तकरीबन 31 साल हुए, जर्मनी को विभाजित करती दीवार को तोड़े हुए। यह दीवार टूटी तो नवंबर 1989 को। एक साल लगा कागज़ पूरे करने में। दीवार के टूटने पर दोनों ओर के नागरिकों की खुशी का पारावार नहीं था। जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। पूरी दुनिया अचभ्भे मेें थी। एक नया इतिहास बना था। दीवार का टूटना और देश का एकीकरण विकास की असीम सम्भावना की ओर संकेत कर रहा था। जिसमें जर्मनी न केवल अखंड, बल्कि और मज़बूत होने का संकल्प ले रहा था। यह खुशी उस संकल्प की थी, जो 3 अक्टूबर, 1990 की याद दिलाता है जब हज़ारों परिवार जो विभाजित हो गये थे; अब फिर एक हो रहे थे। सुख-दु:ख बाँटने का संकल्प ले रहे थे। बड़ी तादाद उन प्रेमियों की थी, जो अपने जीवन के बड़े हिस्से को निरर्थक पाने बैठे थे। उनके चेहरे पर अब उम्मीद की नयी चमक थी।
जर्मनी में बर्लिन ऐतिहासिक शहर है। यहीं है वह मशहूर बैंडेनबर्ग गेट। यह बड़ा ही भव्य गेट है। कई दशकों तक इस उत्तर से पश्चिम जर्मनी और पूर्व जर्मनी के नागरिकों के आने-जाने पर रोक रही। अब यह गेट जर्मनी की एका और आज़ादी की खुशी का प्रतीक है। इसी गेट पर आज आते हैं हाथों में बैनर-पोस्टर लिये मूक प्रदर्शनकारी। तमाम यूरोपियन यूनियन में शामिल विभिन्न देशों के बच्चों के साथ यहीं बड़ा प्रदर्शन करके क्लाइमेट चेंज के खतरे बताये थे ग्रेटा धनबर्ग ने। उसे अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि यहीं से मिली। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बर्लिन शहर भी 1945 में बँट गया था। शहर के बीच कँटीले तार लग गये थे। पूर्व से पश्चिम को दीवार के ज़रिये बँट गया था। यह सिर्फ बँटवारा नहीं था। यह एक देश को पूँजीवाद और माक्र्सवाद में बाँटना था। एक ही शहर के नागरिकों पर यानी एक तरफ आज़ादी और दूसरी तरफ शोषण। दो अलग-अलग विचारधाराएँ। अलग-अलग विचारधाराओं का दबाव।
जर्मन राष्ट्रीय एकता समारोह किसी एक शहर में नहीं, बल्कि देश की राजधानी के अलावा उन तमाम शहरों में मनाये जाते हैं। खासकर जिनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में लगातार इज़ाफा होता दिखता है। बान में एक छात्रा कैथरीरन ने बताया कि यह समारोह देश की एकता और प्रगति का प्रतीक है, साथ ही यह हमारी खुशी और हमारे इतिहास से जुड़ा है। इसलिए घर-घर उल्लास, उत्साह और शालीनता के साथ अपनी खुशी का इज़हार अनोखे तरीके से करते हैं।
हर साल राष्ट्रीय समारोह बर्लिन से शुरू होता है फिर फ्रैंकफर्त (जर्मनी का प्रमुख वैश्विक केंद्र, जो सम्पन्न है व्यावसायिक, सांस्कृतिक शैक्षणिक, पर्यटन और यातायात में) हनोवर, लेपजिग, डुसेलडर्फ आदि शहरों में बड़ी ही धूमधाम से कम-से-कम तीन दिन तो चलता है। इस दौरान विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन होते हैं। संगीत और नृत्य के कार्यक्रम होते हैं। लोगों की रुचियों के लिहाज़ से विभिन्न संग्रहालय, पार्क, रेस्तरां, चिडिय़ाघर, बाज़ार आदि खुले रहते हैं। सभी मिलजुलकर नाचते-गाते, खाते-पीते हैं और अपने सम्पर्क का दायरा बढ़ाते हैं। इस मौके पर विभिन्न दूकानों पर नये-नये उत्पाद भी बाज़ार में अपना आकर्षण बिखेरते दिखायी देते हैं।
एकता समारोहों का केंद्र राजधानी बर्लिन होता है। वहाँ संसद के ऊपरी सदन से इसकी शुरुआत होती है। इस मौके पर चांसलर एंजेला मारकेल ने कहा कि विस्थापितों की समस्या को सभी यूरोपीय देशों को जानते हुए उसके समाधान में परस्पर सहयोग करना होगा। दीवार का टूटना और लोगों का आपस में मिलना जर्मनी के लिए ऐतिहासिक है। आज यह समारोह सिर्फ सरकारी नहीं रहा है। जनता पूरे महीने अलग अलग शहरों की सडक़ों पर मुख्य बाज़ारों, पार्कों, होटलों और रेस्तरां में विभिन्न रंगारंग कार्यक्रमों के साथ समारोह मनाती है।
कोरोना वायरस से यूरोप में फैली महामारी का असर जर्मनी में भी हैै, पर उतना भयावह नहीं है। वहाँ भी मास्क पहनने पर युवा आसानी से राज़ी नहीं होते। इसके खिलाफ कई प्रदर्शन भी हुए। लेकिन समारोह में भागीदारी जताने में कहीं कोई कमी नहीं आयी। पुलिस और प्रशासन अलबत्ता हर पल चौकस रहा। जर्मनी का यह त्योहार कई मायनों में अनोखा है। जर्मन बुद्धिजीवी, राजनीति, समाज-संस्कृति में रुचि लेने वाले राजनीतिक बड़ी बारीकी से इस पर नज़र रखते हैं। वे यह समझने की कोशिश करते हैं कि इस समारोह को मनाने की पीछे क्या-क्या वजह हैं? पूर्व और पश्चिमी जर्मनी में वैचारिक मतभेद नागरिकों में थे। ऐसे में क्या बदलाव दिखा?
