विशेषज्ञ कहते हैं कि देश में भूखमरी कम करने के लिए दो चीज़ों की सख्त ज़रूरत है। पहली, अच्छी योजना और दूसरी, बेहतर जीडीपी। दुर्भाग्य से दोनों मोर्चों पर भारत बहुत खराब स्थिति में है। हाल में ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2020 की रिपोर्ट भी इसी तरफ इशारा करती है। इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि भारत न सिर्फ हंगर इंडेक्स में बांलादेश से भी नीचे चला गया है, बल्कि भारत की 135 करोड़ की आबादी में से करीब 14 फीसदी (करीब 18.90 करोड़ लोग) कुपोषण का शिकार हैं। इसे बहुत चिन्ताजनक आँकड़ा कहा जाएगा; क्योंकि अनियोजित लॉकडाउन के कारण बड़े पैमाने पर लोगों का रोज़गार जाने और जीडीपी का बैंड बजने से तो यह स्थिति और भयावह हुई है। इतने पर भी सरकार चिन्तित नहीं दिखती, तो ज़ाहिर है कि भविष्य के आँकड़े और ज़्यादा चिन्ताजनक रह सकते हैं। सवाल है कि आखिर यह बढ़ती भुखमरी किसकी देन है? ज़ाहिर है, इसके लिए कोई व्यवसायी, कोई किसान, कोई मज़दूर या श्रमिक, कोई नौकरीपेशा तो नहीं हो सकता।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2020 की रिपोर्ट ज़्यादा पीड़ा देने वाली इसलिए भी है, क्योंकि 107 देशों में भारत सिर्फ 13 देशों से आगे है और यह रवांडा, नाइजीरिया, अफगानिस्तान, लीबिया, मोजाम्बिक और चाड जैसे देश हैं; जिन्हें दुनिया में वहाँ की भुखमरी और घोर गरीबी के लिए ज़्यादा जाना जाता है। रिपोर्ट साफ ज़ाहिर करती है कि भूख के मामले में भारत की स्थिति चिन्ताजनक है। पाँच ट्रिलियन इकोनॉमी के कागज़ी नारों के बीच यह हमारी सत्ता की घोर नाकामी का कड़ुवा सच है। विशेषज्ञों का कहना है कि देश में भूख और कुपोषण से निपटने के लिए विकास दर बढ़ाने की ज़रूरत है। लेकिन इस मोर्चे पर हमारी स्थित कितनी दयनीय है? यह तभी ज़ाहिर हो गया था, जब दो महीने पहले हमारी जीडीपी की दर दुनिया में सबसे कमज़ोर -23.9 (माइनस में 23.9) स्थिति में थी। सरकार ने इसका दोष अपने सिर नहीं लिया, बल्कि महामारी पर ठीकरा फोड़ दिया। विशेषज्ञ कहते हैं कि देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के लिए अर्थ-व्यवस्था के तीन सबसे प्रमुख क्षेत्रों कृषि, उद्योग और सेवा में ऊँचे लक्ष्य निर्धारित करके ही प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि इस मोर्चे पर हम नीतिविहीन दिखते हैं। जानकार इस स्थिति के लिए विभिन्न प्रक्रियाओं के खराब कार्यान्वयन, प्रभावी निगरानी की कमी, कुपोषण से निपटने के लिए सरकार का उदासीन दृष्टिकोण और बड़े राज्यों के खराब प्रदर्शन को ज़िम्मेदार मानते हैं।
आखिर क्या कारण है कि हंगर इंडेक्स-2020 में हम नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार, पाकिस्तान, बाग्ंलादेश, इंडोनेशिया जैसे देशों से भी पिछड़ गये? निश्चित ही इसके लिए खराब आर्थिक नीति और दीर्घकालीन और ज़मीनी हकीकत से मेल खाती नीतियों का घोर अभाव होना है। यह बहुत हास्यास्पद है कि हम महँगे पुलों, सुरंगों, सडक़ों, फ्लाईओवर आदि के निर्माण पर अपनी पीठ ठोकने में लगे हैं; लेकिन हमारे बच्चे भूख और