अलग-अलग राजनीतिक विचार के लोगों में विरोध हो सकता है. लेकिन अपने आंतरिक मामले को दूसरे देश की सरकार के सामने ले जाना क्या बाहरी दखल को आमंत्रित करना नहीं है?
हमने यह पत्र इस मकसद से नहीं लिखा. दरअसल, यह पत्र तब लिखा गया था जब गुजरात में विधानसभा चुनाव चल रहे थे. आपको याद होगा कि उस वक्त यूरोपीय संघ और अमेरिका के कुछ अधिकारी भी नरेंद्र मोदी से मिलने आए थे. इसके बाद मोदी, उनकी पीआर एजेंसी एप्को और अमेरिका ने मिलकर लोगों के बीच यह संदेश देने की कोशिश की कि अगर मोदी एक बार फिर से चुनाव जीत जाते हैं तो उन्हें अमेरिका और यूरोप का पूरा समर्थन मिलेगा. इसलिए हमने पत्र के जरिए अमेरिका से स्पष्टीकरण मांगा था कि अगर आप अपनी वीजा नीति में कोई बदलाव कर रहे हैं तो यह काम पारदर्शी तरीके से होना चाहिए. भ्रम बनाकर लोगों को ठगा नहीं जाना चाहिए.
लेकिन आप लोगों ने जो पत्र लिखा है उसमें तो स्पष्ट मांग है कि अमेरिका मोदी को अमेरिकी वीजा न देने की नीति को कायम रखे.
देखिए, यह उनका मामला है कि वे किसे अपने यहां आने देना चाहते हैं और किसे नहीं. हमने तो सिर्फ अपनी स्थिति स्पष्ट की है. हमने उन्हें बताया है कि 2002 दंगों के दौरान स्थितियां काफी भयावह थीं. अब भी हालात अच्छे नहीं हैं. आज नरेंद्र मोदी के 14 पुलिस अधिकारी जेल में हैं.
मोदी लोकतांत्रिक और संवैधानिक तरीके से चुने गए मुख्यमंत्री हैं. बतौर सांसद आपने भी संविधान की रक्षा की शपथ ली है. ऐसे में क्या संवैधानिक तौर पर चुने गए मुख्यमंत्री के खिलाफ विदेशी मंच पर मोर्चा खोलना संविधान की भावना के खिलाफ नहीं है?
संवैधानिक तौर पर चुने जाने का मतलब यह नहीं है कि कोई लोगों को बांटने और नरसंहार की राजनीति करे. नरेंद्र मोदी को अगर इस देश के संविधान का खयाल होता तो वे अपनी सभाओं में मुसलमानों को मियां मुशर्रफ कहकर नहीं चिढ़ाते. वे ऐसा कहकर हमें पाकिस्तानियों के साथ खड़ा कर देते हैं. तो क्या देश में रहने वाले सभी मुसलमानों को अपनी देशभक्ति साबित करनी होगी. संवैधानिक व्यवस्था में किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा भारत के प्रति मुसलमानों की निष्ठा पर सवाल खड़ा किया जाना बेहद अपमानजनक है और इसका विरोध जताने का हक हमसे छीना नहीं जा सकता.
कुछ जानकारों का कहना है कि अपने आंतरिक मामले को दूसरे देश के सामने ले जाने से हमारी विदेश नीति को झटका लगेगा.
दुनिया में जहां भी नाइंसाफी हुई है, उसका विरोध मैंने किया है. दुनिया के अलग-अलग देशों में हो रहे अत्याचारों को लेकर मैंने संसद में कई बार बोला है. इसमें मैंने किसी खास मजहब के लोगों का खयाल नहीं रखा. ऐसे में अगर गुजरात में हुए अत्याचारों को मैं उठा रहा हूं तो इसमें गलत क्या है. मंच चाहे जो भी हो मेरी लड़ाई नाइंसाफी के खिलाफ है. नरेंद्र मोदी के बारे में खुद अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि 2002 में गुजरात में जो हुआ उसके बाद मैं दूसरे देशों में मुंह दिखाने लायक नहीं हूं. इसका मतलब तो यही हुआ न कि देश में जो होता है उसका विदेश नीति पर असर पड़ता है.
अमेरिका की छवि मु्स्लिम विरोधी देश की है और आप उसी के सामने भारत के एक तथाकथित मुस्लिम विरोधी नेता का विरोध जता रहे हैं. क्या यह दोहरापन नहीं है?
हमने कहीं भी यह नहीं कहा कि अमेरिका मानवाधिकारों का सबसे बड़ा हितैषी है. अपने पत्र में भी नहीं. हमारा तो यह मानना है कि पूरी दुनिया में जितना आतंकवाद है, उसका जिम्मेदार अमेरिका है. हमने इस पत्र के जरिए एक तरह से अमेरिका को आईना दिखाने की कोशिश की है. मोदी को वीजा का मामला अमेरिका से जुड़ा हुआ है. इसलिए स्वाभाविक है कि पत्र भी अमेरिका को ही लिखना पड़ा.
आपके पत्र में माकपा सांसद सीताराम येचुरी के दस्तखत भी हैं, लेकिन उन्होंने ऐसे किसी पत्र पर दस्तखत से इनकार किया है.
सीताराम येचुरी बेहत प्रतिष्ठित सांसद हैं और मेरे अच्छे मित्र भी हैं. इस बारे में मैंने पहले भी कहा था कि उन्होंने दस्तखत किए हैं. उन्होंने इस खत को कोई दूसरा खत समझ कर गलतफहमी में बयान दे दिया है.
क्या आपकी उनसे इस बारे में कोई बातचीत हुई?
वे अभी देश से बाहर हैं. जैसे ही वे लौटेंगे, मैं उनसे मिलूंगा और मुझे यकीन है कि वे इस पत्र और अपने दस्तखत को देखकर यथास्थिति लोगों के सामने रखेंगे.
भाजपा का भी आरोप है कि आपने सांसदों के फर्जी दस्तखत करवाए.
मैं इन आरोपों से आहत हूं. अमेरिका की एक फोरेंसिक लैब ने यह बात प्रमाणित कर दी है कि सारे दस्तखत असली हैं. मेरे ऊपर फर्जीवाड़े का आरोप लगाने वाले भाजपा प्रवक्ताओं को माफी मांगनी चाहिए. मैं अपने उस बयान पर कायम हूं कि अगर कोई यह साबित कर दे कि दस्तखत फर्जी हैं तो मैं राज्यसभा से इस्तीफा दे दूंगा.