भीख माँगना सामाजिक व आर्थिक समस्या है और शिक्षा व रोज़गार के अभाव में कुछ लोग अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भीख माँगने पर मजबूर हैं। कोई भी अपनी मर्ज़ी से भीख माँगना नहीं चाहता। यह टिप्पणी हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भिखारियों और भिक्षावृत्ति पर की।
सर्वोच्च न्यायालय ने भिक्षावृत्ति पर यह संवेदनशील टिप्पणी करके समाज को भिखारियों के प्रति अपना नज़रिया बदलने को सन्देश दिया है, तो वहीं सरकार को भी आईना दिखाया है कि भिक्षावृत्ति सरकारी सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों व नीतियों के ढाँचों और उनके अमल में ख़ामियों के कारण भी है। ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करके न्यायालय से आवारा घूमने वालों और भिखारियों को सडक़ों पर घूमने से रोके जाने की माँग की गयी थी और इसके साथ ही सरकार से बेघर लोगों व भिखारियों के पुनर्वास व टीकाकरण करने का आग्रह किया गया था।
इस मामले की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ व न्यायाधीश एम.आर. शाह ने मामले की पहली माँग को स्वीकार नहीं किया और दूसरी माँग के लिए केंद्र व दिल्ली की सरकारों से जवाब तलब किया है। दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने इस जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान कई सवाल सरकार, समाज व आमजन के सम्मुख रखे। अहम सवाल यह किया कि आख़िर ये लोग सडक़ों, धार्मिक, सार्वजनिक स्थानों पर क्यों दिखायी देते हैं? उसकी कोई तो वजह होगी। उन वजहों को समझने और समस्याओं को जड़ से ख़त्म करने के लिए मानवीय व संवेदनशील नज़रिया अपनाने की दरकार है। यह नहीं कि सडक़ों से भिखारियों को हटाने के मुददे पर सम्भ्रात नज़रिये का परिचय देते हुए न्यायालय भीख माँगने पर प्रतिबन्ध लगा दे।
दोनों न्यायाधीशों ने भिक्षावृत्ति की मूल वजहों पर रोशनी डाली, ताकि उन्हें दूर करने की दिशा में वास्तविक क़दम उठाकर आगे बढ़ा जाए। उन्होंने कहा कि शिक्षा और रोज़गार की कमी के चलते बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही लोग अक्सर भीख माँगने को विवश होते हैं।
यानी सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ कर दिया कि भीख माँगने पर प्रतिबन्ध लगाना ठीक नहीं होगा और इससे भीख माँगने की समस्या का कोई हल नहीं निकलने वाला।
न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि कोई भी भीख नहीं माँगना चाहता और इसके हल के लिए सरकारों को अलग तरीक़े से आगे आना होगा। वैसे अपने नागरिकों को स्वास्थ्य, आश्रय और भोजन सरीखी बुनियादी ज़रूरतें मुहैया कराना हरेक सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शमिल हैं। लेकिन हक़ीक़त कुछ और ही बयाँ करती है।
सन् 2011 की जनगणना के आँकड़े बताते हैं कि उस समय देश में कुल 4,13,670 भिखारी थे। इनमें 2,21,673 पुरुष और 1,91,997 महिला भिखारी थे। सबसे अधिक भिखारी पश्चिम बंगाल में हैं। सन् 2011 में वहाँ इनकी संख्या 81,224 थी। पश्चिम बंगाल व असम में महिला भिखारियों की संख्या पुरुषों से अधिक है। सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक, भिक्षावृत्ति में दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश है, जहाँ उस समय 65,835 भिखारी थे। जबकि देश की राजधानी दिल्ली में कुल 2,587 भिखारी थे। ज़ाहिर हैं कि बेरोज़गारी और आबादी बढऩे के चलते अब यानी 2021 में भिखारियों के आँकड़ों में स्वाभाविक रूप से बढ़ोतरी हो गयी होगी। इसके अलावा कोविड-19 महामारी ने जिस तरह से वैश्विक ग़रीबी को बढ़ाया है, उसकी चपेट में भारत के लोग भी हैं।
सरकार चुप क्यों?
