मैं खुद को हल्का कर रही थी। सिर्फ कपड़ों से ही नहीं, बल्कि और भी बहुत कुछ से….। तमाम तरह के ख्यालात मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। जबकि मैं अपना नंगापन ढांप रही थी तो भी।
उस सिंथेटिक कमीज़ को उतार फेंक कर अपने दुबले-पतले ढांचे को मैंने उस पुरानी से सूती कपड़े से ढक लिया था। जो उस उम्रदराज बिस्तर के एक कोने में थी और जो कपड़ों के बोझ से नीचे दबी फैली सी थी।
आखिर बदलना था क्यों आखिर। इसकी बजाए तो मैं तो यूं ही सड़क पर चली जाती। उस बस स्टॉप की ओर वही कमीज पहने हुए। लेकिन नहीं। रूकती हूं और बदलती हूं। और अचानक रंग खो रही उस ढीली-ढाली ब्रा को उतार फेंकती हूं – क्या ज़रूरत है इस सारे कसे कसाए बंदोबस्त की जब मेरी छातियां तो यों भी कितनी सिकुड़ी और उदास सी हैं।
मैं उदास हो जाती उस आकार में।
विचार मंडराते रहते हैं और मुझे झटके भी देते हैं। मैं सीढिय़ों के पास हूं। उन्हीं सीढिय़ों के पास जो मुझे यहां लाईं। शोर-शराबे वाले शहर से बाहर उसी के एक बेहद छोटे उपनगर में। उन तमाम टूटे हुए बंधनों से दूर, यहां एक दूसरे मोड़ पर मैं पहली बार इसी वसंत में यहां आई थी। वह टूटी हुई बाढ़ जो बाहर की चारदीवारी के पास थी। बहुत समय नहीं गुजरा… लकड़ी की बनी यह सीढ़ी उस दरकते ढांचे तक ले जाती है। मैंने खुद को उस ‘घर’ की ओर खींचा जहां अल्जाइमर के मरीज़ रहते हैं। मैं वहां खड़ी रहती हूं। देखती रहती हूं लाल रंग से पुते सामने के दरवाजे को! मैंने उस घर के बारे में सुन रखा है उस होम्योपैथ से। जो इस घर में रह रहे अल्जाइमर के मरीजों के दिमाग में दरकते तंतुओं को पूरी कोशिश से फिर सक्रिय करने में जुटा रहता है। इसी घर में उसकी अपनी पत्नी प्रेमा भी रहती है और वह आता-जाता रहता है।
रोजमर्रा की चेतावनियों के साथ ही वह मुझे यह सलाह भी देगा कि मैं जगह बदल लूं। बदलाव की कोशिश कीजिए। आप उनसे बात कीेजिए जो अल्जाइमर के मरीज़ हैं। उनकी सुनिए… वहीं काम कीजिए। कुछ महीनों के ही लिए सही। हो सकता है आपको पसंद आए। आप जब चाहे तो वापस आ सकती हैं। यह कोई नियमित नौकरी नहीं है और न यह कहीं कायदे-कानूनों से ही जुड़ी है।
हालांकि जम्मू के बाहरी इलाके में यह था। जहां मेरे अपने पिता कई साल तक अल्जाइमर के मरीज बन कर यहीं रहे। उनकी याददाश्त की कोशिकाएं आपस में उलझ गई थीं। इसी कारण मुझे भी थोड़ी बहुत जानकारी हो गई थी आपस में गुंथी उन सिकुड़ी मेमोरी सेल के बारे में।
लाल पेंट लगा वह दरवाजा एक चौकोर बड़े कमरे में खुलता था। वहां होते थे एक दर्जन मरीज़ और उनकी मिजाजपुर्सी के लिए ढेरों लोग। कोई बहुत दूर नहीं थी यह जगह। फिर वहीं होता था एक तरह का वह डाक्टर। हल्की सफेद कमीज़ पहने। वह सबको जल्दबाजी में देखता। मुझे देखते ही वह खुद को हल्का करने लगा था। इसके पहले कि मैं अपना सामान उतार पाती। उसने पूछा कि मैं क्या उसे मदद दे सकती हूं अल्जाइमर के इन पीडि़त लोगों से बातचीत करके। यह सोच कर कि मैं यह सब दून में रात के सफर सा मान लूंगी। वह तेजी से उस बालकनी की ओर बढ़ा जिसे जल्दबाजी में ढका गया था। बिना रुके वह बोलता रहता। जब ठहरता लगता कि यह तो एक तरह की कमेटरी ही हो गई।
