मैं उनके निधन पर उतना ही दुखी हूं जितना उनके जीने पर था. खुशवंत सिंह का अकारण और अतार्किक हिंदी विरोध कइयों की तरह मुझे भी सालता था. सालता इसलिए था कि उन जैसा सुपठित, सुचिंतित और देसी ठसक वाला अंग्रेजी लेखक विरल है. वरना हिंदी समेत कई जायज मुद्दों का अंधा और काना विरोध तो कई लोग करते रहते हैं.
बेबाक, बिंदास और दूसरों सहित खुद की भी खाल खींचने वाले लेखन का सॉफ्टवेयर खुशवंत ने उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो से लिया था. दोनों समकालीन थे. खुशवंत हिंदी-उर्दू को चाहे जितना भी कोसते रहे हों, वे उर्दू खूब पढ़ते थे, और पुरातन से लेकर आधुनिक तक कई उर्दू शायरों के अशआर उन्हें कंठस्थ थे.
खुशवंत सिंह की सबसे बड़ी खूबी उनका खिलदंड़पन था. यह विशेषता उनके लेखन और व्यक्तित्व दोनों में थी. उनमें स्वयं का उपहास उड़ाने और खुद को बेनकाब करने का अद्भुत साहस था. तभी वे निर्भीक होकर दूसरे पर टूट पड़ते थे. इसके समर्थन में मैं अपने साथ उनकी पहली और अंतिम मुलाकात का जिक्र करना चाहूंगा. हम दोनों दिल्ली में एक पार्टी किस्म के समारोह से झूमते हुए बाहर निकले. दरअसल झूम तो मैं ही रहा था, खुशवंत सिंह मुझे अपनी वजह से ही लहराते दिखे होंगे. वे अपने शराबी होने का जितना ढिंढोरा पीटते थे, स्थिति उसके ठीक उलट थी. वे नियत समय पर, नियत मात्रा में नियत ब्रांड पीते थे. खैर, मैं अपनी बुलेट मोटर साइकिल से टिहरी से दिल्ली पहुंचा था, मैंने हिलते हुए अपनी बाइक स्टार्ट करते हुए उनका आह्वान किया कि मेरे साथ बुलेट पर घूम कर अपनी शाम को और मस्त बनाएं. उन्होंने हंसते हुए हाथ जोड़ कर कहा, ‘ओ तू तो कहीं मुझे ठोक देगा मेरे बाप.’ मैंने फिर बात आगे बढ़ाई, ‘कभी टिहरी मेरे घर पर आएं या मुझे अपने घर बुलवा लें.’ इस पर वे बोले, ‘तुम्हंे अंग्रेजी नहीं आती और मुझे हिंदी. हम दोनों एक दुसरे को बोर करने के सिवा क्या करेंगे?’
अपने सारे उचक्केपन के बावजूद समाज, राजनीति, पर्यावरण, संस्कृति आदि के बारे में न सिर्फ उनकी समझ गहरी थी, बल्कि समर्पण भी अगाध था. लगभग तीन दशक पहले उन्होंने मेरे पर्यावरणवादी पिता (सुंदर लाल बहुगुणा) को साक्षी मानकर संकल्प किया था कि उन्हें मृत्योपरांत जलाने की बजाय दफनाया जाए क्योंकि यही पर्यावरणसम्मत पद्धति है. यह घोषणा उन्होंने बाकायदा प्रकाशित करवाई. इसी तरह पंजाब में अशांति के चरम काल में खाड़कुओं ने उन पर आरोप लगाया कि वे सिख होकर भी उन्हें उग्रवादी कहते हैं इसलिए क्यों न उन्हें दंडित किया जाए. इस पर खुशवंत सिंह ने उन्हें दो टूक जवाब दिया, ‘मैंने तुम्हंे उग्रवादी कभी नहीं कहा, बल्कि हमेशा लुच्चा कहा क्योंकि तुम लोग यही हो.’ भूमिगत होने से पहले एक बार उनका सामना जनरैल सिंह भिंडरावाला से हो गया. भिंडरावाला ने उनकी दाढ़ी छू कर ललकारा, ‘ऐसे भी पथभ्रष्ट सिख हैं जो दाढ़ी रंगते हैं. उन्हें सबक सिखाना होगा.’ खुशवंत सिंह ने जवाब दिया–’मैं न सिर्फ दाढ़ी रंगता हूं बल्कि शराब भी पीता हूं.’और फिर पास बैठे प्रकाश सिंह बादल की और इशारा कर कहा, ‘मेरे साथ कभी-कभी ये भी पीते हैं.’ स्वाभाविक है कि बादल ने स्वयं को असहज महसूस किया.
खुशवंत सिंह के पास अनुभव और विचारोत्तेजना की यह संपदा उनके व्यापक भ्रमण के कारण भी आई . एक रईस का बेटा होने के कारण उन्हें बचपन से ही देशाटन का भरपूर लाभ मिला. लेकिन युवा होने पर उन्होंने खानदानी रईस होने के बावजूद मामूली नौकरियों से जीवन की शुरुआत की. जो परिवार आधी नई दिल्ली का मालिक समझा जाता रहा हो उसके कुंवर ने बग्घियों पर चलने की बजाय अगर साइकिल पर पैडल मारते हुए नौकरी करना पसंद किया तो एक एक बड़ा कारण खुशवंत सिंह की स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर होने की प्रवृत्ति ही थी. विचारों से वे निसंदेह दक्षिणपंथ की ओर झुके हुए थे लेकिन थे मनुष्य की अस्मिता और चेतना के प्रबल पक्षधर. अपने सुदीर्घ जीवन में उन्हें छोटे-बड़े अगणित लोगों का सान्निध्य मिला जिसका उन्होंने भरपूर उपयोग किया. अप्रतिम चित्र शिल्पी अमृता शेर गिल से सबंधित संस्मरण में वे बिंदास अंदाज में लिखते हैं – गर्मी की भरी दोपहर वह मेरे घर पहुंची. मेरी पत्नी ने कहा भी वे घर पर नहीं हैं . लेकिन वह अनसुना कर मेरे बेडरूम में घुस गई. मेरा फ्रिज खोला और बीयर की बोतल निकालकर पीने लगी. फिर मेरे शिशु की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘छी, यह इतना गंदा बच्चा किसका है, एकदम सूअर के बच्चे जैसा.’ उन्होंने संजय और मेनका गांधी से अपने प्रगाढ़ संबंधों के बारे में भी बेबाक लिखा. साफ-साफ लिखा कि किस तरह संजय गांधी की वजह से उन्हें राज्य सभा की सदस्यता और हिंदुस्तान टाइम्स की संपादकी मिली. कुछ इतना तिक्त भी लिखा कि मेनका गांधी के साथ मुकदमेबाजी तक हो गई. वही मेनका गांधी जिनका पक्ष लेने के कारण इंदिरा गांधी उनसे नाराज हो गई थीं.
सरदार जी पूरे दुनियादार भी थे. अपने घर आने वाले हर अतिथि से वे अपेक्षा रखते थे कि वह अपनी ड्रिंक साथ लाए. इमरजेंसी में कभी पिलानी भी पड़ जाए , तो दो पैग के बाद बोतल को ताले में रख देते थे. इसी तरह भगत सिंह के विरुद्ध गवाही देने वाले अपने पिता का वे हमेशा बचाव करते रहे. यह कहने का साहस नहीं जुटा पाए कि हां, मेरे पिता से वह गलती हुई थी.
जो भी हो, वे थे तो सवा लाख में एक सरदार.