देश की राजधानी नई दिल्ली के उत्तर पूर्वी इलाके के लोग अब भी दहशत में हैं। सोमवार को दिन में शुरू हुआ उपद्रव शाम होते-होते और ज्यादा हिंसक होता चला गया। लाइव सोशल मीडिया के इस दौर में गोलीबारी, आगजनी, पत्थरबाजी, पेट्रोल बम, लोहे की रॉड का खुल्लमखुल्ला खेल किया गया। यानी प्रशासन और कानून को जूती की नोक पर रखा गया। प्रशासन लाचार है या इसे बना दिया गया, क्योंकि वह इस दौरान उदासीन बना रहा, कई जगह तो बेखौफ दंगाइयों के साथ भी दिखा।
इतना ही नहीं, देर रात गृह मंत्रालय में उच्च स्तरीय बैठकों का दौर चलता रहा, सुबह से भी जारी है। पर जमीन में कुछ और ही चल रहा है। मुस्तफाबाद, कर्दमपुरी, चांद बाग, मौजपुर जैसे इलाकों में तो उपद्रवियों और दंगाइयों के साथ ही खाकीधारी भी दिखे। लोगों को चुन-चुनकर यानी नाम पूछ-पूछकर लोगों को पीट रहे थे और उनके वाहनों को आग का गोला बना रहे थे। ये सिलसिला तकरीबन रातभर चला रहा। दिल्ली सरकार तो मानो पुलिसिया काम के लिए धरने पर बैठने को मजबूर रहती है। देर रात मंत्री समेत कुछ विधायक एलजी हाउस में उनके न मिलने पर धरने पर ही बैठ भी गए।
ये अलग बात है कि ट्रंप के राजधानी में होने के चलते राष्ट्रीय मीडिया ने इसे ज्यादा महत्व दिया, पर लोगों ने शायद 1984 के बाद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर दिल्ली को जलते हुए देखा होगा। सिर्फ दिल्ली को जलाया ही नहीं गया, बल्कि यहां की संस्कृति को भी मिटाने का प्रयास किया गया। लोगों को सांप्रदायिक करार देने का मंसूबा भी देखने को मिला। दिलवालों की कही जाने वाली दिल्ली के लिए नासूर बने ऐसे उपद्रवियों पर नरमी बरती गई तो आने वाले वक्त में मुल्क के लिए नासूर साबित होने से कोई भी इनकार नहीं कर सकता।
यह सच है कि हिंसा और दंगों में किसी नेता का रिश्तेदार तक नहीं मारा जाता, पर गरीबों को ही मारा और मिटाया और फिर बसाया जाता है। आखिर कब तक ये सिलसिला चलता रहेगा। क्या किसी आंदोलन को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लेना जरूरी है। अगर ऐसा होता है तो यह लोकतंत्र के लिए कहीं ज्यादा खतरनाक साबित होने वाला है।