यह है मेरा आफिस… हर मरीज को एक कमरा दे दिया है। इन सभी चौदह लोगों की पृष्ठभूमि बहुत अच्छी है। एक है सेवानिवृत जनरल, एक है डाक्टर जिसकी सेवाएं खत्म हो चुकी हैं। दो जो मैनेनिकल इंजीनियर हैं फिर वह पुलिस प्रमुख है। और … बारह आदमी और दो महिलाएं। प्रेमा मैडम की हालत बिगड़ती जा रही है… और श्रीमती शाह अपने कमरे में लेटी रहती हैं लेकिन वे पूछती रहती हैं कि क्या तुगलकाबाद के उनके घर को दीमकों ने बर्बाद कर दिया है। दो दिन पहले ही एक नया मरीज भर्ती हुआ है। ठीक ठाक ही है। बहुत खराब नहीं लगता है बीमारी की अभी शुरूआत है। उसके अपने सगे भाई उसे लाए थे और छोड़ गए। उसे तनिक भी चैन नहीं है। खूब बात करता है… किसी उद्योग व्यापार में था.. वह रहमत रहीम है। यहां हैं फाइलें उन तमाम लोगों की हैं जो यहां है। उनमें हर एक का ब्यौरा है जो मिल सका। उन्हें पढ़ डालों … आपका कमरा दूसरी मंजिल पर है।
‘दूसरे कमरे?’ मैंने पूछा
‘प्रेमा मैडम का कमरा तो यहीं है। कुछ कमरे उस और है?’
‘और मेम साहिब?’
‘उन्होंने तुम्हारे बारे में बताया था और…’
‘उनसे मैं अब तक मिल नहीं सका। हालांकि अभी कल ही उनसे बात हुई। नई दिल्ली से चलते हुए।’
‘मेरे होम्योपैथ डा. गुरूदत ने सलाह दी थी कि मैं नीचे आ जाऊँ तो दूसरे मरीजों की मदद हो जाएगी और…’
‘वे प्रेमा मैडम के पति हैं?’
‘हां..हां… वे मेरे होम्योपैथी भी हैं?’
‘मैं एलोपैथ हूं। होम्योपैथी में मेरा भरोसा नहीं है। लेकिन क्या कहना है यदि सेन साहिब पूछे।’
‘वे यहां है या कहां हैं?’
‘अभी अभी टहलते हुए घर को गए हैं। सिर्फ पांच मिनट हुए। वहां, उस इमारत को। देखिए इस खिड़की से… वहां, नीम के उस पेड़ के पास। यह भी उनके पूर्वजों का ही घर है। वह है उनके पिता का बंगला।’
‘उनके पिता?’
‘आप उनके बारे में इतना कुछ जानते हैं?’
‘उनके पिता भी अल्जाइमर से पीडि़त थे और अब…’
‘अब आक्रामक हो गए हैं। उन्हें यहां से दूसरी जगह भेज दिया गया जब वे ङ्क्षहसक हो उठे। इन मरीजों में कुछ को संभालना बड़ा ही कठिन है। दूसरे तो उदास बैठे रहते हैं… आप एक मौका लें, देखिए यदि संभाल पाएं। यह काफी कठिन तो है ही।’
मैं नीचे लेटी रही उस पहली रात। इसी कमरे में। इसी पुराने बिस्तर पर। जिद की वे तमाम बातें मेरे ख्यालों में उमड़ती-घुमड़ती रहीं। मैं यह तय नहीं कर पा रही थी उन तकलीफदेह बातों को। मैं थक गई थी। मैंने करवट ली। मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि मुझे आखिरकार यहां आना चाहिए था या नहीं। नहीं पता, मैं किसी एक भी बीमार को संभाल सकूंगी या नहीं। किसी भी चीज का भरोसा नहीं और मैंने यह यात्रा की। मैंने क्यों खुद को वहां से हटाया। वहां से यहां आने के लिए ही तो मैं व्यग्र थी। …और उत्सुकता में पड़ी रही। और वह पहली रात घनी होती रही। वे यादें फिर-फिर आतीं। इन्होंने मुझे छोड़ा ही नहीं, यह क्या थकाऊ नहीं होगा, उन सभी मरीजों के बीच बैठना जिनके मेमोरी सेल यानी याददाश्त की कोशिकाएं सिकुड़ गई हैं। उनकी बातें सुनना, उन्हें हल्का होने देना। उनके अचानक एक-दूसरे से टूटे वाक्यों पर सिर हिलाना और उन कुहराए टुकड़ों को उनकी याद के टापुओं में तैरने देना।
