हिमाचल प्रदेश में पोंग बाँध के 8000 से अधिक विस्थापित लोग पाँच दशक से अपने पुनर्वास का इंतज़ार कर रहे हैं। यह 50 साल पहले की बात है, जब 30,000 से अधिक परिवारों को उनके घरों और ज़मीनों से उजाड़ दिया गया था। इनमें से हज़ारों लोग आज भी दर-ब-दर हैं, उनका पुनर्वासन नहीं हुआ है।
पोंग बाँध प्रभावित ग्रामीण अपनी समस्याओं के प्रति अधिकारियों को असंवेदनशील बताते हैं। हज़ारों ग्रामीण आज भी एक भय में जीने को मजबूर हैं। उन्होंने अब सर्वोच्च अदालत (सुप्रीम कोर्ट) में एक याचिका दायर की है। सर्वोच्च अदालत उनकी इस याचिका पर 20 जनवरी को सुनवाई करेगी। इस याचिका में कहा गया है कि करीब 30,000 किसान परिवार पोंग बाँध के विस्थापन से प्रभावित थे; क्योंकि उनकी भूमि बाँध के कारण जलमग्न हो गयी थी। इन करीब 30,000 परिवारों में से कम-से-कम 8,000 परिवारों को अभी भी पुनर्वास की प्रतीक्षा है।
इन 8000 परिवारों को न तो भूमि आवंटित ही की गयी है और न ही उचित मुआवज़ा दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने 16 अक्टूबर को राजस्थान और हिमाचल प्रदेश राज्यों और जल शक्ति मंत्रालय के जल संसाधन विभाग की याचिका पर नोटिस जारी किये थे। विस्थापितों की दूसरी पीढ़ी द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि राजस्थान सरकार 1996 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत स्थापित विस्थापितों की शिकायतों के लिए बैठक न करके आवंटियों की प्रक्रिया का उल्लंघन कर रही है। पोंग बाँध के विस्थापितों के दशकों लम्बे संघर्ष की कहानी भारत के अक्षय ऊर्जा क्षमता को बढ़ाने के दृष्टिगत और अहम हो जाती है; क्योंकि यह साल 2030 तक अपने स्थापित बड़े बाँधों की वर्तमान पनबिजली क्षमता को 45 गीगावॉट से कम-से-कम 34 फीसदी बढ़ाकर 60 गीगावॉट तक करना चाहता है। भूमि संघर्ष निगरानी (लैंड कन्फ्लिक्ट वॉच) के मुताबिक, भारत में बाँधों के कारण कम-से-कम 60 मामले चल रहे हैं। यह संस्था भारत में चल रहे भूमि संघर्ष पर डाटा एकत्र करती है। साल 2013 में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम ने पहली बार उचित मुआवज़े और पारदर्शिता के अधिकार को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाया था।
तथ्य यह है कि आज़ादी के बाद के वर्षों से अलग-अलग परियोजनाओं को अभी तक विस्थापितों के मामलों को निपटाना है। इनमें स्वतंत्र भारत का पहला बाँध हीराकुंड (ओडिशा), दामोदर (झारखण्ड), भाखड़ा नागल (हिमाचल प्रदेश), सरदार सरोवर बाँध (गुजरात), श्रीशैलम (आंध्र प्रदेश), कृष्णराज सागर (कर्नाटक), टिहरी (उत्तराखण्ड), रेंगाली (ओडिशा) शामिल हैं। अपर कोलाब (ओडिशा), डिमना (झारखण्ड), अपर कृष्णा (कर्नाटक), माखन (गुजरात), करंजा (कर्नाटक) और डिमना (झारखण्ड) शामिल हैं।
पोंग पुनर्वास राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के बीच समझौता ज्ञापन पर निर्भर था; लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। मार्च, 2019 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं (जैसे कि 25 मेगावॉट से कम बिजली उत्पादन क्षमता वाली छोटी पनबिजली परियोजनाओं) के रूप में वर्गीकृत करके बड़े बाँधों को बढ़ावा देने का फैसला किया। साथ ही बिजली दरों को कम करने और इसे अनिवार्य बनाने के लिए नये बाँधों को बजटीय सहायता प्रदान की, ताकि राज्य बाँधों से बिजली खरीद सकें। सरकार के बयान में कहा गया है- ‘भारत 1,45,320 मेगावॉट की बड़ी जल विद्युत क्षमता से सम्पन्न है, जिसमें से अब तक केवल 45,400 मेगावॉट का ही उपयोग किया जा सका है। बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट पर्यावरण के अनुकूल थे। ग्रिड स्थिरता के लिए आदर्श हैं और जल सुरक्षा, सिंचाई, बाढ़ मॉडरेशन और पूरे क्षेत्र का सामाजिक-आर्थिक विकास प्रदान करते हैं।
