुआँ खोदने और पानी पीने जैसी स्थिति है। किसी के पास पक्का काम नहीं है। सरकारी नौकरियों का प्रतिशत बहुत कम है। एक बड़ा वर्ग शिक्षित नहीं है, तो भला सरकारी नौकरी की बात करना ही उनके लिए बेमतलब जैसा होगा।
जम्मू-कश्मीर में धारा-370 और 35-ए हटने के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से आये लोगों को कुछ उम्मीद जगने लगी थी। केंद्र की 24 मई की अधिसूचना ने बता दिया कि हम लोग अब देश के बाद राज्य के भी नागरिक हो गये हैं। अब राज्य विधानसभा में इन्हें भी वोट डालने का हक होगा। स्थानीय निकाय चुनावों में वह हिस्सा ले सकेंगे। राज्य सरकार की नौकरियों में इनका भी हिस्सा होगा। अब ये दूसरे दर्जे के नागरिक नहीं, बल्कि उनके समान हो गये, जो इन्हें हिकारत से शरणार्थी के तौर पर देखा करते थे। शराणार्थी का पेबन्द तो अब भी रहेगा, न जाने कितने बरसों तक इसे झेलना होगा!
70 साल से ज़्यादा समय के इंतज़ार के बाद लाखों लोगों की यह हसरत पूरी हुई। आज़ादी के बाद हम लोगों को इस हक के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ा। धरना-प्रदर्शन से लेकर गिरफ्तारियाँ तक देनी पड़ीं, दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं, पिटाई खानी पड़ी। यह सब सब जब खाने को रोटी नहीं, पहनने को कपड़े नहीं और रहने को घर तक नहीं; बावजूद इसके हमने हिम्मत नहीं हारी। वेस्ट पाकिस्तान रिफ्यूजी एक्शन कमेटी के चेयरमैन लाभा राम गाँधी कहते हैं कि बदलाव की इस बयार से उम्मीद भरोसे में बदलने लगी है। सब कुछ बहुत जल्द नहीं होने वाला। लेकिन अब लगता है कि सात दशक के लम्बे इंतज़ार के बाद दिन फिरने वाले हैं।
जम्मू सम्भाग के गाँव सम्पूर्णपुर कुलियान के सेना से सेवानिवृत्त 62 वर्षीय राम सिंह कहते हैं कि इस गाँव में अब के पश्चिमी पाकिस्तान से आये करीब 70-80 परिवार हैं। वह बतातें कि उनके पिता थोड़ ू राम परिवार के साथ किसी तरह जान बचाकर गाँव सुर्खपुर से आये थे। उन्होंने दर-दर की ठोकरें खायीं, मगर रहने का सुरक्षित ठोर बड़ी मुश्किल से मिला। सब कुछ पीछे रह गया था। यहाँ सब कुछ नया था। राम सिंह कहते हैं कि वह तो कोशिश कर फौज़ में भर्ती हो गये, लेकिन सभी के भाग्य में ऐसा कहाँ था। लोग अब भी तंगहाली में रहने को मजबूर हैं। उनकी पेंशन से गुज़ारा नहीं हो पाता; लिहाज़ा उन्हें भी काम करना पड़ता है। दो बेटे राकेश और मुकेश हैं। राकेश ने 12वीं और मुकेश 10वीं तक पढ़ाई की है। केंद्र की अधिसूचना के बाद हम भी राज्य के नागरिक हो गये हैं। अब हम भी राज्य के नागरिक हो गये हैं।
गाँव रामबाग के 60 वर्षीय मोहन लाल धारा-370 और 35-ए हटाने के सरकार के फैसले को बहुत अच्छा मानते हैं। वह कहते हैं कि इससे हमारी राज्य की नागरिकता का रास्ता खुला। मैट्रिक तक पढ़े मोहन लाल के दो भाई- मनोहर लाल और घनश्याम भी हैं। सभी की आॢथक हालत खराब है। हैंडलूम के काम से परिवारों का गुज़ारा मुश्किल से होता है। वह कहते हैं कि मांदल गाँव से उनके पिता मेला राम यहाँ आये थे। उनकी ज़िन्दगी भी तंगहाली में गुज़र गयी और हमारी भी लगभग वैसे ही गुज़र रही है। बेटियों की शादी कर चुके मोहन लाल कहते हैं कि ज़्यादातर लोगों के पास पूरे दस्तावेज़ नहीं हैं। इनके नियम सरल बनाने चाहिए, ताकि सभी प्रभावित लोग सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें। रामबाग में उनके वर्ग के 30-35 घर हैं और ज़्यादातर के पास मज़दूरी के अलावा कोई काम नहीं है; वह भी रोज़ नहीं मिलती। ऐसे में यहाँ के लोगों की मुश्किलों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