जब पिता के साथ थी तो बात ही अलग थी। शायद यह खून का रिश्ता था जिसके चलते उनकी फुसफुसाहट के साथ ही फौरन जुड़ाव हो जाता था। वे बैठ जाते थे जैसे वे सोए हुए दुलारे जा रहे हों। एक दुखी बच्चे की तरह उदास और गमगीन। ऐसे ही वे अपने आखिरी दिन बैठे थे। इस सांघातिक अनियमितता के चलते जो लाइलाज बीमारी है सिवा इसके कि आप स्नेह और भावपूर्ण तरीके से मरीज को दुलारे और साथ रहेें। मरीज को यह अनुभव कराते रहें कि आप उसके साथ हैं और उस पर दबाव को आप भी महसूस कर पा रहे हैं।
अब मैं यह साफ तौर पर यह याद कर पा रही हूं कि इसी पुराने बिस्तर पर मैं लेटी रहती थी जब सूरज की किरणें खिड़की से अंदर आती थीं। मैं दूसरे दिन का मुकाबला करने से डरती थी। मैं नर्वस हो उठी। मैंने अचानक दरवाजा खुलने की आवाज सुनी। दरवाजा ज़ोर लगा कर खोला गया हो और यह भड से खुल गया कोई अंदर आता है उसे बड़े ही इत्मीनान से देखती हूं मैं।
‘नहीं, सेन नहीं सेन साहिब, नहीं। मैं रहमत हूं… रहमत रहीम आप यहां आई है हमारी देखभाल के लिए। आप हमारी देखरेख करेंगी या हमारी रखवाली। क्या हम बच्चों की तरह हैं। आप क्या सो रही हैं। बे्रकफास्ट हो गया और …’
‘दंग सी रह गई मैं। मैंने यूं ही खुद पर शाल डाली ली। बिस्तर के किनारे से मैं लगभग कूद सी गई। मेरे अनधुले मुंंह से अजब सी गंध उसे लग रही होगी। बहुत ज्य़ादा तो नहीं। फिर भी वह वहीं खड़ा रहा। एक अजीब तरीके से लगातार घूरता हुआ। मुझे लगा कि यह यहां से हिलेगा नहीं, भले ही मैं आक्रामक तरीके से उस पर हमला करूं तो भी।’ आप क्या मरीज?
‘मरीज़। मैं कोई मरीज नहीं। यहां मुझे सिर्फ रख दिया गया है। मेरा भाई सोचता है कि मेरी याददाश्त कमज़ोर हो गई है। नहीं, यह डिमेंशिया भी नहीं है। वह इस सिर की जांच करा लेता। मैं कोई बच्चा तो नहीं। इस बीमारी का उसे भय है। सोचता है मैं उसकी चीजें लेकर भाग जाऊंगा। मैं राह भूल भी जाऊंगा तो एक बार या दो बार। लेकिन इसका यह…’
मैं वहां चुपचाप खड़ी थी। बड़ी असहज सी। इस मरीज को देखती हुई जो कुछ मज़बूत इरादों का लग रहा था। यह जताते हुए कि उसके साथ सब कुछ ठीक ठाक है। वह धाराप्रवाह बोल रहा था। वह तो वहां से हटने को तैयार भी नहीं था, जबकि मैं कई बार इशारा दे चुकी थी कि बाद में मिलते हैं लाउंज में।
मैंने न तो मुंह धोया था और न बालों में कंघी की थी। मैंने कोशिश की पीछे जाने की, आगे आने की। लेकिन वह वहीं जमा रहा। ढेरों और वाक्य सुनाता हुआ। तमाम किस्से सुनाता हुआ और साथ में तरह-तरह की भाव-भंगिमा बनाता हुआ। एक भी ब्यौरा वह ऐसे न छोड़ता कि आप उससे बच कर निकल जाएं।
यह एक दिन का वाक्या नहीं था। उसकी लंबी और छोटी कहानियां कभी खत्म नहीं होती। टहलते हुए, खाते हुए, बातचीत करते हुए। इसके पहले कभी मैंने ऐसी लंबी- मोड़ लेती कहानियां नहीं सुनी थीं – चाहे यह रहमत रहीम की टूटी सगाई के बारे में हो। या फिर अपनी महिला दोस्तों में से किसी एक के साथ उसके भाग जाने की हो। उसका अपने दोस्तों के बीच से निकल भागने का हो।