लेकिन बदलाव दिखा। पिछले 30 साल में खुद विकास करने की चाह ने, आज़ाद रहने, लोकतंत्र को मानने ने एक स्वस्थ, जागरूक मज़बूत जर्मनी को बनाया। जर्मन इतिहास के पन्नों को सँभालते हुए जर्मन एका का बनाये रखते हुए कमज़ोर, परेशान लोगों के साथ पिछले 30 साल में विकास किया। यह बताते हैं समाजशास्त्री डॉक्टर जार्गन मोरहार्ड। इतिहास है, जब पश्चिम जर्मनी यानी फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी (जीडीआर) जर्मन उैयानी पूर्वी जर्मनी थे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी दो भाग हुआ। यह विभाजन 155 किलोमीटर लम्बी दीवार के ज़रिये हुआ, जिससे बर्लिन वाल रहा। हज़ारों परिवारों ने विभाजन को झेला। आखिर वह घड़ी आयी, जब सारे चेक पोस्ट दोनों देशों के बीच की सीमाओं पर खोल दिये गये। दोनों देशों के नागरिकों के चेहरे खिले। आपसी मेल-जोल बढ़ा। सबने मिलकर एक नये जर्मनी का निर्माण शुरू किया। गरीबी-अमीरी मुद्दा नहीं रहा। परस्पर सहयोग, परिश्रम और वैचारिक आदान प्रदान से देश में खुशहाली आयी।
जर्मनी में बर्लिन एक ऐसा शहर है, जहाँ आधुनिकता के बावजूद इतिहास के पन्ने हमेशा जीवंत दिखते हैं। इतिहास में हमने सँजोये रखा। उससे सीखते हुए विकास करते हैं भारतीय छात्र सूर्यनाथ जो जर्मन भाषा में एडवांस स्टडी कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि कैसे वे पढ़ाई भी करते हैं और जर्मन साहित्य, इहितास और विभिन्न विचारधाराओं को बर्लिन मेंं पैदल घूमते हुए जानते-समझते रहे हैं। जब बर्लिन दीवार टूटी, तो बर्लिन में बने हुए 368 मीटर ऊँचे टीवी टॉवर फरनेशटर्म को गिरा देने की बात हुई। लेकिन उसे बरकरार रखा गया और वहीं से जर्मनी ने प्रसारण व्यवस्था जारी रखी। इसे जर्मन वास्तुकला का एक प्रयोग मान कर दुरुस्त रखा गया।
जब राष्ट्रीय एकता समारोह होते हैं और जाड़ों में कोलोन, बोन मेें कार्निवाल की अगवानी का सिलसिला होता है, तो बर्लिन में ऐतिहासिक स्थलों पर भी रोशनी की झालरें जगमगाती हैं। बड़ी ही सावधानी से इतिहास को चित्रों, तब के प्रतीकों आदि को बड़े ही आकर्षक तरीके से विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित रखा गया है। आप बर्लिन के कठिन दौर को रेख्ता- बर्लिनर डोम, और ओरिएनबर्गर स्ट्रास में घूमते हुए पहचान सकते हैं। बेहद पुराने, और बीती शताब्दी के लम्हों को (वे अच्छे हों या बुरे) उन सबको बर्लिन ने सहेजा है। देखते-समझते हुए आप गुज़रे हुए को आज की चुनौतियों के साथ जान-समझ सकते हैं।
अक्टूबर का पूरा महीना भी जर्मनी के पुराने और नये स्वरूप की झलकी देने के लिए पर्याप्त नहीं है। हालाँकि यह कोशिश रही है कि बर्लिन को उसकी सांस्कृतिक, वैचारिक और ऐतिहासिक पहचान बनाये रखते हुए जर्मन इतिहास और संस्कृति को एक जगह पेश किया जाए। बर्लिन में ईस्ट साइड गैलरी में टूटी दीवार के वे हिस्से आज भी सुरक्षित हैं, जिन पर तब के पश्चिमी जर्मनी के परिवारों के सदस्यों ने अपनी व्यथा