हीरानगर के सुरेश कुमार (52) भी शरणार्थी होने की पीड़ा झेल रहे हैं। उनका जन्म इसी गाँव में हुआ है। वे बताते हैं उनके दादा अच्छर दास अन्य परिवारों के साथ आये थे। तब उनके पिता जनक राज 14 साल के थे। मेरे दादा मेरे पिता को और पिता मुझे पुरानी बातें बताते रहते थे। वह आजीविका के लिए कुछ काम करना चाहते थे। लेकिन इसके लिए पैसा चाहिए था; जो था ही नहीं। बैंक आदि से कर्ज़ मुश्किल था। हमारे नाम यहाँ कोई ज़ायदाद आदि भी नहीं थी, जिसे गिरवी रखकर कर्ज़ लिया जा सके। ऐसे में किसी अन्य ने कर्ज़ अपने नाम से लिया। उसी कर्ज़ से उन्होंने गाँव में छोटी-सी दुकान खोल ली। फोटो स्टेट मशीन से किसी तरह घर चला रहे हैं। बेटा नौवीं में और बेटी 12वीं में है। राज्य की नागरिकता मिलने के बाद शायद उन्हें नौकरी मिल जाए। वे कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर की किसी भी सरकार ने कभी नहीं चाहा कि हमें राज्य की नागरिकता मिल जाए। अब अधिसूचना जारी होने के बाद हम पक्के तौर पर राज्य के नागरिक हो गये हैं। हमारे लिए यह बहुत बड़ी बात है, क्योंकि हम बरसों से इसके लिए संघर्ष कर रहे थे।
गाँव हमीरपुर के जोगेंद्र लाल (65) की आॢथक हालत कुछ ठीक मानी जा सकती है। उन्होंने शिक्षा का महत्त्व समझा और अमृतसर से टीचर ट्रेनिंग का कोर्स कर लिया। तब राज्य में नौकरियाँ थीं। लेकिन वह इसके लिए पात्र नहीं थे। क्योंकि नौकरी के लिए राज्य की नागरिकता ज़रूरी थी, जो उनके पास नहीं थी। वह कहते हैं कि अगर उनके पास नागरिकता का अधिकार होता, तो उन्हें सरकारी नौकरी मिल गयी होती। खैर; जो भाग्य में लिखा होता है, वही मिलता है। जोगेंद्र लाल के एक बेटे और बेटी तो पोस्ट ग्रेजुएट हैं। एक बेटे संदीप कुमार और बेटी ज्योति बाला ने अंग्रेजी में एमए कर रखा है।
गाँव मीरन साहब, तहसील आरएसपुरा (जम्मू) के सामाजिक कार्यकर्ता ओमप्रकाश खजूरिया काफी सक्रिय हैं। वह कहते हैं कि जब तक पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर के लोगों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिलता, तब तक स्थिति में ज़्यादा बदलाव होने की उम्मीद नहीं है। वह कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों का राज्य से पलायन दु:खदायी घटना है। हम उनके दु:ख को समझते हैं। उन्हें रातोंरात अपना सब कुछ छोडक़र विस्थापित होना पड़ा था। केंद्र सरकार उनकी यथासम्भव मदद कर रही है; लेकिन विस्थापित तो हमारे लोग भी हैं। क्या हमें मदद की दरकार नहीं है? हम भी घर से बेघर हुए हैं। हमें वह कुछ नहीं मिला है, जिसके हम भी हकदार हैं।