जब वक्त आता उसकी कहानी के खत्म होने का। वह थका सा नज़र आता। लगता गहरे अभाव अपनी मियाद पूरी कर रहे हों। हालांकि वह उस गिरोह में गलत सा था। ऐसे जमे-जमाए खेल में अनफिट सा। जो अचानक आने वाले समय में एक किनारे छोड़ दिया गया हो। दूसरे अनचाहे भी सेवा निवृत सिपाही नील देव और दूसरे सहयोगी (इनमेट) महताब ने कई बार कोशिश की अपनी दर्दनाक कहानियां अपनी याददाश्त के झरोखे से सुनाने की। लेकिन हर बार वह उनकी बात लपक लेता और वे अपनी कहानियों को सुनाने के शब्द तलाशते रहते कि इसकी अपनी कहानी सुनानी शुरू हो जाती।
इस दौरान वह खासा असहाय सा लगता। अनजाने में वह मेरा हाथ पकड़ लेता। आश्चर्य हो कि न हो मैं भी वैसा ही करती। मैं महसूस करती अजीब सा खालीपन। यदि उसका हाथ मेरे हाथ की ओर न बढ़ता या वह मेरा ध्यान नहीं खींचता। दरअसल मुझे खुशी होने लगी थी जब वह मेरे किसी हाथ को अपने हाथ में ले लेता और उसे मजबूती से पकड़े रहता।
मैं शरमा जाती जब वह मेरे चेहरे को घूरता। उसकी निगाहें सीधी मेरे अंदर आती। उन निगाहों के तेज से मैं चकरा जाती। घंटों मैं बैठी उसकी कहानियां सुनती रहती। मानो वे उसकी अपनी हों या फिर उसके मन में अंदर ही अंदर बनी हों। वह उन्हें सुनाता। दूसरे साथी अपने रखवालों के साथ पास ही खड़े होकर सुनते रहते।
उन कहानियों के अंदर जटिल ब्यौरे वह बड़ी खूबसूरती से सुनाता। उसकी कहानियों में दुष्ट शासक, खलनायक, पर्वतारोही और सोने वाले लोग होते। वे धूर्त सिपाही होते जो माल लेकर रफूचक्कर हो जाते। और फिर साथ ही होता फांसी घर और गोपनीय कब्रिस्तान। और यहीं नहीं, कहानियों में ढेरों अजीबों-गरीब नाम होते शासकों के और तब के राजनीतिक माफिया के। और इन सबके बाद भी वह कहता, ‘नाम में क्या रखा हैं।’
खास दिन ही था वह जब उसने कहा, ‘शादी में क्या रखा है।’ उसने अपना हाथ मेरे हाथों में दिया और मेरी आंखों में सीधे देखने लगा। यह फुसफसाते हुए और बोला फिर दुहराया उन आठ अफसरों के बारे में जिनके चलते मेरी बर्बादी हुई थी।
‘नहीं, शादी नहीं!’ मैं चीखी। शायद ज्य़ादा ही ज़ोर से वहां मौजूद साथी हमारी ओर आए यह सोच कर कि रहमत की कहानी में ज़रूर कहीं ऐसा कोई मोड़ आ गया होगा जिसके कारण मैं चीखी। वे यह देख-समझ कर कि ऐसी कोई बात नहीं है वे उधर चले गए जहां महताब भट्ट और नीलदेव परेशान और बेचैन से बैठे थे। क्योंकि रहमत उनके पास गया था अपनी एक लाइन के वाक्य के साथ शायद आपके लिए दुबारा शादी। मेरे लिए तो पहली बार।’
मुझे इस पूरे वाक्य पर एक साथ हंसी भी आए और रोना भी। कमरे में मौजूद उन सभी लोगों के लिए जिनकी मेमोरी सेल सक्रिय थीं वे बड़े ही रहस्यपूर्ण तरीके से हमें देख रहे थे। कभी उसे और कभी मुझे। अगली शाम तक यह सिलसिला चलता रहा जब तक मैंने यह तय नहीं कर लिया कि इसी आदमी से मैं करूंगी विवाह।
वे तमाम चेतावनियां, शब्दों के कुहासों में कहीं खो गईं। कोई भी हमारे रास्ते में नहीं आया। या कहें, मैंने ही नहीं आने दिया। न तो वे संदेहास्पद निगाहें जो मुझ पर और उस पर डाली जाती थीं। बड़ी ही तेज़ी से।
उसका हाथ मेरे हाथ को मजबूती से पकड़ पाता उसके पहले ही अल्जाइमर के इस ‘घर’ को तब्दील कर दिया गया एक किले में। उसे घसीटा गया पुलिस की एक जिप्सी गाड़ी की ओर। उसमें उसे उछाल कर इस तरह फेंका गया मानो हड्डियों का वह एक ढेर हो। उसमें और भी कई पड़े होंगे जिनके नाम दर्ज किए गए या लिखे गए उन गिरफ्तार लोगों की सूची में जिसमें खोए हुए लोगों के नाम दर्ज थे।
