तीन और चार फरवरी 2019 को दिल्ली विश्वविद्यालय के करोड़ीमल कॉलेज के परिसर में प्रथम दलित साहित्य उत्सव का आगाज हुआ। 3 फरवरी को महोत्सव का आगाज राष्ट्रीय अम्बेडकर मिशन प्रचार मंडल के मोरध्वज गौतम और उनके साथियों ने बाबा साहब अम्बेडकर के विचारों से युक्त क्रांतिकारी गीतों से किया। उद्घाटन समारोह में प्रसिद्ध साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय, लक्ष्मण गायकवाड़, रसाल सिंह, बल्ली सिंह चीमा, सूरज बड़त्या, प्रो. हंसराज सुमन, बलराज सिंहमार, महेंद्र बेनीवाल, मंजू रानी व संजीव डांडा आदि शामिल थे।
इस समारोह की शुरुआत नर्मदा बचाओ आंदोलन व जन-आंदोलनों की राष्ट्रीय समन्वय और प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर के भाषण से हुई। उन्होंने कहा कि दलित साहित्य किसी जाति, धर्म और लैंगिक पहचान से जुड़ा साहित्य और रचना नहीं है, बल्कि समाज का हर वह शख्स जो उत्पीडऩ और दमन के खिलाफ रचनाशील है, वह इसकी परिधि में आता है।
उन्होंने देश में चल रहे सरकारी दमन और विनाशकारी विकास के बारे में बताते हुए कहा कि भाजपा सरकारें संविधान होने के बावजूद भेदभाव की राजनीति आगे लाकर लोगों के बीच हिंसा और बंटवारा कर रही हैं। जब संविधान समानता का अधिकार देता है और देश में जातिगत भेदभाव के खिलाफ कड़े कानून हैं, तब भी खुलेआम भीड़-हत्या जारी है, किसान, मजदूरों, आदिवासियों की जमीनें छीनी जा रही हैं। खासकर दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक इनके शिकार बन रहे हैं। दलित साहित्यकार लोगों की वेदना, उस पर हो रहे जुल्मों को समाज के सामने लाने का कार्य कर रहे हैं और समाज को इसे स्वीकारते हुए साहित्य की कमान सौंपनी चाहिए। दलित साहित्य देश के विकास और राजनीति में एक नई सकारात्मक दिशा और उर्जा लाता रहा और भविष्य में भी ऐसा ही होगा, यह हमारा पूरा विश्वास है।
दलित साहित्य महोत्सव की शुरुआत करते हुए करोड़ीमल कॉलेज के डॉ नामदेव ने देशभर से आए विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों, कलाकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं का अभिनन्दन किया और महोत्सव के महत्व के बारे में बताया कि हमने इस आयोजन के लिए देशभर के करीब 19 अलग-अलग भाषाओं के साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं से संपर्क किया। आयोजन के संस्थापक सूरज बड़त्या ने पुन: दलित शब्द की व्याख्या की – ‘दलित शब्द समाज के हर दलित-आदिवासी, महिला, घुमंतू समुदाय, ट्रांसजेंडर समुदाय, किसान, मजदूर व हर वंचित समुदाय को सम्मिलित करता है। यह शब्द अपने-आप में संघर्ष और प्रतिरोध का प्रतीक है और समाज का वास्तविक चेहरा सामने लाता है।
दलित साहित्य महोत्सव को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय ने कॉर्पोरेट- हावी सरकारी साहित्य सम्मेलनों की आलोचना में कहा कि देश में चल रहे विभिन्न सरकारी साहित्य महोत्सव का आयोजन सिर्फ खानापूर्ति रहा है और वहां समाज की संवेदना रखने वाले उपयुक्त वक्ताओं की कमी है। सभी की उन्नति के लिए आवश्यक है अवसर मिलना। उन्होंने बताया कि दलित साहित्य विलास का साहित्य नहीं, बल्कि उनकी पीड़ा, प्रखर आवाज और उनके संघर्षों का साहित्य है। दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग, घुमंतू समुदाय, आदिवासी, महिलाओं और अन्य शोषित समुदायों की प्रतिभाओं को बाजारवाद और ब्राह्मणवाद ने रोक दिया है, जिसका विरोध दलित साहित्य में मिलता है। दलित साहित्य सिर्फ दलितों का ही नहीं बल्कि उन सभी लोगों का साहित्य है जो अत्याचारों के खिलाफ एकजुट और संघर्षरत हैं।