कुपोषण के शिकार होकर श्रापित-जीवन जी रहे हैं। हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में बच्चे की स्टंटिंग (ठिगनापन) दर 37.4 फीसदी है। स्टंटिंग के मायने होते हैं- वे बच्चे, जिनकी लम्बाई उनकी उम्र की तुलना में काफी कम होती है और इसका मुख्य कारण बच्चे का बहुत ज़्यादा कुपोषित होना है। यही नहीं, रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में कमज़ोर बच्चों की दर 17.3 फीसदी है। कुपोषित बच्चों की दर 14 फीसदी, और बाल मृत्यु-दर 3.7 फीसदी है। इस रिपोर्ट में जो देश सबसे बेहतर स्थिति में हैं, उनमें चीन, बेलारूस, यूक्रेन, तुर्की, क्यूबा और कुवैत सहित 17 देश जीएचआई ने शीर्ष रैंक पर रखे हैं। बांग्लादेश, भारत, नेपाल और पाकिस्तान के लिए 1991 से अब तक के आँकड़ों से पता चलता है कि उन परिवारों में बच्चों का कद नहीं बढ़ पाने के मामले ज़्यादा हैं, जो विभिन्न प्रकार की कमी से पीडि़त हैं। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार के समय में शुरू हुई मनरेगा जैसी योजना से ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति थोड़ी सुधरी है। बहुत से जानकार मानते हैं कि मनरेगा नहीं होता, तो लॉकडाउन में ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति बहुत ज़्यादा भयावह हो गयी होती। लेकिन पिछले छ: साल के मोदी नीत एनडीए शासन में ऐसी कोई बेहतर नीति सामने नहीं आयी, जो भारत को कुपोषण और भुखमरी से बाहर निकालने में मदद कर सके। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के पेपर में अध्ययनकर्ताओं ने कहा है कि सन् 2001 से 2011 के बीच भले ही आहार की लागत बढ़ी है, लेकिन उस समय ग्रामीण मज़दूरी भी बढ़ी थी। हालाँकि, 2011 में पूर्ण रूप से पौष्टिक आहार अकुशल मज़दूर को मिलने वाले पैसे से कहीं ज़्यादा कीमत के थे; जब करीब 50-60 फीसदी पुरुष और लगभग 70-80 फीसदी महिलाएँ मनरेगा में दैनिक मज़दूरी कर रहे थे।
फूड पॉलिसी के इस पेपर को इन अध्ययनकर्ताओं ने सन् 2011 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) से ग्रामीण खाद्य मूल्य और मज़दूरी की जानकारी के आधार पर तैयार किया है। इसमें कहा गया है कि सन् 2015-16 में 38 फीसदी स्कूल जाने से पहले की उम्र वाले बच्चों का विकास रुक गया और 21 फीसदी बच्चे कमज़ोर हो गये; जबकि आधे से अधिक माँ और बच्चे एनीमिया से ग्रसित हो गये। लेकिन इसके बावजूद भारत में आहार, खासकर पौष्टिक आहार को लेकर गम्भीर स्तर पर बहुत कम चर्चा होती है। पेपर में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि देश में नीति बनाते समय पोषण सम्बन्धी आवश्यकताओं के प्रति जागरूकता बढ़ाने और भारत की मौज़ूदा खाद्य नीतियों को अनाज के प्रति अपने भारी पूर्वाग्रह से दूर करने के सख्त ज़रूरत है।
जानकारों के मुताबिक, भारत की रैंकिंग में परिवर्तन के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों के प्रदर्शन में सुधार की सख्त ज़रूरत है। राष्ट्रीय औसत उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से बहुत अधिक प्रभावित होता है। इन राज्यों में वास्तव में कुपोषण अधिक है और ये देश की आबादी में सबसे ज़्यादा योगदान करने वाले राज्यों में शामिल हैं।
