दिग्पराजय

पिछले तीन साल में मीडिया में आई कांग्रेस संबंधी खबरों का लेखा-जोखा निकाला जाए तो पता चलेगा कि सबसे ज्यादा जगह दिग्विजय सिंह ने घेरी. थोड़ी और पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि मध्य प्रदेश पर दस साल तक राज करने वाला यह नेता अक्सर नकारात्मक वजहों से सुर्खियों में रहा. सरकार में बगैर किसी ओहदे के चर्चा में कैसे बने रह सकते हैं, यह दिग्विजय सिंह ने दिखाया. जितने मुखर वे दिखे, उतना कोई और कांग्रेसी नहीं दिखा. मीडिया, संगठन और सरकार में उनकी छवि कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु की बन गई. राहुल गांधी ने अपने लिए सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों को तय किया था. इसके तहत दिग्विजय सिंह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया. 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणाम ने राहुल का उत्साह बढ़ाने का काम किया था. राहुल बरास्ते उत्तर प्रदेश सात रेस कोर्स रोड में पहुंचने की रणनीति के तहत काम कर रहे थे. लेकिन इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पिछली बार की तरह चौथे नंबर पर रही. राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की रणनीति ढेर हो गई. अब सवाल उठता है कि इसके बाद दिग्विजय सिंह की राजनीतिक दिशा क्या होगी.

विधानसभा चुनावों में खास तौर पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार पर सोनिया गांधी का कहना था कि हार की समीक्षा होगी और जरूरी कदम उठाए जाएंगे. कुछ लोग यह संकेत निकाल सकते हैं कि इस हार के लिए कुछ लोगों पर गाज गिरेगी. लेकिन सच्चाई कुछ और है. वरिष्ठ पत्रकार रसीद किदवई ‘तहलका’ से कहते हैं, ‘कांग्रेस विचित्र पार्टी है. यहां अकाउंटेबिलिटी का अभाव है. किसी को सजा देने की परंपरा यहां नहीं है. इसलिए यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व दिग्विजय सिंह के पर कतरेगा.’

राजनीति के चतुर खिलाड़ी दिग्विजय सिंह ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने का इंतजाम पहले से ही कर रखा है. हिमांशु शेखर का आकलन

तो फिर आगे दिग्विजय सिंह की भूमिका क्या होगी? कांग्रेसी सूत्रों के मुताबिक पार्टी में कई वरिष्ठ नेता उन्हें पसंद नहीं करते. इन नेताओं में दो सबसे बड़े नाम हैं पी चिदंबरम और कपिल सिब्बल. सूत्र बताते हैं कि पार्टी की आंतरिक बैठकों में इन दोनों नेताओं ने दिग्विजय पर हल्ला बोल दिया है. यूपी की हार का ठीकरा वे दिग्विजय की अनावश्यक बयानबाजी पर फोड़ना चाहते हैंैं. चिदंबरम और दिग्विजय का टकराव पुराना है. नक्सलवाद से लेकर बाटला हाउस मुठभेड़ तक दोनों नेताओं की अलग-अलग लाइन रही है. बाटला हाउस को जिस आजमगढ़ में दिग्विजय ने बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की वहां की सभी दस विधानसभा सीटों पर कांग्रेस तीसरे और चौथे स्थान पर रही. कहा जाए तो उत्तर प्रदेश में दिग्विजय का कोई भी दांव सफल नहीं हुआ. यही वजह है कि चिदंबरम और सिब्बल समेत कई कांग्रेसी दिग्विजय सिंह को किनारे करने के पक्षधर हैं. लेकिन क्या यह संभव है?

इस सवाल का जवाब समझने के लिए एक घटना का जिक्र जरूरी है. कुछ ही महीने पहले एक पत्रकार ने दिग्विजय सिंह से पूछा कि क्या उनकी कोई ऐसी इच्छा बची है जो पूरी नहीं हुई हो. उन्होंने जवाब दिया कि वे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते हैं. मतलब साफ है कि दिग्विजय की ताकत का मूल स्रोत गांधी परिवार की भक्ति है. इस भक्ति का ही नतीजा है कि 2003 में विधानसभा चुनावों में उमा भारती की अगुवाई वाली भाजपा से मात खाने के बाद उनका विस्थापन नहीं होता बल्कि उनका पुनर्वास राष्ट्रीय राजनीति में करवाया जाता है बतौर महासचिव.

दिग्विजय सिंह उत्तर प्रदेश के नतीजों से अनजान नहीं थे. यही वजह है कि राहुल गांधी के साथ उत्तर प्रदेश में लगे रहने के बावजूद उन्होंने अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश में कांग्रेस की आपसी गुटबाजी में बिसात कुछ इस तरह बिछाई कि अब वहां एक ही गुट बचा है. वह है दिग्विजय सिंह का गुट. मतलब साफ है कि 2013 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के हर कदम के केंद्र में दिग्विजय रहने वाले हैं.

2014 के लोकसभा चुनावों से तकरीबन आठ महीने पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली में चुनाव होने हैं. इन चुनावों में गांधी परिवार ऐसे नतीजे चाहेगा जिनसे कांग्रेस की केंद्र में वापसी की संभावना बनी रहे. ऐसे में राजस्थान की सरकार बचाने के अलावा कांग्रेस का जोर मध्य प्रदेश में अपनी सेहत सुधारने पर भी रहेगा. यहीं पर दिग्विजय एक बार फिर से प्रासंगिक हो जाते हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में स्थानीय नेतृत्व का संकट झेलने वाली कांग्रेस दिग्विजय को किनारे करके मध्य प्रदेश में वही संकट पैदा करने का खतरा मोल नहीं ले सकती.