जो बात भाजपा नेता नाम छिपाने की शर्त पर बताते हैं वह कई और रूपों में देखने को मिल जाती है. मसलन कलराज मिश्र पहली बार विधायक बने हैं, लेकिन सरकार ने उन्हें गौतम पल्ली के उस इलाके में शानदार बंगला दे दिया है जहां सिर्फ वरिष्ठ मंत्रियों और नौकशाहों के लिए बंगले देने का प्रावधान है. मुलायम सिंह के पुराने साथी और वर्तमान शत्रु के रूप में अवतरित हुए बेनी प्रसाद वर्मा ने भी हाल ही में इसी तरह का एक रहस्य उजागर किया था. उनके मुताबिक बाबरी मस्जिद के विध्वंस में मुलायम सिंह की भाजपा के साथ मिलीभगत थी. बेनी प्रसाद वर्मा से इस आरोप का आधार पूछने पर वे एक कहानी सुनाते हैं, ’30 अक्टूबर 1990 को कारसेवा वाले दिन मैं बाराबंकी में था. दोपहर बारह बजे मुलायम सिंह यादव ने मुझे फोन करके बताया कि उन लोगों ने तो मस्जिद गिरा दी है. तो मैंने पूछा अब क्या करें. इस पर मुलायम बोले कि अब जो होना था सो हो गया. देखते हैं आगे क्या हो सकता है. दस मिनट बाद मुख्य सचिव राज भार्गव का फोन आया कि साहब मसजिद सुरक्षित है. कुछ कारसेवक उग्र हो रहे हैं. लेकिन मस्जिद को कोई नुकसान नहीं हुआ है. बाद में जब कारसेवक और उग्र हो गए तो एसपी फैजाबाद ने गोली चलवा दी. तब मेरी समझ में आया कि मुलायम और आडवाणी के बीच मिलीभगत थी. वरना मुख्यमंत्री को इतनी गलत सूचना कैसे मिलती. इसका एक ही अर्थ था कि मुलायम सिंह को यह बात पता थी कि मसजिद गिराई जानी है. इसी आधार पर उन्होंने मुझे फोन किया था.’
अपनी बात के समर्थन में बेनी प्रसाद वर्मा आगे एक और वाकए का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘1999 में वाजपेयी जी की सरकार एक वोट से गिर गई थी. सोनिया गांधी वामपंथियों और सपा के समर्थन की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति के पास गई थीं. उसी रात आडवाणी ने दिल्ली की कैलाश कॉलोनी में मुलायम सिंह के साथ बैठक की और अगले दिन मुलायम ने सोनिया को समर्थन नहीं देने की घोषणा कर दी. इस बैठक का जिक्र खुद आडवाणी ने अपनी किताब माइ कंट्री माइ लाइफ में किया है. ये दोनों पार्टियां एक-दूसरे से मिली हुई हैं. इनकी कोई विचारधारा नहीं है.’ अतीत की कुछ और भी घटनाएं बेनी प्रसाद वर्मा के आरोपों की पुष्टि करती हैं. जैसे 2003 में बसपा-भाजपा गठबंधन टूट जाने के बाद अगले तीन सालों तक मुलायम सिंह की सरकार भाजपा की बैसाखी पर टिकी रही. 145 विधायकों वाली सपा को भाजपा ने सदन से वॉकआउट करके बहुमत सिद्ध करने का मौका दिया. बदले में मुलायम सिंह यादव ने भाजपा नेता केशरीनाथ त्रिपाठी को विधानसभा का अध्यक्ष बनाए रखा. सपा के एक महासचिव नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘राजनीति में चीजें इतनी सीधी-सादी नहीं होतीं. राजनीतिक हित के लिए दोनों दल छोट-मोटे समझौते करते रहते हैं. हमारे नेताजी बड़े दिल के आदमी है.
तमाम किस्से है जब उन्होंने अपने राजनीतिक दुश्मनों को माफ कर दिया.’ उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण सूबे में सहजीवन का यह फार्मूला दोनों ही पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण है. भाजपा नेताओं को पता है कि प्रदेश में उनके लिए कोई बड़ी उम्मीद नहीं बची है. ले-देकर यही तीन-पांच वाली राजनीति उन्हें यहां प्रासंगिक बनाए हुए है. उधर, जानकारों की मानें तो मुलायम सिंह यादव और सपा के लिए इस खेल के मायने कहीं ज्यादा बड़े हैं. उनकी पार्टी क्षेत्रीय है. प्रदेश के बाहर उसकी कोई हैसियत नहीं है. यदि प्रदेश में कांग्रेस घुसपैठ करने में कामयाब होती है तो सपा के लिए अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो सकता है. देखा जाए तो कांग्रेस और सपा की नीतियों और वोटबैंक में कोई बड़ा अंतर नहीं है. मुसलमान और पिछड़ा माइनस यादव की राजनीति कांग्रेस भी करती है. यदि भाजपा थोड़ी सी मजबूत होती है तो बदले में मुसलमानों का ध्रुवीकरण सपा के पक्ष में आसानी से हो सकता है. बीते कुछ सालों में भाजपा-सपा ने मिलकर कांग्रेस को यूपी से बाहर रखने का एक यह भी फॉर्मूला ईजाद किया है जो कि सहजीवन का आदर्श उदाहरण है.