केंद्र और राज्य सरकारों ने पिछले कुछ वर्षों में कई बड़ी बाँध परियोजनाओं का प्रस्ताव किया है, जिसमें अरुणाचल प्रदेश में एटलिन परियोजना, आंध्र प्रदेश में पोलावरम् और छत्तीसगढ़ में बोधघाट शामिल हैं। सन् 1975 में पूरे हुए पोंग बाँध ने व्यास नदी को संयोजित किया और सबसे लम्बे नहर नेटवर्क- इंदिरा गाँधी नहर के माध्यम से राजस्थान के थार रेगिस्तान तक अपना पानी पहुँचा दिया। इस बाँध ने कांगड़ा ज़िले के 339 गाँवों में 75,268 एकड़ में भूमि को जलमग्न कर दिया और लगभग 30,000 परिवारों को उजाड़ दिया। याचिका के अनुसार, 16,352 परिवारों ने अपनी एक-तिहाई से अधिक भूमि खो दी थी। उन्हें राजस्थान में भूमि के वैकल्पिक भूखण्डों पर पुनर्वास के लिए योग्य माना गया था, जिसे राजस्थान नेटवर्क के अनुसार, नहर नेटवर्क द्वारा सरकारी भूमि का आवंटन (पोंग बाँध के लिए सरकारी भूमि का आवंटन) राजस्थान कैनाल कॉलोनी में नियम), सन् 1972 सिंचित किया जाना था। प्रत्येक पात्र को 15 एकड़ भूखण्ड आवंटित किया गया था, जो कि राजस्थान और पंजाब की सरकारों द्वारा स्वीकार किये गये पुनर्वास पैकेज के अनुसार था। बता दें पंजाब हिमाचल प्रदेश राज्य के निर्माण से पहले कांगड़ा को शासित करता था। सन् 1972 के नियमों को हिमाचल प्रदेश सरकार से प्राप्त राजस्थान सरकार की पात्रता प्रमाण पत्र को प्रस्तुत करने के लिए अपदस्थ करने की आवश्यकता थी। राजस्थान सरकार को तब भूमि का आवंटन करना था और सड़क, बिजली, पानी, स्कूल और स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करानी थीं। लेकिन जो भूखण्ड आवंटित किये गये थे, वो बंजर थे और वहाँ किसी भी तरह की नागरिक सुविधाएँ नहीं थीं। श्रीगंगानगर में आवंटित भूमि को प्राप्त करने के लिए उन्हें घंटों पैदल चलना पड़ा; क्योंकि वहाँ न सड़कें थीं, न पीने का पानी था और न ही बिजली थी। सन् 1980 तक राजस्थान सरकार ने कांगड़ा के केवल 9,196 परिवारों या 56 फीसदी लोगों को ही भूमि आवंटित की थी। इन आवंटनों में से 72 फीसदी को राज्य द्वारा 1972 के नियमों का उल्लंघन करने के लिए रद्द कर दिया गया था। सन् 1993 में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा दायर एक हलफनामे में यह बात कही गयी है। न्यायालय ने कहा- ‘उनके पिछले रिकॉर्ड के सम्बन्ध में राजस्व अधिकारियों राजस्थान को कार्य सौंपा नहीं जा सकता है।’ इससे सन् 1992 के संशोधन को नुकसान हुआ, जिसमें कहा गया कि एक निरस्त आवंटन केवल दूसरे बेदखल करने वाले को सौंपा जा सकता है। इसने भूमि को आवंटित करने के लिए राजस्थान की शक्तियाँ भी ले लीं। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के सचिव और राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के राज्य प्रतिनिधियों को शामिल करने के लिए एक समिति को प्रभार सौंप दिया गया। यह समिति सन् 1996 के बाद से कम-से-कम 17 बार मिल चुकी है। याचिका के जवाब में सरकारों को सुप्रीम कोर्ट की प्रारम्भिक समय-सीमा के तीन दिन बाद सबसे आखरी बैठक 14 दिसंबर को थी। बता दें 11 दिसंबर को अदालत ने चार सप्ताह का अतिरिक्त समय दिया था।
एक बैठक में समिति ने राजस्थान के राजस्व सचिव की अध्यक्षता में एक स्थायी समिति नामित की, जिसमें विस्थापित लोगों के प्रतिनिधि शामिल थे। स्थायी समिति को निकाय की शिकायतों को हल करने और भूमि के आवंटन की निगरानी के लिए द्वैमासिक रूप से मिलने के लिए कहा गया था। इसने पुनर्वास के लिए नहर क्षेत्र में उपयुक्त भूमि का चयन करने के लिए विस्थापितों के पाँच प्रतिनिधियों की एक उप-समिति भी बनायी। उप-समिति ने कथित तौर पर राजस्थान में पुनर्वास क्षेत्रों का दौरा किया और पाया कि बहुत-सी भूमि असिंचित थी और अभी भी बिजली, पानी या अन्य मूलभूत सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध नहीं थीं। विस्थापितों के लिए आरक्षित भूखण्ड बिखरे हुए थे और एक क्षेत्र में जिप्सम खनन किया जा रहा था। समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि उसे नहीं लगता कि राजस्थान में सभी विस्थापितों के लिए पर्याप्त सिंचित भूमि उपलब्ध है।
सन् 2018 के बाद से राजस्थान सरकार ने कहा है कि वह बेदखलों को ज़मीन देगी; लेकिन जैसलमेर और बीकानेर ज़िलों में पाकिस्तान की सीमा के साथ। हिमाचल प्रदेश सरकार ने यह कहते हुए इस निर्णय का विरोध किया कि यह भूमि कृषि के लिए अनुपयोगी है, क्योंकि वहाँ महीनों पानी नहीं होता है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी कहा कि हिमाचल प्रदेश के एक कृषक अथवा ग्रामीण के लिए प्रथम दृष्टया यह असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है कि उसे जैसलमेर या बीकानेर ज़िलों के एक दूरदराज़ के इलाके में बसना पड़े; जहाँ वैकल्पिक भूमि की इन्हें पेशकश की जा रही है। अदालत ने सुझाव दिया कि हिमाचल प्रदेश में भूमि उपलब्ध करायी जानी चाहिए और राजस्थान को इसके लिए भुगतान करना चाहिए।