महोत्सव तब और जोश से भर गया जब प्रसिद्ध गज़लकार और साहित्यकार बल्ली सिंह चीमा ने अपनी रचनाओं ‘दूर हम से क्यूं उजाला, इसकी भी चर्चा करो, है कहां सूरज हमारा, इसकी भी चर्चा करो’ और ‘ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के’ को लोगों के सामने रखा और समानांतर सत्रों में जाने से पहले लोगों की चेतना जागृत कर दी। ये वही गीत और रचनाएं हैं जो देशभर के आंदोलनों और संघर्षों की आवाज बनती रही हैं और आज भी उतने ही तार्किक और प्रासंगिक हैं।
‘दलित साहित्य समाज में भेदभाव, जातिवाद खत्म करने का साहित्य है, पुनर्निर्माण का साहित्य है। एक ऐसा साहित्य जो सबका हित करे।’ इससे शुरुआत करते हुए महाराष्ट्र से आए प्रसिद्ध साहित्यकार लक्ष्मण गायकवाड़ ने भेदभाव की पराकाष्ठा बताते हुए कहा कि जब गाय ब्राह्मणों ने पाली तो उसे देवता का स्थान मिला और गधा, सूअर दलितों ने पाला तो उसे गाली मिली और उन्हें वंचित कर दिया। दलितों को इस लोकतंत्र की परिधि में साहित्यिक भागीदारी के साथ-साथ राजनीतिक भागीदारी भी बढ़ानी होगी। जानवरों और पशुओं को अलग से बजट मिल रहा है, लेकिन विमुक्त घुमंतू समुदायों को न कोई बजट मिल रहा है, न उनके लिए कानून बनाए गए। गाय के नाम पर इंसानों को मारा जा रहा है जिसका विरोध दलित साहित्य करता है।
‘यह संगोष्ठी नहीं, महोत्सव है, एक जश्न है जो महाविद्यालय के वातावरण में दिखाई दे रहा है। यह सीखने-सिखाने, संघर्षों और बदलाव का महोत्सव है’, कार्यक्रम की विशेष अतिथि और करोड़ीमल कॉलेज की प्रिंसीपल डॉ. विभा चौहान ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा।
दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक समिति के सदस्य और रिदम के निदेशक डॉ हंसराज सुमन ने कहा कि दलित साहित्य देश में भागीदारी सुनिश्चित करते हुए एक बहुविध समाज के निर्माण के लिए अति-आवश्यक है। आज जब समाजिक न्याय पर आधारित आरक्षण ताक पर रखकर आर्थिक आधार पर आरक्षण करने की कोशिश की जा रही है, तब यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि दलित समाज अपनी रचनाओं को समाज के सामने स्पष्ट रूप से रखे।
‘आज दलित साहित्य विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है और हमारी आने वाली पीढ़ी संवेदनशील बन रही है और शोषित तबके अपने अधिकारों के प्रति जागृत हो उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह सकारात्मक है और हम ऐसे आयोजनों से इस पहल को और आगे ले जाना चाहते हैं।’ महोत्सव के प्रमुख आयोजक और अम्बेडकरवादी लेखक संघ से जुड़े डॉ. बलराज सिंहमार ने कहा।
इस अवसर पर सूरज बहादुर थापा ने आज की अकादमिक प्रणाली के सरलीकरण पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि आज जब माक्र्स की बात होती है विश्वविद्यालयों में तो उसे सिर्फ वर्गीय विमर्श से जोड़ दिया जाता है और जब अम्बेडकर की बात होती है तो उन्हें जाति-विमर्श से। वर्ग, जाति, लिंग व अन्य सभी विमर्शों को एक साथ पढऩे की जरूरत है और विश्वविद्यालयों के जरिए इसे आगे बढ़ाना होगा।