को दीवार ही बड़ा कैनवास मानकर रंगों से ग्रैफिटी बनायी। दीवारों पर सिर्फ चित्र नहीं, कविताएँ भी हैं और कार्टून भी। सारी दुनिया के बुद्धिजीवियों के लिए आज भी ऐसी प्रसतुति चुनौती हैं। वे तब के मानव की मानसिक यातना और सोच का धरातल महसूस कर सकते हैं। बुद्धिजीवियों के लिए अनेक म्मूरल और ग्रैफिटी को देखते हुए तब के मानव की यातना और सोच का एक धरातल महसूस किया जा सकता है। जर्मन लोगों ने बर्लिनर माडर 1961-1989 को आज भी सुरक्षित रखा है। जिसे देखकर दुनिया भर के लोग बीते इतिहास की खौफनाक दरिंदगी का एक अहसास ले सकते हैं। बर्लिन वाल आज प्रतीक है उन असंख्य विभाजित परिवारों के अपने जन के बिछड़ जाने का। आज की जर्मन नौजवान पीढ़ी, बर्लिन वाल की ग्रैफिटी देख कर यह अनुमान लगा सकती है कि वे दिन कितने भयावह रहे होंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध में हज़ारों गुमनाम यहूदी लोगों को यातनाएँ देते हुए मार दिया गया। उनकी स्मृति में भी बर्लिन में होलोकॉस्ट मेमोरियल है; जहाँ वाहतुकला के ज़रिये एक विशाल स्थल में श्रद्धांजलि दी गयी है। एक अलग संग्रहालय है, जहाँ द्वितीय विश्वयुद्ध की दुर्लभ तस्वीरें, ढेरों नाम और वाकये हैं; साथ ही तब के जर्मनी के अंदर मचे नाजी तांडव की तस्वीरें हैं, जिन्हें देखकर मानवता शर्मसार हो जाती है। नेशनल यूनिटी-डे के बहाने आप कल्पना कर सकते हैं कि उस दौर की जब 9 नवंबर, 1989 की सारी रात पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी के नागरिकों की भीड़ हाथ में हथौड़ा और छेनी से उस मायावी दीवार को ढहा दिया; क्योंकि इस दीवार ने उस मायावी दीवार के सदस्यों, रिश्तेदारों और प्रेमियों को मिलने से रोक दिया था। वह पीड़ा थी आज़ादी की। वह पीड़ा थी सही मायने में लोकतंत्र को बचाये रखने की। वह पीड़ा थी गरीब और कमज़ोर के काम करने और प्रगति की ओर बढऩे के लिए आज़ादी की। और इसके बाद दोनों जर्मनी एक हों इसके सारे प्रयास शासकीय तौर पर हुए। यूरोप की जनता ने इस एकीकरण को उचित माना।
लगातार संघर्षों के बावजूद जर्मन जनता ने अपनी मेहनत, सोच और विचारधाराओं का सम्मान करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में विकास किया। यह विकास बताता है कि निरंतर सहयोग से कितना कुछ हासिल हो सकता हैै। बर्लिन में ही एक पार्क में कार्ल माक्र्स और फ्रेडरिक एंगेल्स की भव्य मूर्तियाँ हैं। उनके सामने चित्रों से सजे पैनेल पर दूसरे विश्वयुद्ध का ब्यौरा है और दुनिया के विभिन्न देशों में पूँजीवादी और माक्र्सवादी विचारधारा को टकराव की कहानी दी हुई हैं, जिन पर दुनिया भर में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुए संघर्ष का धुँधलाता ब्यौरा सचित्र है। लोग आते हैं पढ़ते हैं। एक छोटी-सी बच्ची हाथों में एक छोटा-सा गुलदस्ता लिये आती है। वह मूर्तियों के पास ज़मीन पर उसे रखती है। कुछ देर खड़ी रहती है। फिर भागकर अपने परिवार के साथ दूर कहीं ओझल हो जाती है।