कृषि विभाग से निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए सुचवंत सिंह कहते हैं कि पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के लाखों लोग अपने कई अधिकारों से वंचित हैं। बहुत-से लोग आॢथक तौर पर सम्पन्न थे। लेकिन उनसे मुआवज़े के तौर पर यहाँ सरकार ने जो वादा किया था, उन्हें वह भी नहीं मिला। प्रभावित लोगों के पंजीकरण भी बहुत-सी खामियाँ रह गयीं। पंजीकरण के समय जो परिवार प्रमुख मौके पर नहीं आ सके, वह परिवार पंजीकृत नहीं हो सका। लोग अब भी कैम्पों में रहने को मजबूर है। ज़्यादातर लोग छोटा-मोटा काम करने को मजबूर है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व को वह कारगर मानते हैं। वह कहते हैं हमारी आबादी को देखते हुए 24 में से 8 सीटें तो मिलनी ही चाहिए। जब तक हमारे लिए सीटें आरक्षित नहीं होतीं, तब तक हमारे लोगों की उपेक्षा होती रहेगी। राज्य की नागरिकता का अधिकार हमारे पास पहले से है। हमें विधानसभा में भी प्रतिनिधित्व चाहिए।
केंद्र से मदद
पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के विस्थापितों के लिए बहुत पहले 25 लाख रुपये मुआवज़ा देने की बात तय हुई थी; इसे बाद में 30 लाख करके देने का भी किया गया। लेकिन मिला कुछ नहीं। केंद्र में भाजपा सरकार के गठन के बाद फिर से प्रभावित लोगों के मुआवज़े के लिए बात चली। केंद्र सरकार ने इसके लिए 2,000 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की। इसमें प्रत्येक परिवार साढ़े पाँच लाख रुपये की मदद दी जानी थी। इस एक मुश्त मदद की योजना से विस्थापित ज़्यादा खुश नहीं थे; बावजूद इसके उन्होंने इसे मंज़ूर किया। 20,000 लोगों ने इसके लिए आवेदन किया। जानकारी के मुताबिक, अब तक करीब 18 हज़ार परिवार इसका लाभ ले चुके हैं। इसी तरह पश्चिमी पाकिस्तान रिफ्यूजी लोगों को भी यह राशि मिलनी थी; लेकिन पात्रता के लिए दस्तावेज़ की कमी के चलते अभी किसी को लाभ नहीं मिला है। इस लाभ की पात्रता के लिए पहले 1951 और 1957 की मतदाता सूची में नाम होना ज़रूरी बताया गया है। इनका तर्क यह रहा है कि अगर सूचियों में नाम होता, तो शायद वे भी अब तक राज्य की नागरिकता हासिल कर चुके होते। बाद में इसे 1971 और 1975 की मतदाता सूची को जोड़ दिया गया। इन सूचियों में प्रभावितों के नाम है। माना जा सकता है कि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को इसका लाभ मिल जाएगा। इस बार इसकी प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, मगर लॉकडाउन की वजह से काम रुक गया है। उम्मीद है स्थिति सामान्य होने के बाद यह प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। प्रभावितों को यह राशि मिलने की उम्मीद है; जिसके लिए वे पात्रता रखते हैं।
वादों का इंतज़ार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह संसद में कह चुके हैं कि जम्मू-कश्मीर के विकास को नये आयाम दिये जाएँगे। पैकेज के तौर पर हज़ारों करोड़ रुपये केंद्र ने दिये भी; लेकिन वे उस अंतिम ज़रूरतमंद तक नहीं पहुँच सके, जिस तक पहुँचने चाहिए। चुनिंदा राजनीतिक लोगों ने इसका अनुचित लाभ लिया। अब ऐसा नहीं हो पायेगा। क्योंकि सरकार सीधे इस पर नज़र रखेगी। हर व्यक्ति को इसका लाभ मिलेगा। कोई इससे वंचित नहीं रहेगा। गृह मंत्री अमित शाह ने तो स्पष्ट कहा कि न केवल कश्मीर, बल्कि जम्मू का भी कायाकल्प किया जाएगा। करीब छ: माह के दौरान अब तक विकास के कोई काम नहीं हुए