एक कहावत है कि सफलता में हर कोई साथ होता है और असफलता में आप अकेले रह जाते हैं। दिल्ली के विधानसभा चुनाव के बाद में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हार के बाद गठबन्धन सहयोगी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने नतीजों की ज़िम्मेदारी लेने के बजाय भाजपा को सहयोगियों के साथ तालमेल की कमी के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है।
शिअद के प्रवक्ता दलजीत सिंह चीमा ने कहा है कि हमारे साथ बेहतर समन्वय बनाया जाता, तो भाजपा के लिए बेहतर नतीजे मिलते। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा कि स्थानीय भाजपा नेता चाहते थे कि अकाली चुनाव में भाग न लें, जिसके चलते हम चुनाव से दूर रहे। इसके अलावा मुसलमानों को सीएए में शामिल करने के मामले में हमारे और भाजपा के रुख में मतभेद थे।
अकाली दल के नेता ने कहा कि मतदान से कुछ ही पहले मतभेदों को दूर किया गया, लेकिन तब तक हमारे लिए चुनाव प्रचार में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए बहुत देर हो चुकी थी। चूँकि हमारी पार्टी का कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं था, इसलिए कैडर को सक्रिय नहीं किया जा सका। हमारी भागीदारी भाजपा को फायदा दे सकती थी।
अकाली नेता ने कहा कि भाजपा सिख बहुल विधानसभा सीटों, जैसे- तिलक नगर, राजौरी गार्डन, हरि नगर, कालकाजी और शाहदरा में बुरी तरह हार गयी। यदि उसे इन सीटों पर जीतना था, तो वह क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर चलती।
दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मनजिंदर सिंह सिरसा ने कहा कि अगर भाजपा ने उसके स्थानीय नेतृत्व को किनारे नहीं किया होता, तो परिणाम अलग होते। सिरसा ने कहा कि राजौरी गार्डन और तिलक नगर जैसी सिख बिरादरी की सीटों से सिख उम्मीदवारों को मैदान में उतारना भी भाजपा ने उचित नहीं समझा।
उन्होंने कहा कि राजौरी गार्डन में मतदान में 10 फीसदी की गिरावट आयी। हमें लगता है कि ये सिख वोटर थे, जो मतदान से दूर रहे। यह एकमात्र कारण नहीं है कि शिरोमणि अकाली दल अपने सबसे पुराने सहयोगी भाजपा से नाराज़ है।
बहुत कम लोगों को पता है कि 31 जनवरी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) की बजट से पहले की बैठक को छोडक़र शिअद ने सार्वजनिक रूप से क्यों हंगामा किया? एसएस ढींढसा और एचएस फूलका को पद्म पुरस्कारों से सम्मानित करना भी शिअद की नाराज़गी का एक कारण था; क्योंकि अब ढींढसा से पार्टी के कटु रिश्ते हैं। ढींढसा पहले शिअद के महासचिव थे, लेकिन बाद में उनके सम्बन्धों में दरार आयी और सीनियर ढींढसा ने आिखर पार्टी से किनारा ही कर लिया।
सूत्रों का कहना है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के पुत्र और राज्यसभा सांसद व अकाली दल के नेता नरेश गुजराल ने सिखों के मामलों में महाराष्ट्र सरकार के हस्तक्षेप पर आपत्ति जतायी थी और भाजपा नेतृत्व के सामने शिअद का पक्ष रखा था। यह मामला पंजाब के पूर्व उप मुख्यमंत्री और शिअद अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने गृह मंत्री अमित शाह के समक्ष भी उठाया था। तब गृह मंत्री ने कथित तौर पर वादा किया था कि वह सुनिश्चित करेंगे कि महाराष्ट्र सरकार (तत्कालीन देवेंद्र फडणवीस सरकार) तख्त श्रीनांदेड़ बोर्ड अधिनियम में विवादास्पद संशोधन वापस ले ले। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बता दें कि विवाद की जड़ वह अधिकार है, जो राज्य सरकार को श्राइन बोर्ड के अध्यक्ष नियुक्त करने के लिए मिला है। इस तरह का विवाद वर्ष 2000 में भी देखने को मिला था, जब तत्कालीन आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने कहा था कि सिख हिन्दू धर्म का ही हिस्सा हैं और उनकी आस्था का मूल आधार मुगल शासकों के अत्याचार के िखलाफ हिन्दुओं की रक्षा करना था, जिसके लिए उन्हें तैयार किया गया था।