एक विमर्श में हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भेदभाव की जड़ें भाषाओं में दिखाई और कहा कि यहां आपका धर्म देखकर लोग भाषाओं को जोड़ देते हैं, जैसे एक समय मुसलमान हिंदी पढऩा चाहे या संस्कृत तो उन्हें अलग नजर से देखा जाता था और वही बात उर्दू के साथ हो गई थी। देश में अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए लोगों ने धर्म बदले लेकिन आज भी नए धर्मों में उनकी जाति नहीं बदली। कई लोग कहते हैं कि मुसलमान मुख्य धारा में नहीं हैं। मैं मानता हूं कि वे मुख्य धारा में हैं लेकिन लोग उन्हें मानना नहीं चाहते। आज इस समाज के लोगों की स्थिति कहीं दलितों से भी बदतर हो गई है। एक मुसलमान आज देश में गाय नहीं पाल सकता, ऐसा माहौल बनाया गया है, ‘अगर मेरी कहानियों से मेरा नाम हटा दिया जाए तो ऐसा लगेगा कि किसी दलित लेखक द्वारा लिखा गया है। मैं अपने अनुभव के आधार पर लिखता हूं, पहचान समाज बनाता है,’ उन्होंने कहा।
‘आदिवासियों-दलितों को जल-जंगल-जमीन के संघर्षों से आगे नहीं बढऩे दिया जा रहा है, सरकार आज भी हमारी जमीनों, जंगलों पर कब्जा कर रही है। पत्थलगढ़ी आंदोलन में हम देख सकते हैं कि कैसे हमारे स्वशासन के प्रयासों को कुचला जा रहा है, संविधान को भी मानने से इनकार कर रही है सरकार। लेकिन हम एकजुट होकर लड़ेंगे और साहित्य के माध्यम से भी अपनी आवाज मुखर रूप से बुलंद करते हुए समाज को सही रास्ते पर लाएंगे’, निर्मला पुतुल ने कहा।
‘आज देश की विडम्बना है कि बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक कहा जाने लगा है। कुछ समुदाय विशेष द्वारा समाज को सच्चाई से परे रखने की साजिश को उजागर करने के लिए ऐसे दलित साहित्य सम्मेलनों की जरूरत है’, साहित्यकार केसर राम ने कहा।
विमर्शों के साथ एक अन्य सभागार में दलित इतिहास, उनके संघर्ष, मजबूती से पुरुषवादी समाज से संघर्ष करते हुए आगे बढ़ती महिलाओं के संघर्ष को फिल्मों के माध्यम से दिखाया गया। कई लेखकों और शोधार्थियों द्वारा आलेख का प्रस्तुतीकरण हुआ और इस अवसर पर आयोजित पुस्तक मेले में 12 प्रकाशकों ने भाग लिया और आकर्षण का केंद्र बने रहे।
दो दिवसीय दलित साहित्य महोत्सव में चैथीराम यादव, जय प्रकाश कर्दम, श्यौराज सिंह बेचैन, मुस्तफा खान, जया श्री, हरीश मंगलम, हरेश परमार, हरे प्रकाश उपाध्याय, क्रांतिपाल सिंह, बलवीर माधोपुरी, मोहन त्यागी, नंदिता नारायण, हेमलता महिश्वर, अनीता भारती, रजत रानी मीनू, स्नेहलता नेगी, सरोज कुमारी, मुसफिर बैठा, कर्मानंद आर्य, प्रज्ञा, जी.बी. रत्नाकर, वी.कृष्णा, डॉ. राजेशकुमार मांझी, डॉ. मूलाराम, डॉ श्याम कुमार, राजपाल सिंह राजा, रजनी अनुरागी, रजनी विसोदिया, जोएल ली, आदि ने हिस्सा लिया।
दलित महोत्सव में आए साहित्यकारों, कलाकारों ने भीमा कोरेगांव में हिंसा की जांच के नाम पर की जा रही शर्मनाक दमनात्मक कार्रवाई को रोकने और उपा जैसे कानून को हटाने की मांग की और इस कानून के तहत गिरफ्तार किए गए सामाजिक कार्यकर्ताओं, साहित्यकारों, कलाकारों को जल्द रिहा करने के लिए आवाज उठाई।
दिल्ली समर्थक समूह से संजीव डांडा ने दलित साहित्य महोत्सव को महत्वपूर्ण आयोजन बताते हुए देश के विभिन्न पहचानों के संघर्षों और आंदोलनों से साहित्य के जुड़ाव का एक कदम बताते हुए इसे आगे ले जाने का आह्वान किया।
महोत्सव का विशेष आकर्षण बड़ी संख्या में मौजूद विद्यार्थी थे, जो दिल्ली के करोड़ीमल कॉलेज, आर्यभट्ट कॉलेज, रामानुज कॉलेज, जामिया मिलिया इस्लामिया तथा आगरा व कई अन्य जगहों के विश्वविद्यालयों से आए थे।
इस समारोह का आयोजन अम्बेडकरवादी लेखक संघ, हिंदी विभाग, करोड़ीमल कॉलेज, जन-आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एमएपीएम), दिल्ली समर्थक समूह, रिदम पत्रिका, अलग दुनिया, दिल्ली फोरम फॉर डेमोक्रेसी, मगध फाउंडेशन, कहानी पंजाब और अम्बेडकर वर्ड ने किया था।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं तथा इंस्टिट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड सस्टेनेबिलिटी दिल्ली के निदेशक हैं