हैं। पश्चिमी पाकिस्तान रिफ्यूजी और पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के लाखों प्रभावितों की दशा जस-की-तस है। आधे से ज़्यादा लोग बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी मुश्किल से जुटा पा रहे हैं। ये लोग आॢथक बदहाली के दौर से गुज़र रहे हैं। इनके रोज़गार के लिए बड़े स्तर पर काम करने की ज़रूरत है। इसके अलावा कैम्पों को कस्बों या आदर्श गाँवों में बदलना होगा। इन्हें नया नाम देने की ज़रूरत है। कैम्पों के नाम से लगता है जैसे कि हमेशा रिफ्यूजी या शरणार्थी के तौर पर इन्हें जाना जाएगा। गृह मंत्री अमित शाह ने वादा किया है कि जम्मू-कश्मीर में विकास के नये आयाम से पाकिस्तान के कब्ज़े वाले क्षेत्र के लोग यहाँ आने को लालायित हो जाएँगे। क्या ऐसा सम्भव जान पड़ता है? उनके वादे को प्रतीक के तौर पर समझा जा सकता है। लोगों को अब इंतज़ार है। यह इंतज़ार कितना लम्बा होगा? यह देखने की बात है।
पाकिस्तान के कब्ज़े वाला हिस्सा हमारा
पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर एसोसिएशन के अध्यक्ष राजीव चुन्नी कहते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इस नाते कहा जाता है कि पाकिस्तान के कब्ज़े वाला हिस्सा हमारा है। पहले की सरकारें भी इसे दोहरा चुकी हैं। वर्तमान केंद्र सरकार इसे ज़्यादा मज़बूती से कह रही है। गृह मंत्री अमित शाह लोकसभा में इसे भारत में जोडऩे की भरोसा दे चुके हैं। चुन्नी की राय में भविष्य में यह कब होगा? कोई नहीं जानता है। लेकिन हम भी पाकिस्तान के कब्ज़े वाले हिस्से को अपने भारत देश का अंग मानते हैं। काश ऐसा हो जाए, तो हमारे से ज़्यादा खुशी और किसे होगी? जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हम लोगों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व तो मिलना चाहिए। शेख अब्दुल्ला से लेकर महबूबा मुफ्ती तक किसी भी सरकार ने नहीं चाहा कि हम राजनीति में आगे बढ़ें। हमारा राजनीति में हिस्सा हो। राज्य विधानसभा की 24 सीटें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के नाम पर खाली छोड़ी जाती हैं। हम पाकिस्तान के कब्ज़े वाले हिस्से के लोगों के अधिकारों का हनन नहीं करना चाहते; लेकिन अपने हिस्से की माँग करते हैं। 70 साल में हम लोगों की आबादी कई गुना बढ़़ गयी है। उसके हिसाब से हम एक-तिहाई मतलब आठ सीटें चाहते हैं। मौज़ूदा स्थिति में हमारा पक्ष रखने वाला कोई नहीं है। इस माँग के लिए हम लोग वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं। अगर केंद्र सरकार हमारे समुदाय के लाखों लोगों का सच में ही हित चाहती है, तो हमें यह अधिकार मिलना ही चाहिए। राज्य के सभी लोगों के साथ एक समान व्यवहार होना चाहिए। यह कागज़ों में ही नहीं, बल्कि धरातल पर भी दिखना चाहिए। हमारे ज़्यादातर लोग आॢथक तौर पर कमज़ोर हैं। आधे से ज़्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। उनके पास शिक्षा नहीं है। बिना शिक्षा के अगली पीढिय़ाँ कैसे आगे बढ़ेंगी? साथ ही रोज़गार के ज़्यादा मौके पैदा करने होंगे। बता दें कि चुन्नी लोकसभा में भी अपनी िकस्मत आजमा चुके हैं।
दस्तावेज़ की कमी से नहीं मिल रहा लाभ