अकाली दल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के साथ अपना गठबन्धन तोड़ा था और जब वे फिर से वरिष्ठ साथी से जुड़े, तो दिल्ली में समर्थन करने में बहुत देर हो गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि सिख बहुल इलाकों में आम आदमी पार्टी (आप) की जीत हुई। यह कोई रहस्य नहीं है कि ऐतिहासिक रूप से अकाली दल ने नागरिकता कानून मामले में मुसलमानों का पक्ष लिया है। शिअद के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि पार्टी का विचार था कि केवल सीएए ही नहीं, पार्टी को संविधान के अनुच्छेद-370 के हनन के िखलाफ भी सख्त रुख अपनाना चाहिए, जिसने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म कर दिया।
विडम्बना यह है कि केंद्रीय मंत्री और अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर बादल ने कैबिनेट की बैठकों में नागरिकता (संशोधन) विधेयक के िखलाफ बिल्कुल आवाज़ नहीं उठायी। यहाँ तक कि संसद में सीएए के पक्ष में भी अपनी बात रखी। यही नहीं, विधानसभा चुनावों के सम्पन्न होने के बाद अकाली दल ने आिखर भाजपा से हाथ मिला लिया; लेकिन पंजाब में इसका क्या असर होगा? इसका अंदाज़ा किसी को नहीं है। सूत्रों का कहना है कि भाजपा नेतृत्व ने शिअद के साथ सम्बन्ध जारी रखे हुए थे; क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहित भाजपा नेता शिअद के वरिष्ठ नेता सुखबीर सिंह बादल का काफी सम्मान करते हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा के रिश्ते खत्म होने के बाद भाजपा सहयोगियों को खो रही है; क्योंकि शिअद और भाजपा की नाराज़गी के बारे में सभी जानते हैं।
शिअद देश में भगवा पार्टी के सबसे पुराने गठबन्धन सहयोगियों में से एक है। दोनों दल 1977 से तब से गठबन्धन करते आ रहे हैं, जब अकालियों ने विधानसभा चुनाव जनसंघ के साथ लड़ा; जो उस समय जनता पार्टी गठबन्धन का हिस्सा था। माना जा रहा है कि दोनों दलों के सम्बन्धों में अभी और खटास आ सकती है; क्योंकि भाजपा के नेता 2022 में अगले राज्य विधानसभा चुनावों में अकेले जाने की बात कर रहे हैं। सूत्र बताते हैं कि कुछ भाजपा नेता अकालियों से कटे रहते हैं।
साल 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान शिअद और भाजपा का गठबन्धन तीसरे स्थान पर आ गया था, जब आप और शिअद दोनों को हराकर कांग्रेस सत्ता में आ गयी थी। मई, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को ज़बरदस्त जीत मिली; लेकिन पंजाब में उसे मुँह की खानी पड़ी। अब भाजपा ने पहले ही अपने इरादे दिखा दिये हैं कि अगर पंजाब में 2022 में शिअद और उसके रिश्ते खट्टे हो जाएँ, तो शिअद अकेला पड़ सकता है।
पंजाब में अपना आधार बढ़ाने के लिए भाजपा पहले ही बड़े स्तर पर सदस्यता अभियान शुरू करने की तैयारी कर चुकी है। वह यह देख रही है कि ग्रामीण इलाकों में कैसे उसका आधार बन सकता है। खासतौर से भाजपा उस वोटबैंक में सेंध लगाना चाहती है, जो कि पारम्परिक तौर पर अकालियों का है। इतना ही नहीं, सिखों को खुश करने के लिए भाजपा लंगर पर से जीएसटी खत्म करने और सिख कैदियों को रिहा करने जैसे लुभावने फैसले कर चुकी है। यह भी सच है कि भाजपा ने पंजाब में अपना कार्यकर्ता आधार बढ़ाया है। यह भी हो सकता है कि भाजपा अगले पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले शिअद से गठबन्धन के बिना चुनाव लडऩे का फैसला करके सबको चौंका दे।
भाजपा के लिए एक और विकल्प होगा कि वह अधिक सीटों पर दावेदारी करे और शिअद को गठबन्धन में बड़े भाई की तरह काम न करने दे। दोनों पार्टियों के बीच के मनमुटाव से सम्बन्धित कई सवालों के साथ-साथ एक असमंजस पंजाब में विधानसभा चुनाव करीब आने तक बना रहेगा भाजपा और शिअद की पंजाब इकाइयों के भीतर होने वाली चर्चा और उथल-पुथल को देखना दिलचस्प होगा। संयोग से देश की सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टी शिअद इस साल 2020 में अपने अस्तित्व के 100 साल पूरे कर रही है।