हम लोग बोल नहंी पाते पर समझते सब कुछ हैं। आप हमें कुछ भी मानते हों पर आज से कई दशक पूर्व जो ‘नया दौर’ फिल्म में गाना आया था -”यह देश है वीर जवानों का’’, उसके दर्द, मर्म और गौरव से हम तब भी वाकिफ थे और आज भी वाकिफ हैं। चाहे धोबी का सामान ढो-ढो कर हमारी हालत पतली हो गई है पर यह गाना सुनकर हम में भी एक उम्मीद और आस का संचार होता है। ऐसा ही हमें होता है जब हमारे कानों में गूंजते हैं अमर शहीद भगत सिंह के ये शब्द- ”मेरा रंग दे बंसती चोला, मां मेरा रंग दे बंसती चोला।’’ या इकबाल के कलम से निकला ”सारे जहां से अच्छा हिंदुस्ता हमारा’’ इस तरह के बहुत से तराने हमारे जहन में आज भी अंगडाइयां ले रहे हैं। हम कभी स्कूल नहीं गए पर स्कूल के पीछे से पीठ पर भारी बोझा डाले कई बार निकले। उस समय स्कूल की प्रार्थना में जो भी गाया जाता वह देशप्रेम और धार्मिक सौहार्दय से ओतप्रोत होता। यही नगमें युवाओं में देशप्रेम की भावना भरते थे।
पर आज जब हम एक कॉलेज की बगल से निकले तो वहां खड़ा एक विजयंत टैंक देखकर चकित रह गए। शिक्षा के मंदिर में टैंक का क्या काम? पता चला कि नौजवानों में देशप्रेम जगाने के लिए वह टैंक खड़ा किया गया था। हमारी बुद्धि में देशप्रेम की शिक्षा का यह तरीका कुछ जमा नहीं। एक उपकुलपति महोदय तो इसकी तरफदारी बढ़े ऊंचे सुर में कर रहे थे। उनका मानना था कि टैंक देख कर छात्रों में सेना के प्रति आकर्षण ओर देश के प्रति प्यार जागेगा। उन उपकुलपति साहब को यह भी स्पष्ट करना चाहिए था कि यदि देशप्रेम जगाने के लिए एक फौजी टैंक ज़रूरी है तो अपने मां-बाप के प्रति और अपने परिवार के प्रति प्यार जगाने के लिए कौन सी ‘मिसाइल’ घर के दरवाजे पर खड़ी की जाए। युवाओं को भयभीत करके देशप्रेम जगाया जा सकता है यह सोचना हमारे यहां ही ‘मुमकिन ‘ है। शुक्र है अभी देश भक्ति सिखाने का यह नयाब फार्मूला केवल कुछ बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में ही लागू किया जा रहा है पता कब इसे प्राइमरी स्कूलों पर भी थोप दिया जााए, ताकि बचपन से ही देशभक्ति की खुराक बच्चों के भीतर आ जाए। रोचक बात यह है कि जिस देश की सेनाओं में आज भी हजारों अफसरों की कमी हो वहां उच्चतर शिक्षा प्राप्त युवाओं को सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित करने की जगह उनमें ‘पकौड़े तलने’’ जैसा ‘बड़ा’ व्यापार करने की सलाह दी जाती है। इससे तो यही बेहतर होता कि पढ़े-लिखे बेरोजग़ार युवाओं को राजनैतिक दल अपने दलों में शामिल करने का सोचते ताकि कम से कम राजनीति तो पढ़ी-लिखी बनती।
एक ज़माना था जब देश के स्कूलों और कॉलेजों में एनसीसी अनिवार्य हुआ करती थी। हमने छात्रों को खाकी वर्दी पहने कई बार मार्च करते देखा है। उस समय देश का हर युवा आईएसएस या निजी क्षेत्र में नौकरी करने की बजाए सेना में अफसर बनना चाहता था। किसी भी युवा के लिए सेना में अफसरी करना गौरव की बात थी। इसके अलावा ‘स्काउटस’ और ‘गर्लगइड्स’ जैसे कार्यक्रम भी स्कूलों में पूरे उत्साह के साथ चलाए जाते थे। पर आज यह सब खत्म होता जा रहा है। एनसीसी की अनिवार्यता कब की खत्म कर दी गई। युवाओं को सेना में जाने के लिए प्रेरित करने की जगह उन्हें टैंक दिखाए जा रहे हैं। देश की विदेश नीति में ज़ोरदार बदलाव से जिन मुल्कों से हमारे संबंध बेहतर हुए उन देशों में सभी नागरिकों के लिए सेना का प्रशिक्षण अनिवार्य है। हर नागरिक को एक निर्धारित अवधि के लिए सेना में अपनी सेवाएं देनी पड़ती हैं। पर हमने तो बेरोजग़ारों की एक बड़ी फौज खड़ी करके बेरोजग़ारी के पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। बेरोजग़ारी का अर्थ है सस्ती ‘लेबर’ किस के लिए, उद्योगपतियों के लिए।
सेना में खाली पड़े हज़ारों पदों को नहीं भरा जाएगा। जिस ‘पोस्ट’ से कोई रिटायर हुआ वह पोस्ट खाली रखी जाएगी। युवाओं से ‘पकौड़े तलने’ का आह्वान किया जाएगा। सामान खरीदने के लिए ‘ऑन लाइन’ या ‘मॉल’ को तरजीह दी जाएगी। लघु और कुटीर उघोगों का कोई काम नहीं है। हमने तो अपने चारों ओर ऐसा ही होते देखा है। अब नारे भी बदल गए हैं। यह नारा- ‘भारत मां के चार सिपाही, हिंदू, मूस्लिम, सिख, इसाई’ कहीं पीछे छूट गया है।
खैर, हमने युग बदलते देखे हैं। यहां कुछ भी स्थाई नहीं हैं। बदलाव आते रहते हैं। न जाने क्यों आज अचानक ये लाइनें जहन में आ रही हैं-
”हो जाता है जिनमें अंदाज़-ए-खुदाई पैदा,
हमने देखा है, वे बुत अक्सर तोड़ दिए जाते हंै।’’