पश्चिमी पाकिस्तान रिफ्यूजी एक्शन कमेटी के चेयरमैन लाभा राम गाँधी कोई डेढ़ दशक से लोगों के अधिकारों के लिए सक्रिय हैं। शरणाॢथयों को उनके अधिकार दिलाने के लिए वह हर तरह का संघर्ष करते रहे हैं। वह कहते हैं कि वर्ष 2006 में हम लोगों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर क्रमिक अनशन किया। करीब नौ माह तक ऐसा सिलसिला चलता रहा। राज्य सरकारों का रवैया शुरू से ही हमारे खिलाफ था। किसी भी सरकार ने नहीं चाहा कि हम अपने अधिकार हासिल कर सकें। जम्मू मुख्यालय, श्रीनगर और दिल्ली तक न जाने कितनी बार अधिकारों के लिए हमने अपनी आवाज़ बुलंद की; लेकिन आश्वासनों के अलावा कभी कुछ नहीं मिला। केंद्र सरकार की साढ़े पाँच लाख रुपये के आॢथक मदद एक अच्छा कदम है। लेकिन बहुत-से लोगों के पास पूरे दस्तावेज़ नहीं हैं। ये वे लोग हैं, जो लोग आज़ादी के बाद से यहाँ रह रहे हैं। ये लोग तो यहाँ के नागरिक हो ही गये हैं; लेकिन बिना ज़रूरी दस्तावेज़ के उन्हें सरकारी योजनाओं के लाभ में मुश्किल आने वाली है। हम प्रयास कर रहे हैं कि सभी पात्र लोगों को योजनाओं का लाभ मिले इसके लिए यहाँ हर सम्भव कोशिश हो रही है। हमें केंद्र सरकार पर पूरा भरोसा है कि हमारे साथ न्याय होगा। राज्य की नागरिकता मिलने के बाद अब प्रभावित लोग सरकारी नौकरियाँ कर सकेंगे। ज़्यादातर लोग आजीविका के लिए छोटा-मोटा काम करते हैं। पक्का काम तो बहुत कम लोगों के पास है। जहाँ-जहाँ बुनियादी सुविधाओं की कमी है, उन्हें पूरा कराने पर ज़ोर दिया जाएगा। शिक्षा को बढ़ावा दिया जाएगा। बैंक आदि से कर्ज़ लेकर लोग स्वरोज़गार कर सकें, इसके लिए कोशिश की जाएगी। अब शुरुआत हो गयी है। आने वाले समय में अच्छे नतीजे देखने को मिलेंगे। उन्हें लोगों का समर्थन भी खूब मिल रहा है। प्रभावित लोगों ने बताया कि उनके (लाभा राम के) नेतृत्व ने उन्हें बहुत हौंसला दिया है। वह उनके दु:ख-दर्द को अच्छी तरह समझते हैं। केंद्र सरकार के धारा-370 और 35-ए हटाने को फैसले को वह ऐतिहासिक मानते हैं। इससे लाखों लोगों का भविष्य उज्जवल होगा। नागरिकता मिलने के बाद वह स्थानीय निकाय के अलावा विधानसभा चुनाव भी भी िकस्मत आजमा चुके हैं। लाभा राम लोकसभा चुनाव में भी उतर चुके हैं; लेकिन सफल नहीं हो सके।
हमें भी मिले हमारा हक
गाँव मीरन साहब, तहसील आरएसपुरा (जम्मू) के सामाजिक कार्यकर्ता ओमप्रकाश खजूरिया भी लोगों के अधिकारों के लिए काफी सक्रिय रहे हैं। उनका मकसद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लोगों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिलाना है। वह मानते हैं कि जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक यहाँ की स्थिति में बहुत बदलाव होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। कश्मीरी पंडितों के राज्य से पलायन को वह दु:खद घटना मानते हैं। वह कहते हैं कि केंद्र सरकार उनकी यथासम्भव मदद भी कर रही है। लेकिन वह कैम्पों में रह रहे अपने लोगों को भी पीडि़त मानते हैं और कहते हैं कि हमारे लोगों को भी मदद की दरकार है। वह कहते हैं कि हम लोग भी बेघर हुए हैं, जिसके बदले हमें कुछ नहीं मिला है। हमें हमारे वो सभी हक मिलने चाहिए, जिसके हम हकदार हैं।