देश में बढ़ती महँगाई को रोकने में केंद्र सरकार विफल रही है। सम्भव है कि इस कारण भी अपनी रोज़ाना की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ रहने वाले कुछ लोग भिखारी बनने को विवश हुए हों। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राज्य के आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र बतौर मुख्यमंत्री अपनी उपलब्धियों का विज्ञापनों के ज़रिये ख़ूब प्रचार कर रहे हैं।
बेरोज़गारों को रोज़गार देने की संख्या और युवाओं को कौशल प्रशिक्षण देने के आँकड़ों को तो वह बार-बार समाचार पत्रों, टीवी चैनलों और प्रायोजित साक्षात्कारों में बताते हैं। मगर वह अपने शासनकाल में राज्य में भिखारियों की संख्या, उनकी समस्याओं पर सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं बोलते।
कोई केंद्रीय क़ानून नहीं
भिक्षावृत्ति को लेकर देश में कोई केंद्रीय क़ानून नहीं है। कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने भिक्षावृत्ति को ग़ैर-आपराधिक काम तय करने के बाबत एक विधेयक का मसौदा तैयार किया था; लेकिन सरकार स्वैच्छिक और ग़ैर-स्वैच्छिक भिक्षावृत्ति में अन्तर तय करने में ही उलझकर रह गयी। बेशक भिक्षावृत्ति को लेकर देश के 20 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों के अपने-अपने क़ानून हैं; लेकिन ग़ौर करने वाला अहम बिन्दु यह है कि इन क़ानूनों का मुख्य आधार बॉम्बे भिक्षावृत्ति रोकथाम अधिनियम-1959 है।
यह अधिनियम पुलिस और समाज कल्याण विभागों को इजाज़त देता है कि बेघरों और निराश्रित लोगों को पकडक़र हिरासत केंद्रों में भेज दिया जाए। इसके लिए सज़ा का भी प्रावधान है। पुलिस और इस पर अमल कराने वाली एंजेसियाँ अक्सर ग़रीब लोगों को इस क़ानून की आड़ में परेशान करती हैं। भिखारियों को गिरफ़्तार भी कर लेती हैं।
इस सन्दर्भ में तीन साल पहले यानी सन् 2018 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने साफ़ कहा था कि दिल्ली पुलिस भिखारियों को गिरफ़्तार नहीं कर सकती। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भिक्षावृत्ति को अपराध बनाने वाले क़ानून बॉम्बे भिक्षावृत्ति रोकथाम अधिनियम-1959 को राजधानी के सन्दर्भ में ख़ारिज कर दिया था। जबकि इससे पहले दिल्ली पुलिस भिखारियों को इस अधिनियम के तहत गिरफ़्तार कर लेती थी।
न्यायालय ने कहा कि इस अधिनियम के तहत दिल्ली में भिक्षावृत्ति को अपराध मानकर इस सम्बन्ध में पुलिस अधिकारी को शक्तियाँ प्रदान करने वाले प्रावधान असंवैधानिक हैं; इसलिए इसे ख़ारिज किया जाता है। अब तक सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय में भिक्षावृत्ति के कई पहलुओं पर याचिकाएँ दायर हुई हैं और आमतौर पर न्यायालयों ने सरकारों से ठोस पहल करने व इस दिशा में उचित क़दम उठाने के निर्देश भी जारी किये हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसे मामले की दो जनहित याचिकाओं की सुनवाई के दौरान कहा था कि जिस देश में सरकार अपने लोगों को रोज़गार और भोजन देने में असमर्थ है, वहाँ पर भिक्षावृत्ति को अपराध कैसे माना जा सकता है?
भारत के मौज़ूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की अर्थ-व्यवस्था के मज़बूत होने के चाहे कितने ही दावे करें, मगर वह कभी बेरोज़गारी, महँगाई पर नहीं बोलते। ग़रीबी कितनी बढ़ी है? इसके चलते कितने लोग सडक़ों पर भीख माँग रहे हैं? यह शायद उनके लिए समस्या नहीं है। जबकि भिक्षावृत्ति का सीधा ताल्लुक़ समाज, उसकी समस्याओं और लोगों की आर्थिक स्थिति से जुड़ा है। क्योंकि कुछ लोगों को शारीरिक लाचारी, ग़रीबी, बेसहारा होने, उचित शिक्षा और रोज़गार न मिल पाने के कारण ही एक विकल्प भिखारी बनना ही नज़र आता है।
हालाँकि देश में ऐसे भी लोग हैं, जो शारीरिक अपंगता, ख़बर स्वास्थ्य और संसाधनों के अभाव के बावजूद मेहनत करके अपनी गुज़र-बसर करते हैं। वहीं कुछ सक्षम लोग भिक्षावृत्ति को पेशा मानकर इसे छोडऩा नहीं चाहते। ऐसे लोग काम ही नहीं करना चाहते और घर-घर जाकर भीख माँगने के अलावा ऐसी जगहों पर खड़े हो जाते हैं, जहाँ लोग धार्मिक कारणों से दान देने के लिए अक्सर आते रहते हैं।
इसके अलावा पूरे देश में ऐसे अनेक माफिया सक्रिय हैं, जो बच्चों से, लोगों से जबरन भीख मँगवाते हैं। इन लोगों के लिए करोड़ों रुपये का धन्धा है। ऐसा नहीं है कि यह बिन्दु न्यायालयों, सरकारों और पुलिस के संज्ञान में नहीं है। ऐसे लोगों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें भीख माँगने व मँगवाने से रोकने के लिए ठोस क़दम सरकारों को उठाने चाहिए। लेकिन यह कार्य समाज के जागरूक लोगों, सामाजिक संगठनों, एनजीओ और पुलिस की दृढ़ इच्छाशक्ति के बग़ैर सम्भव नहीं है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई में दिल्ली सरकार को जबरन भिक्षावृत्ति कराने वालों पर कार्रवाई के लिए क़ानून बनाने को कहा था। दरअसल माफिया अक्सर बच्चों, लचरों और बुजुर्गों को अपने जाल में फँसाते हैं। जो इनकी गिरफ़त में एक बार आ जाता है, फिर उसका इनके चंगुल से बाहर निकलना बहुत-ही कठिन होता है। एक अनुमान के मुताबिक, देश में क़रीब तीन लाख बाल भिखारी हैं। बाल तस्करी के ज़रिये भी बच्चे भीख मँगवाने वाले गिरोहों तक पहुँचाये जाते हैं। ऐसे बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान किया जाता है। उन्हें नशा करना सिखाया जाता है, ताकि उनकी सोचने की क्षमता कुंद पड़ जाए और वे अपना भला-बुरा न सोच सकें व सवाल करना बन्द कर दें। कई बच्चों को तो विकलांग तक कर दिया जाता है।
देश से भिक्षावृत्ति की समस्या ख़त्म हो, इसके लिए सरकार का अपनी समाज कल्याण व आर्थिक कार्यक्रमों व नीतियों का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए। समाज के सबसे वंचित तबक़ों के लोगों की उन तक सुगम पहुँच होनी चाहिए। लाभार्थियों के आँकड़े महज़ काग़ज़ों पर बढ़ाने से कुछ नहीं हासिल होने वाला।