मैं पुलिस की उस गाड़ी के पीछे चीखती-पुकारती दौड़ती गई। जब तक मेरे दांतों से दांत टकराने नहीं लगे। ‘वह अल्जाइमर से पीडि़त इंसान है। उसकी बुद्धि बहुत कम है। वह मेरा नया पति है। वह तो आप बड़े साहबों … अधिकारियों के नाम भी नहीं ले सकता। वह अपना मुंह भी अब नहीं खोल सकता।
लेकिन एक बार उसे पूछताछ के लिए घसीटा गया। फिर वह खामोश हो गया। वापसी का कोई मौका भी नहीं। उसे गुमशुदा कैटेगरी में डाल दिया गया। कभी दिखे या न दिखे।
अपने नाम के साथ मुझे अधूरी विधवा की पदवी लटका कर वह गायब हो गया था। मैं एक कैदी शिविर से दूसरे कैदी शिविर। पूछताछ के एक केंद्र से दूसरे केंद्र का चक्कर लगाती रहती। यह उम्मीद करती कि उससे पूछताछ अभी चल रही होगी। उन बड़े नामों के साथ, बड़े-बड़े पदों के साथ और बड़े आरोपों के साथ।
शादीशुदा या बिलकुल साफ कहें तो दुबारा शादी तो हुई भले ही एक दिन के लिए। दूसरे ही दिन तो आधी विधवा की श्रेणी में आ गई। जब उसे जबरन अल्जाइमर होम के बाहर खड़ी पुलिस जिप्सी में वे घसीटते हुए ले गए थे। ‘अल्जाइमर होम’ वह जगह थी जहां ऐसे लोग रहते है। जिनकी सोच याददाश्त के झरोखों से कुछ कुछ देर के लिए बाहर आती है और फिर गुम हो जाती है। वहां रहने वाले ऐसे लोग थे जो बीते हुए को आज की वास्ताविकता से जोडऩे की कोशिश करते हैं।
आज भी मैं तैयार हो रही हूं। इस सीढ़ी से नीचे उतर कर किसी बस या मेटाडोर से जाकर अपने ‘लापता’ हो गए पति को तलाशने। ये विचार नहीं छूट पाते। ये सब हमेशा मेरे दिमाग में उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। रंग खो चुका एक दुपट्टा में अपनी छातियों पर डालती हूं। फिर मैं अपने सीने को देखती हूं … कितनी निराशा होती है। मानो और देखूं तो एहसास ही कि मेर बीते कल से मेरी निराशा का ही अंदाजा लगाया जा रहा है। आखिरकार, उस किशोर उम्र में मेरे सीने पर जब उभार आने लगे थे तो लगता था कि भावनात्मक दौर से उनका साथ है जिनसे मैं गुजर रही हूं।
पहली बार मैंने उनमें बदलाव तब अनुभव किया जब हाईस्कूल में मैं प्यार कर बैठी थी। ये स्तन तब बड़े फुर्तीले और बेहद सजग लगते थे। अचानक हम जब अलग हुए तो ये बेस्वाद से झुके से लगते थे, मानो सूरज की रोशनी से नई पत्तियां अचानक मुरझा गई हों। सीने पर लटकी बेमतलब। ज्य़ादा वक्त नहीं बीता जब मैं दूसरी बार आकृष्ट हुई। लेकिन यह भी देखा-देखी का प्यार नहीं था। मैं निढाल लेटी पड़ी थी।
उदासी का दौर था मुझ पर। इस बेमेल शादी का। बिना हिले-डुले मैं लेटी रही। एक रात के बाद दूसरी रात। रविवार से शनिवार तक। कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता जब मैं चौंक कर इधर-उधर न देखती। फिर रोती ज़ोर-ज़ोर से और समय बीतता। न केवल मेरे कपड़े बल्कि मेरे जूते वगैरह भी जो शादी के समय के थे। वह शादी जिसने मुझे सदमे में डाला हर सुबह।
सब कुछ खत्म हो रहा है
भाग रहा है
बड़े शहर की उन बड़ी-बड़ी बसाहट से दूर। उधर को जहां इससे ज्य़ादा भावनाएं हैं या स्तन हैं या जो डुब के पड़े हैं।
आज मैं बैठी हूं। मेरे चारों ओर मेरे ओर आधी बेवा का तमगा लटका है। आज कुछ ही लोग मानते है कि यह पूरी तौर पर बंद है।