अधूरी सरकारी कोशिशें
भारत सरकार ने सन् 2018 में राष्ट्रीय पोषण मिशन (पोषण अभियान) की शुरुआत की थी। मिशन का लक्ष्य छोटे बच्चों, महिलाओं में कुपोषण और एनीमिया को कम करना, विभिन्न पोषण-सम्बन्धी योजनाएँ बनाना और एक मज़बूत तंत्र स्थापित करना है। साथ ही लक्ष्यों को पूरा करने के लिए राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को प्रोत्साहित करना भी इसका एक अन्य उद्देश्य है। इस रणनीति का उद्देश्य वर्ष 2022 तक कुपोषण मुक्त भारत बनाना है। लेकिन आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि हम इस लक्ष्य को हासिल करने में काफी पीछे रह सकते हैं। इसके आलावा विभिन्न मंत्रालयों के बीच समन्वय का बहुत अभाव देखा गया है, जिससे कार्यक्रम बड़े स्तर पर प्रभावित हुआ है। यदि आँकड़े देखें, तो जुलाई, 2019 तक राज्य और केंद्र-शासित प्रदेश की सरकारों ने उन्हें आवंटित धन का केवल 16 फीसदी ही उपयोग किया था। वास्तविक समय पर डाटा की निगरानी, स्थिरता और जवाबदेही के अभाव ने भी राष्ट्रीय पोषण मिशन को भी काफी प्रभावित किया है। आँगनबाड़ी केंद्र, माताओं और बच्चों के लिए सेवाओं के वितरण के लिए महत्त्वपूर्ण हैं; लेकिन कई राज्य कामकाजी आँगनबाड़ी केंद्र स्थापित करने और कर्मचारियों की भर्ती के मामले में फिसड्डी हैं। सरकार ने नयी स्वास्थ्य नीति के तहत अब स्वास्थ्य पर जीडीपी का कुल 2.5 फीसदी खर्च करने का लक्ष्य निर्धारित किया है, जिसे प्रशंसनीय कहा जाएगा। लेकिन सवाल यही है कि इस पर कितना अमल ज़मीनी स्तर पर हो पायेगा? अब तक इस क्षेत्र में जीडीपी का मात्र 1.04 फीसदी ही खर्च होता रहा है।
कुपोषण के कारण
कोई व्यक्ति कुपोषण का शिकार तब होता है, जब उसके शरीर को लम्बे समय तक संतुलित आहार न मिले। राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआईएन), दराबाद के पोषण विशेषज्ञ सुब्बाराव एम. गवरवरपु कहते हैं कि आहार में वसा / तेल से दैनिक कैलोरी का करीब 10 फीसदी वसा से मिलना चाहिए। कुपोषण के चलते बच्चों और महिलाओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर हो जाती है। रोग प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर होने पर व्यक्ति आसानी से बीमारियों की चपेट में आ जाता है, जिसके प्रति सरकार तो लापरवाह है ही, देश में जागरूकता भी बहुत कम है। नरोत्तम शेखसरिया फांउडेशन की वरिष्ठ पदाधिकारी लेनी चौधरी के मुताबिक, 2018 में नई दिल्ली में एक सम्मलेन में कुपोषण और ज़रूरत से ज़्यादा पोषण के प्रसार के सम्बन्ध में मंथन किया गया था। इसमें पोषण और रोग के सम्बन्धों, कुपोषण के स्वीकार न किये जाने वाले स्तर को बढ़ावा देने के कारकों, उचित नीति और कार्यक्रम में आने वाली प्रतिक्रियाओं पर भी विचार-विमर्श किया गया था। हालाँकि यह सच है कि देश में कुपोषण को लेकर अभी बहुत कुछ किया जाना ज़रूरी है। एक सर्वे में प्राप्त डाटा के मुताबिक, दुनिया के कुपोषितों में से 19 करोड़ कुपोषित लोग भारत में हैं।